मानवाधिकार बनाम मानव की आवश्यकताएं

मानवाधिकार बनाम मानव की आवश्यकताएं

प्रतीकात्‍मक फोटो

आज के दिन दिन सारी दुनिया में मानव प्रजाति के अधिकारों को याद करने की रस्म निभाई जाती है. ये बात अलग है कि आज तक निर्विवाद रूप से इन अधिकारों की पूरी सूची नहीं बन पाई. खासतौर पर अलग-अलग राजनीतिक प्रणालियों में भेद के कारण मानवाधिकारों की सूची पर विवाद होता रहता है. हां, मानव की आवश्यकताओं की निर्विवाद सूची आधुनिक ज्ञान विज्ञान ने जरूर बना ली है. क्यों न इसी सूची के आधार पर मानव अधिकारों की मौजूदा हालत का आकलन कर लें. आइए विश्वप्रसिद्ध मनोविज्ञानी मैस्लो की सुझाई सूची के आधार पर मानव अधिकारों की थोड़ी सी समीक्षा करके देखें.

मानव की आवश्यकताओं की सूची
मैस्लो ने मानव की पांच जरूरतों की लिस्ट प्राथमिकता के  क्रम में लगाकर दी थी. ये हैं, पहली शारीरिक, दूसरी सुरक्षा, तीसरी प्रेम, चौथी स्वाभिमान और पांचवी सैल्फ एक्चुएलॉइज़ेशन यानी यह कि शुरू के चारों सुख जिसने समाज से पा लिए हैं और जमा किए हैं उसे वह समाज को वापस करने का भी सुख पाना चाहता है. यह पांचवा सुख संतोष की प्रजाति का है.

मानव की शारीरिक ज़रूरत
इसके तहत भूख, प्यास और यौनिक आवश्यकताएं आती हैं. भूख के लिए भोजन में उसे गेहूं, चावल, दालें और घी तेल चाहिए. विश्व की नवीनतम स्थिति यह है कि आबादी के लिहाज से जरूरी अनाज उत्पादन सुनिश्चित नहीं हो पाया है. यानी सभी को भोजन का अधिकार सुनिश्चित नहीं है. कुपोषण की समस्या इसीलिए चर्चा में है. वो तो भला हो अपने देश के नीतिकारों का कि सही समय पर खाद्य सुरक्षा का कानून बना लिया. आज के दिन इस कानून को याद रखने की जरूरत है.
पानी के अधिकार के लिए विश्व के लिए तमाम देश लड़ने मरने पर उतारू हैं. हमारे देश के भीतर ही प्रदेश और प्रदेश के भीतर शहर और गांव व खेती और उद्योग के बीच पानी के अधिकार के लिए युद्ध जैसी हालत है. पीने, सिंचाई और नहाने-धोने के लिए प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 2000 घनमीटर पानी की जरूरत पड़ती है. अपने देश में इस समय मुश्किल से आधे पानी का प्रबंध है. अपने देश में मानव को न्यूनतम पानी का अधिकार पाना इस समय सबसे बड़ी चुनौती है. भोजन पानी के अधिकार की ही जब यह हालत है तो अन्य मनोदैहिक आवश्यकताओं या अधिकारों की अभी ज्यादा बात क्या करना.

सुरक्षा का अधिकार
इसके कई पहलू हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक देश दूसरे देश से अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां दिन पर दिन कृषकाय होती जा रही हैं. सिर्फ अपने देश को देखें तो जहां मानवोचित भोजन, पानी, कपड़ा और मकान को सुनिश्चित करने में सरकारें हांफने लगी हों वहां सुरक्षा जैसी द्वितीयक आवश्यकता या अधिकार बहुत दूर की बात है. वैसे भी सुरक्षा का अधिकार सुनिश्चित करना भोजन और पानी के खर्चे से भी ज्यादा महंगा है. कानून को पालन कराने वाली एजेंसियां जहां जन असंतोष से अपनी सरकार को बचाते-बचाते ही दम तोड़ रही हों वहां सामान्य सुरक्षा के मानव अधिकार की बात करना एक 'यूटोपियापंथी' ही कही जाएगी.

