यूपी में उतावले हुए जा रहे ओपिनियन पोल के 'व्यापारी'

यूपी में उतावले हुए जा रहे ओपिनियन पोल के 'व्यापारी'

प्रतीकात्मक फोटो

उप्र और पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए ओपिनियन पोल वाले लोग अपने-अपने 'बैंड बजाने' के लिए तैयार खड़े हैं। चुनाव सर्वेक्षण जबसे चुनाव प्रचार का सबसे कारगर हथियार बना है तबसे देश में ओपिनियन पोल के बाजार में दस से ज्यादा खिलाड़ी भरीपूरी दुकान लगाकर बैठ गए हैं। हालांकि बिहार चुनाव में उनकी पोल जरा ज्यादा ही खुल गई थी सो पांच राज्यों में हाल के चुनावों में उन्हें मजबूरन अतिशयोक्तिपूर्ण अनुमान से बचना पड़ा।

ये पांचों राज्य काफी कुछ प्रिडिक्टेबल यानी अनुमान योग्य माने जाते हैं सो उनमें खुल्लमखुल्ला प्रचार की ज्यादा गुंजाइश थी भी नहीं। और फिर ओपिनियन पोल का बाजार हमेशा से ऊंचे खेल का उपकरण रहा है। इस दर्जे का काम हमने दो साल पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में देखा था। अगला ऊंचा खेल 2019 के लोकसभा चुनाव में निर्धारित है। इसी को ध्यान में रखते हुए 2014 के लोकसभा चुनाव  के बाद ओपिनियन पोल बाजार में इतने बैंड आ गए कि किसी एक दल का एकतरफा 'प्रचार' करना उतना आसान नहीं रहा।

दिल्ली, बिहार में पोल खुलने से विश्वसनीयता घट गई थी
दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों ने ओपिनियन पोल वालों की पोल बुरी तरह से खुली थी। उनकी इतनी फजीहत हुई थी कि इस बार के पांच राज्यों के चुनाव के पहले कोई भी एजेंसी 'खुल्लमखुल्लापन' नहीं कर पाई। इन एजेंसियों को अपने आगे के कारोबार के लिए अपनी न्यूनतम विश्वसनीयता बनाए रखना जरूरी था। जरा गौर से देखा जाए तो ओपिनियन पोलों ने अपने-अपने बैंड बजाने में वाकई कोई कसर नहीं छोड़ी। और जब चुनाव प्रचार के दिनों का काम  निपट गया तो इन एजेंसियों ने एग्जिट पोल के जरिए आगे के लिए अपनी विश्वसनीयता बनाने का काम भी कर लिया।

मूड को भांपने के नाम पर जनता का नजरिया बदलने का खेल
ओपनियन पोल के मनोवैज्ञानिक पहलू पर इसी ब्‍लॉग में पहले लिखा जा चुका है। यह बात बिहार चुनाव के समय की है। लेकिन यह खेल काठ की हांडी की तरह है। इसीलिए ओपिनियन और एग्जिट पोल करने वाली कंपनियां नाम बदल-बदल कर चुनावी बाजार में आती हैं। या फिर रुक-रुक कर सक्रिय होती हैं। पिछले तीस साल से सक्रिय इस उद्योग के बारे में आज का बिल्कुल ताजा आकलन यह है कि अब राजनीतिक दल भी इनकी कारीगरी और कारगरी पर उतना यकीन नहीं करते। इनसे ज्यादा कारगर आजकल प्रशिक्षित चुनावी रणनीतिकार माने जा रहे हैं। ये अलग बात है कि आजकल के चुनावी रणनीतिकार भी अपने ग्राहकों यानी राजनीतिक दलों को एक-दो ओपिनियन पोल एजेंसियों को भी ठेके पर रख लेने का सुझाव देते हैं। उनका भी मानना है कि ओपिनियन पोल का इस्तेमाल चुनावी प्रचार का एक बड़ा औजार है।

