#युद्धकेविरुद्ध : जंग के ढके-छुपे कुछ चेहरे

#युद्धकेविरुद्ध : जंग के ढके-छुपे कुछ चेहरे

प्रतीकात्मक तस्वीर

उरी हमले के बाद क्या किया जाए इसे सोचने में सरकार को देर लग गई. इस देरी का नतीजा यह हुआ कि लोगों के बीच युद्ध पर वाद-विवाद प्रतियोगिता सी चल पड़ी है. उरी की वारदात के बाद सरकार समर्थक खेमे के लोगों के तेवरों को देखकर लग रहा था कि युद्ध को टाला नहीं जा पाएगा. लेकिन कुछ ही दिनों में युद्ध के मसले पर जनता का एक खेमा खुलकर सोच-विचार करने लगा.

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इस समय युद्ध के नफे नुकसान, उसकी नीति अनीति और उसके इतिहास भूगोल पर खुलकर चर्चाएं हो रही हैं. एक सभ्य समाज के लिए इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है. वैसे अब तो तेज तर्रारी की मुद्रा बनाकर सत्ता में आई सरकार भी सोच समझकर, सही समय पर सही कार्रवाई की बात करने लगी है. कुल मिलाकर इस समय देश में तसल्ली से सोच-विचार चल रहा है. हालांकि इस माहौल में उन्माद, प्रमाद और आवेग सभी मनोभावों की बातें होना भी अपरिहार्य है. इसीलिए एक समझाइश विवेकपूर्ण विचार की भी बनती है. ये समय ये देखने का सही समय लग रहा है कि युद्ध का अपना राजनीति विज्ञान भी होता है. सबक के तौर पर युद्ध का इतिहास भी हमारे काम आता है. और उससे भी ज्यादा सनसनीखेज है युद्ध का अर्थशास्त्र.

युद्ध का राजनीतिशास्त्र
यह मानने से कौन इनकार करेगा कि युद्ध साम्राज्यवादियों का सबसे कारगर उपकरण रहा है. जब देख लिया गया कि हिंसा या युद्ध से कोई बहुत देर तक अपना दबदबा कायम नहीं रख सकता तो पूरी दूनिया ने सह अस्तित्व के सिद्धांत पर अपना यकीन बढ़ाया और समझ लिया कि मानव की सुख समृद्धि के लिए सह अस्तित्व का सिद्धांत ज्यादा कारगर है. यह जान लेने के बाद हमने सुख साता से रहने के लिए अंतरराष्टीय व्यवस्था बनाई और दुनिया के लगभग सारे देश, चाहे मन से चाहे मजबूरी में, उस अंतरराष्टीय व्यवस्था में अपना यकीन बनाए हुए है. यह तो थी अंतरराष्टीय संबंधों की बात. लेकिन नई राजनीतिक व्यवस्थाओं में देश के भीतर यानी घरेलू राजनीति किसी भी देश को युद्ध से पिंड नहीं छुड़ाने दे रही है. जो विद्वान इस पहलू को देखना और बताना जरूरी समझते हों उन्हे इस बारे में कायल बनाने लायक बातें बतानी चाहिए. उन्हें सबको बताना चाहिए कि घरेलू राजनीति किस तरह से युद्ध का इस्तेमाल करती है.

युद्ध का समाजशास्त्र
पहले छोटे और फिर बड़े कबीले और फिर छोटी से बड़ी हुई रियासतों से लेकर छोटे से बड़े देश बनने की कहानी ताकत के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने की ही कहानी है. इसी अस्तित्व की लड़ाई में अस्मिता यानी मैं-पने की भावना को बढ़ाने के तरीके ईजाद हुए. लेकिन ये तब की बात है जब हम लोकतंत्र या सह अस्तित्व के सिंद्धात को जान नहीं पाए थे. धीरे धीर हमने मानव मानव के बीच रंग, नस्ल, जाति, धर्म के बहाने होने वाले युद्ध के अमानवीय पक्ष को भी समझ लिया. पूरी दुनिया में इस समझ को मंजूरी भी मिलती गई. फिर भी हजारों साल चली और बढ़ी यह प्रवृत्ति जाते जाते ही तो जाएगी. सामाजिक व्यवस्था के इस समीकरण के लिहाज से भी हमें युद्ध पर सोच विचार करते चलना चाहिए. जैसे हर समस्या का प्रत्यक्ष कारण और मूलकारण अलग अलग होते हैं उसी तरह युद्ध के तात्कालिक कारण और ऐतिहासिक कारण अलग अलग ही होंगे. इस विषय के जानकारों को तसल्ली से सोच-विचार करके हम सब को वे कारण बताना चाहिए.