प्रेम का अधिकार
मैस्लों का प्रेम विस्तारित है। वह वात्सल्य और स्‍त्री-पुरुष वाले प्रेम तक सीमित नहीं है. मैस्लो के बाद के विद्वानों ने इस पर तरह तरह से विमर्श किया. आखिर में यह सामाजिक सद्भाव, खासतौर पर दूसरे समुदाय या जाति से प्रेम करने और दूसरों का प्रेम पाने की जरूरत तक विस्तारित होता है. मानव की मानव के प्रति प्रेम की यह आवश्यकता उसे मनोरोगों से भी बचाती है. विस्तार रूप में देखें तो सामाजिक और सांप्रदायिक सद्भाव की बातें प्रेम के पाठ में ही आती हैं. अब ये अलग बात है कि आर्थिक और सामाजिक भेदभाव को बढ़ाना इस विश्व में राजनीतिक मुनाफे का काम समझा जाने लगा हो और राजनीतिक खुदगर्जी के काम आने लगा हो.

स्वाभिमान का अधिकार
मानव की यह अप्रतिम आवश्कता है. जीव जगत में मानव के अलावा यह और कहीं दिखाई नहीं देता. भले ही अपने पहली, दूसरी और तीसरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव अपना मन मसोसकर स्वाभिमान की आवश्यकता से समझौता कर लेता हो लेकिन शुद्ध मनोविज्ञान के विद्वान इस आवश्यकता की कई बारीकियां ढूंढ लाए हैं. स्वाभिमान को वे मानव विकास का पोषक मानते हैं. लेकिन स्वाभिमान की मानव सुलभ प्रवृत्ति का बेजा इस्तेमाल अपने राजनीतिक पोषण के लिए किया जाने लगे, यह जोखिम ज्यादा होता है. बस यहीं पर मानव के इस विलक्षण अधिकार के हनन की सूरत बनती है. जरा गौर से देखें तो सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में स्वाभिभान की मानवोचित आवश्यकता का शोषण खूब दिखाई देता है. अपनों के स्वाभिमान के अधिकार की रक्षा के नाम पर दूसरों के स्वाभिमान के अधिकार का हनन आज की सबसे बड़ी पहेली है. मसला जटिल है इसे बड़े विद्वान ही देख और समझा पाएंगे.

समाज को वापस देने का काम
मानव में सबसे आखिर की यानी पांचवीं आवश्यकता यही है. अब चूंकि बहुत ही थोड़े से मानव अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति लायक बन पाते हैं सो शायद इसीलिए मनोविज्ञानियों ने अभी इस पर ज्यादा शोध करने की जरूरत नहीं समझी होगी. लेकिन आज यानी  मानवाधिकार दिवस पर उन संपन्न समृद्ध लोगों की चर्चा की जा सकती है जो पांचवी आवश्यकता की पूर्ति में लगे हैं. पिछली यूपीए सरकार ने बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने का कानून बनाया था. हालांकि सभी प्रकार की अपनी जरूरतें पूरी होने के बाद सेठ लोग सामाजिक हित के काम सदियों से करते आ रहे हैं. अब यह काम उन्हें कानूनी तौर पर करने का मौका भी मिलने लगा है. यह काम करने के लिए उन्हें सरकार की तरफ से छूट भी मिलने लगी है. अपने देश में सीएसआर नाम के मद में इन सेठ लोगों को कोई एक लाख करोड़ से लेकर डेढ़ लाख करोड़ रुपए तक का खर्चा करना जरूरी हो गया है. अब वे चाहे मंदिरों के आसपास पेड़ लगावाएं, सरोवर बनवाएं  या भोजन के अधिकार से वंचित लोगों के लिए लंगर लगवाएं, धर्मशालाएं बनवाएं या ठंड में गरीबों को कंबल बंटवाएं, ये सब उनके ही ऊपर है. लेकिन अगर वे कुछ दान मानव अधिकारों की रक्षा के लिए जरूरी सोचविचार के आयोजनों पर भी करने लगें तो उन्हें वैसा ही सुख और संतोष मिल सकता है..

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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