यूपी के ओपिनियन पोल्स में जोर किस बात पर रहेगा?
अगर उप्र और पंजाब के चुनावों को सामने मानकर चलें तो संकेत यही हैं कि ओपिनियन पोल एजेंसियों को कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को हवा देने के काम पर लगाया जाएगा क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में गैर कांग्रेसी दलों को इसी नारे की जरूरत सबसे ज्यादा पड़ेगी। लेकिन दिक्कत यह है कि उप्र में यह नारा चलाने में किसी एक राजनीतिक दल को ग्राहक बनाना आसान नहीं है। उप्र में वास्तविक स्थिति कुछ भी हो लेकिन वहां मुकाबला चतुष्कोणीय बताना ही पड़ेगा। वैसे सपा और बसपा के बीच दोतरफा मुकाबला बताने से काम चल सकता है लेकिन ये दोनों ही दल क्षेत्रीय होने के कारण ओपिनियन पोल एजेंसी के भारी भरकम खर्चों के बजाय पारंपरिक प्रचार के तरीकों को ही बेहतर समझते हैं। यानी उप्र के चुनाव में भाजपा के हित में यही दिखता है कि वह अपना मुकाबला कांग्रेस से दिखाए। लेकिन इस रणनीति में भी एक बड़ा पेच यह है कि इससे कांग्रेस को महत्व मिलेगा। इसलिए भाजपा यह नहीं चाह सकती। हां, वह अगले लोकसभा चुनाव को अपने लिए निर्विघ्न बनाने के मकसद से जरूर चाहेगी कि कांग्रेस मुक्त भारत का नारा किसी न किसी रूप में चलाया जाता रहे।

यूपी में अभी से कूदे बगैर मानेंगी नहीं ये एजेंसियां
उप्र के चुनाव में दस महीने बाकी हैं। यानी कोई तुक नहीं बनता कि वहां चुनावी सर्वेक्षणों का काम अभी से शुरू हो सके। लेकिन देश में सत्ता के लिए जैसा मारकाट का माहौल है उसमें कोई भी अपनी तरफ से रत्तीभर भी कोरकसर बाकी नहीं छोड़ना चाहेगा। जबकि ओपनियन पोल का धंधा ऐसा है कि जो सबसे पहले प्रचार के काम पर लगता है वही माहौल बना ले जाता है । इसीलिए इस बार आसार इसी बात के हैं कि चुनाव के दो-तीन महीने रह जाने का इंतजार नहीं किया जाएगा। बहुत संभव है कि टीवी चैनलों पर 2017 के विधानसभा चुनाव में मतदातों के रुख बताने के बहाने ओपिनियन पोल एजेंसियों का चुनाव प्रचार अगले महीने ही शुरू हो जाए।

चुनाव से बहुत पहले प्रचार शुरू करने के नुकसान
ओपिनियन पोल का मुख्य  काम भले ही ज्यादा खर्चीला न हो लेकिन जनता के बीच उसका प्रसार करना बड़ा मंहगा है। ओपिनियन पोल जल्दी शुरू करने का मतलब है कि हर महीने उसे अपडेट करके बताना पड़ेगा। टीवी चैनलों और प्रिंट मीडिया को इतनी देर तक लगाए रखने का खर्चा हद से ज्यादा बैठ जाता है। इसीलिए वक्त से पहले चुनाव प्रचार पर लगने के काम को घाटे का सौदा माना जाता है। लेकिन देश में सरकार बनाने और बनाए रखने के दांव इतने बड़े-बड़े लगने लगे हैं कि इस नुकसान को भी कई राजनीतिक दल झेल लेंगे।

रोचक होंगे यूपी के विधानसभा चुनाव
अपने लोकतंत्र में चुनाव अब देश या प्रदेश के भविष्य को निर्धारित करने के लिहाज से तो लड़े नहीं जाते। ऐसा क्यों कर होने लगा है इसकी तफ्सील से चर्चा आगे कभी करेंगे। अभी हमारे सामने मुद्दा उप्र और पंजाब के चुनाव में प्रचार के रूप का है। इन दो प्रदेशों में चूंकि उप्र को केंद्रीय सत्ता का दरवाजा माना जाता है इसलिए ज्यादा जोर इस पर ही रहेगा। रोचक तत्व यह है कि उप्र के चुनाव उस प्रदेश के हित-अहित से ज्यादा देश की सत्ता को सामने रखकर होंगे। यानी उप्र में कांग्रेस और भाजपा की मौजूदा हालत कितनी भी खराब हो, फिर भी 2019 के कारण ये दोनों पार्टियां अपनी जीजान लगा देंगी।

भाजपा के पास कांग्रेस मुक्त भारत के अलावा कोई मु़द्दा बचा नहीं है। और कांग्रेस के पास उसके एक से बढ़कर एक राष्ट्रीय स्तर के दिग्गज नेताओं का हुजूम तैयार है। वे खुशी-खुशी विधायक का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो सकते हैं। कांग्रेस के पक्ष में जो एक और बड़ी बात दिख रही है, वह यह है कि पार्टी में शीर्ष नेतृत्व का दबदबा अभी भी कायम है। सो, अगर कांग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्रियों ओर पूर्व सांसदों को उप्र के चुनाव में उतर जाने को कह दिया गया तो उप्र में एक राज्यीय उत्सव को देखते ही देखते राष्ट्रीय महोत्सव में तब्दील होते देर नहीं लगेगी।

(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
 


Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com