युद्ध का अर्थशास्त्र
युद्ध का यह सबसे सनसनीखेज पहलू है. जरा गौर करें तो दो-ढाई हजार साल के ज्ञात इतिहास में आजतक भी युद्ध का खर्चा सबसे बड़ा खर्च माना जाता है. जो युद्ध से पीड़ित हुए वे तो हुए ही बल्कि जो युद्ध में विजेता हुए वे भी आर्थिक रूप से तबाह हो गए. आन बान यानी गर्व या प्रतिष्ठा के लिए भूखे रह लेने का तर्क शासक जितना भी इस्तेमाल करते आ रहे हों, लेकिन युद्ध का खमियाजा हमेशा शासितों को ही भुगतना पड़ा है.

यह तो थी युद्ध की शाश्वत प्रवृत्ति की बात. अब अगर युद्ध का आधुनिक आर्थिक रूप देखें तो युद्ध के साजो सामान का उद्यम और व्यापार करने वाले लोग तो हमेशा युद्ध के पक्षधर रहेंगे ही. युद्ध का सामान बनाने की प्रौद्योगिकी विकसित करने वालों के पास दूसरे देशों की मदद करने की नैतिकता का तर्क हो सकता है. लेकिन विद्वानों को इस बारे में नैतिकता वाली बहस करने के लिए खुद को तैयार करने का वक्त आ गया है. वैसे युद्ध के चरम विध्वंसक हथियार बनना शुरू होने के बाद यानी एटमी प्रौद्योगिकी का व्यापार बढ़ने के बाद पारंपरिक हथियारों का बाजार ठंडा पड़ता जा रहा है. फिर भी पुरानी प्रौद्योगिकियां जाते जाते ही तो जाएंगी.

युद्ध के अर्थशास्त्र का विस्तार
दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के बाद हमें युद्ध का अर्थशास्त्र अच्छी तरह से समझ में आ चुका है. फिर भी दो तरफा युद्ध का सिलसिला बनाए रखने की मजबूरी से छुटकारा अभी भी नहीं मिल पा रहा है. कहते हैं विश्व की अर्थव्यवस्था में युद्ध के सामान का व्यापार आज भी सबसे बड़ा है. मुनाफे के लंबे चैड़े मार्जिन में तो यह हद से ज्यादा बड़ा व्यापार है. इस व्यापार के फलाने और फुलवाने के लिए पीछे से कोशिशें क्यों न होती होंगी. मसला चूंकि देशों की रक्षा के नाम से जुड़ा है सो खर्चे की बात करने पर अघोषित रोक स्वाभाविक है. भावनात्मक बात के कारण भी मजबूरन हर कोई खुद पर रोक लगाए रखता है. इसीलिए गरीबी और भुखमरी से युद्ध को जोड़कर बात करने वाले विद्वान कम पाए जाते हैं. यहां संकेत के रूप में फ्रांस से सिर्फ 36 लड़ाकू विमान खरीदने पर ही 59 हजार करोड़ खर्च आने का जिक्र किया जा सकता है. यह तो सिर्फ युद्ध के खिलाफ अपनी प्रतिरक्षा बढ़ाने के नाम पर एक मद में खर्च होने वाली रकम है.

गौर करने की बात है कि 15 साल पहले वायुसेना ने ऐसे सवा सौ विमानों की जरूरत बताई थी. आज वह 200 विमानों की जरूरत बताएगा. यानी जरूरत का सिर्फ पांचवा हिस्सा हिस्सा खरीदने पर ही 59 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं. बाकी खर्च सुनकर होश फाख्ता हो जाते हैं. युद्ध छेड़ने की तैयारी के लिए पूरे खर्च का अनुमान बताने वाले विशेषज्ञों को भी सक्रिय हो जाना चाहिए.

