वित्त मंत्री को 7वें वेतन आयोग की सिफारिशें सौंपते हुए जस्टिस एके माथुर (फाइल फोटो)
वेतन आयोग ने इस बार देश की मौजूदा माली हालत का एक्सरे भी निकाल दिया है। अचानक हमें यह सुनने को मिला कि देश की इस समय माली हालत ऐसी नहीं है कि कर्मचारियों की तनख्वाह में इसके पहले के वेतन आयोग जितनी बढ़ोतरी की जा सके। गौरतलब है कि पिछले वेतन आयोग ने जितनी तनख्वाह बढ़ाने की सिफारिश की थी, उस समय की सरकार ने उससे दोगुनी बढ़ोतरी कर दी थी। इस बार कर्मचारियों के पास वही उदाहरण था। इसीलिए उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इस बार भी उनकी तनख्वाह में कम से कम पिछली बार जितनी बढ़ोतरी तो होगी ही। मौजूदा सरकार को भी पता था कि कर्मचारियों की न्यूनतम उम्मीद क्या है। लेकिन देश की माली हालत ने मजबूर कर दिया कि वेतन आयोग की सिफाारिशों के अलावा एक पैसा भी नहीं बढ़ाया जा सका। इन कर्मचारियों का सदमे में आ जाना स्वाभाविक है।
आर्थिक मजबूरियां बताने के अलावा कोई चारा नहीं
सरकार आखिर सरकार है। ये तो एकतरफा बहुमतवाली भी है। वह जो तय करेगी हार थककर मानना ही पड़ेगा। हां निराश कर्मचारी हाथ-पैर पटककर कुछ और पाने की कोशिश करेंगे जरूर। कर्मचारियों की हड़तालों, प्रदर्शनों और काम रोको अभियानों के दौरान सरकार को अपनी मजबूरियां बतानी ही पड़ेंगी। सरकार को यह हकीकत बोलकर कहना पड़ेगा कि कर्मचारियों की तनख्वाह जनता से जुटाए पैसे से ही दी जाती है। इसी प्रक्रिया में सरकार को इशारों ही इशारों में यह भी बताना पड़ेगा कि सरकारी कर्मचारियों के अलावा बाकी बचे निजी क्षेत्र के कर्मचारियों और असंगठित क्षेत्र के किसानों और मजदूरों की क्या हालत है। ये हकीकत अगर खुलकर बाहर निकल आई तो सनसनी फैल जाएगी।
सरकार को अपनी आर्थिक मजबूरियां बतानी होंगी
कई साल से संगठित क्षेत्र की मजदूर यूनियनों और कई किसान मजदूर यूनियनों की हलचल ठंडी पड़ी थी। लेकिन अब वेतन आयोग के कारण उन्हें बाहर आकर कहने सुनने का बड़ा मौका मिला है। इसी प्रक्रिया में मौजूदा सरकार को अपनी मजबूरियों का आक्रामक प्रचार करना पड़ेगा। सरकार देश की मौजूदा माली हालत को कितना भी छुपाए उसे कहना ही पड़ेगा कि पुरानी सरकार के समय जैसी ऊंची जीडीपी इस समय नहीं है। जब यह कहा जा रहा होगा तो इसी बात के सहारे पुरानी सरकार वाले नेता खुलकर अपने समय की उपलब्धियां बताने का मौका पा रहे होंगे। और मौजूदा सरकार की नाकामियों को आसानी से समझा रहे होगें।
विपक्ष क्या-क्या बता रहा होगा
विपक्ष खासतौर पर यूपीए के नेता बता रहे होंगे कि जब छठे वेतन आयोग की सिफारिशों से भी दोगुनी तनखाह बढ़ाई गई थी तो बाकी और क्षेत्रों में भी उनकी सरकार ने क्या-क्या किया था। वे याद दिलाएंगे के किसानों का 75 हजार करोड़ का कर्जा उसी दौर में माफ किया गया था। भारी मंदी के दौर में भी देश की अर्थव्यवस्था को किस तरह मजबूत बनाए रखा गया था। विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में विकास के जरिए रोजगार बढ़ाने के क्या-क्या उपाय किए गए थे। पांच करोड़ ग्रामीण परिवारों तक आंशिक रोजगार भेजने के मनरेगा जैसे देशव्यापी उपाय उसी दौर में हुए थे।
गांव-गांव तक पहुंचना शुरू हो गई हैं जानकारियां