आर्थिक युद्ध के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा
आर्थिक हथियारों को बड़े-बड़े हथियारों से भी ज्यादा मारक माना जाता है. सरकार और सरकार का समर्थक तबका ऐसा ही एक हथियार ढूंढ़ कर लाया है. इसका नाम है सिंधु जल संधि. इस संधि के तहत भारत से बहकर जाने वाला बहुत सारा पानी पाकिस्तान को मिलता है. सोचा यह जा रहा है कि इस संधि के तहत ही अगर हम खुद को अपने हिस्से का पानी इस्तेमाल करने लायक बना लें तो पाकिस्तान हाहाकार करने लगे. ये बातें होने लगी हैं कि पूरी की पूरी संधि को ही हम रदद कर सकते हैं. लेकिन जब सोचने बैठेंगे तो पता चलेगा कि क्या सिंधु जल को रोक कर रखने का तरीका हमारे पास है. इसके लिए कितने और बड़े बांध बनाने पड़ेंगे. उसका खर्चा कहां से आएगा. इस तरीके के जरिये पाकिस्तान को मुश्किल में डालने में कितने साल और लगेंगे. यानी जहां सरकार पर फौरन से पेश्तर कोई कार्रवाई करने का जबर्दस्त दबाव है, उसे देखते हुए यह तरीका कारगर नहीं दिखता. इस हथियार को चलाने के लिए भी हमें भारी भरकम रकम खर्च करनी पडेगी. अपने इलाके में बड़े-बड़े बांध बनाने होंगे. इतना ही नहीं अंतरराष्टीय स्तर पर इसकी आलोचना नैतिकता के आधार पर जरूर होगी. और फिर हमारी जल संधियां सिर्फ पाकिस्तान से ही थोड़े हैं. बाकी दूसरे देशों को बहाने मिल जाने का अंदेशा अलग है. कुल मिलाकर यह तरीका भी युद्ध जैसा ही पेचीदा हैं. हां सिर्फ कहने को कुछ करना है तो बात अलग है.
 
अपनी अच्छी खासी हैसियत लुकी छिपी बात नहीं है
अपनी सेना का आकार, हमारे पास युद्ध की स्थिति में बचाव के लिए कवच के तौर पर साजोसामान की मात्रा और शांतिकाल में भी सरहद पर निरंतर अभ्यास से पता चलता है कि युद्ध के मौजूदा अंदेशों के बीच हम किसी भी मामले में उन्नीस नहीं हैं. इस समय भी हमारी हैसियत सामने वाले से दुगनी बैठती है. देश के लिए सैनिकों और जनता में मर मिटने का जज्बा कहीं से कम नजर नहीं आता. यह बात लुकी छुपी नहीं है.

आजकल मीडिया में अपनी हैसियत का अंदाजा बताने के लिए सुबह शाम आंकड़े बताए जा रहे हैं. लेकिन आंकड़ों की आड़ में खुद को युद्ध में डालने की पहल करने के सुझाव दिए जाने लगें तो जरूर सोचना पड़ेगा. इतना ही नहीं हमने आजादी से लेकर आज तक जितने भी युद्ध लड़े हैं और जीते हैं, हर बार यह सिद्ध किया है कि पहल हमने कभी नहीं की. हर बार हमने शान से और मजबूती से अपना बचाव किया है. इस मामले में हमारा लोहा सारी दुनिया मानती है. अब अगर यह संदेश चला गया कि हम युद्ध की पहल करने वाले बन रहे हैं तो बहसबाजी में कहीं कमजोर न पड़ जाएं.

सोचने की एक और बात
वह ये कि आतंकवाद और युद्ध के बीच के फर्क को कैसे देखें. खूब सोच-विचार करेंगे तो हो सकता है कि दोनों एक से दिखने लगें. लेकिन अभी यह पक्का नहीं है. फिर भी अगर ऐसा कुछ निकल आए तब तो कहीं भी कायराना आतंकी हमले के जरिये युद्ध भड़काना बड़ा आसान हो जाया करेगा. यानी बात यह निकल कर आती है कि हमें आतंकवाद के खात्मे के बारे में सोचने की ज्यादा जरूरत है. हैरत की बात यह है कि आतंकवाद पर सिलसिलेवार तरीके से यानी वैज्ञानिक ढंग से शोध की कोई कोशिश हुई हो इसकी जानकारी नहीं मिलती. इस बारे में कुछ महीने पहले लिखे इस आलेख को फिर से पढ़ा जा सकता है.
 
जरूरत आतंकवाद की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने की है
उरी की वारदात इस बात को करने का सबसे बड़ा आधार है. पिछले हफ्ते जानकारों के बीच जितने भी बहस मुबाहिसे हुए हैं, उनसे यही नतीजा निकला है कि उरी की वारदात ने हमारी प्रतिरक्षा की कमजोरी को साबित किया है. इस पर और भी सोच विचार करने के बाद तय किया जा सकता है कि हम अपने रक्षा कवच को मजबूत बनाने पर लग जाएं. अपनी प्रतिरक्षा को मजबूत बनाने में लगेंगे तो यह संदेश भी अपने आप ही  पहुंचता रहेगा कि किसी भी थोपे गए युद्ध से निपटने के लिए हम तैयार हैं. यह उपाय ठोस काम की श्रेणी में जरूर आता है, लेकिन लोगों में भड़काए गए युद्धोन्माद को संतुष्ट करने के लिए उतना कारगर नहीं है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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