अब तक होता यह था कि देश के हालात की हकीकत गांव-गांव तक पहुंच नहीं पाती थी। पिछले पांच साल में सोशल मीडिया और टीवी नेटवर्क के विस्तार ने गांव-गांव तक यानी देश के दो तिहाई हिस्से में भी अपनी पहुंच बना ली है। पिछले लोकसभा चुनाव में काले धन का पैसा लाकर हरेक को 15 लाख रुपए देने का प्रचार इसी जरिए से संभव हो पाया था। उस समय की सरकार के पास 15 लाख रुपए लाकर देने के पेशकशनुमा प्रचार का कोई 'काट' भले ही उपलब्ध न रहा हो लेकिन उस पुरानी सरकार के नेताओं को अब कहने, बताने का मौका मिलेगा कि देश ज्यादा दिन खुशफहमियों के सहारे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
वेतन आयोग के सहारे मोटा-मोटा अनुमान
लोगों को अच्छे से पता चल गया है कि वेतन आयोग की न्यूनतम सिफारिशें लागू करने से खजाने से एक लाख करोड़ रुपए निकलेंगे। ये रकम सिर्फ 20-22 फीसदी बढ़ी तनखाह के कारण निकालनी पड़ेगी। पूरी तनख्वाह पर खर्च का आंकड़ा पांच लाख करोड़ बैठता है जबकि इस साल का हमारा सालाना बजट ही सिर्फ 19 लाख 90 हजार करोड़ है। सिर्फ एक करोड़ सरकारी कर्मचारियों को उनकी पारंपरिक और जायज आकांक्षा का सिर्फ आधा देने के बाद भी अगर ये हालत है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार बाकी क्षेत्रों के लोगों यानी 25 करोड़ कर्मचारियों, मजदूरों, बेरोजगारों और किसानों को देने के लिए कितनी रकम निकाल रही होगी। मोटा अनुमान है कि देश के 14 करोड़ किसान परिवारों की आमदनी गरीबी रेखा से नीचे पहुंचती जा रही है।
सबको समान वितरण की बातों का समय
इस आलेख में अधिकतम शब्दों की सीमा के कारण यहां अपने 130 करोड़ आबादी वाले देश के विभिन्न वर्गो की न्यूनतम जरूरत का हिसाब लगाने की गुंजाइश नहीं है। मैक्रो इकोनॉमिक्स की मोटी-मोटी बातें करने की भी गुंजाइश नहीं है। फिर भी संक्षेप में कहा जा सकता है कि हम सबने लोकतंत्र का पहला लक्ष्य सम वितरण यानी सबको समान वितरण मान रखा है। सातवें वेतन आयोग के बहाने देश के अर्थशास्त्री समान वितरण के बारे में बातचीत शुरू कर सकते हैं। यह बात निकलेगी तो देश के 75 करोड़ किसानों और मजदूरों पर जाकर रुकेगी।
मनमोहन सिंह की याद क्यों न आए
हालात इस कदर हैं कि अर्थशास्त्रियों की याद आना लाजिमी हैं। ऐसे में विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और अपने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की याद क्यों नहीं आएगी। देश में आर्थिक मोर्चे पर काफी कुछ ठीकठाक चलते रहने वाले उस दौर में सौ सवालों के जवाब में उन्होंने कहा था कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते। इस छोटी सी बात पर आलोचकों ने हल्ला बोल दिया था। खैर वे प्रधानमंत्री रहे हैं। वे लगातार दो बार यानी दस साल प्रधानमंत्री रहे हैं। भले ही उनकी खिल्ली उड़ाने वालों ने उन्हें 'मौनी बाबा' कहा हो लेकिन नीति की बात यही है कि देश की मौजूदा माली हालत पर विचार-विमर्श में उन्हें शामिल करने का उपाय तलाशा जाए।
वैसे विपक्ष के एक नेता के तौर पर उनके पहले से ही शामिल होने का तर्क दिया जा सकता है, लेकिन उनके खिलाफ प्रचार के पूर्व अनुभव ऐसे हैं कि वे शायद खुद-ब-खुद पहल न करें। मौजूदा सरकार के दो साल से ज्यादा निकल जाने के बाद अब वह समय भी निकल गया लगता है कि मौजूदा सरकार यह कहे कि यह हमारा काम है, हम ही करेंगे। बहरहाल, हालात ऐसे हैं कि सरकार को देश-दुनिया के अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और दार्शिनिकों को एक साथ बैठाकर ब्रेन स्टॉर्मिंग यानी बुद्धिउत्तेजक सत्र आयोजित करने के काम पर लग जाना चाहिए..।
(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं)
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