कहीं मेरा यह ख़त आप के नाम तो नहीं?

कहीं मेरा यह ख़त आप के नाम तो नहीं?

मैं यह ख़त टीवी स्टूडियो के कुछ एंकरों को लिख रहा हूँ। इस ख़त के जरिये में कुछ सवाल पूछना चाहता हूं जिन सवालों ने मुझे परेशान करके रखा है। मेरा इस ख़त में कई खामियां होगीं क्योंकि मैं आप लोगों की तरह बड़ा पत्रकार नहीं हूँ। जब आप लोगों को टाई, कोर्ट पहने के, मेकअप करके टीवी स्टूडियो में अच्छी इंग्लिश या हिंदी बोलते हुए देखता हूँ तो फिदा हो जाता हूं। कुछ समय के लिए मैं भी सोचता हूं कि काश मैं आप लोगों की तरह कोट-टाई पहने कर, स्टूडियो में बैठकर एंकरिंग करता। लेकिन थोड़ी देर के बाद आप की बहस के स्तर को देखने के बाद मैं फिर अपनी दुनिया में लौट आता हूं, खुश होता हूं, जहां हूं सही जगह पर हूं। सोचता हूं क्या किया जाए? फिर टीवी के स्क्रीन पर कुछ अच्छे एंकर मिल जाते है जो मीडिया की मान को अपने मुट्ठी में कसकर पकड़े हुए हैं फिर मेरा आत्मविश्वास बढ़ जाता है।

कई बार मेरे मन में यह भी सवाल उठा है की एंकरिंग से पहले मेकअप क्यों किया जाता है। अच्छा दिखने के लिए या अपना असली पहचान को छुपाने के लिए लेकिन अब धीरे-धीरे मुझे इसका जबाब मिल रहा है। मैं यह समझ रहा हूँ इस मेकअप के जरिए आप पत्रकारिता का जो असली मकसद है उसको छुपाना चाहते है, एक पत्रकार के रूप में अपनी असलियत को छुपाते हुए आप किसी के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं। यह जानते हुए की आप जो कह रहे है या कर रहे हैं उस पर सवाल उठाये जा सकता है फिर भी आप वहीं करते है।

मुझे बुरा लगता है जब मैं पत्रकारिता को कठघरे में खड़े होते हुए देखता हूं। लोगों को मीडिया के ऊपर सवाल उठाते हुए देखता हूं। टीवी पर हमने सैंडविच पत्रकारिता का दौर देखा है, भूत और प्रेतों की पत्रकारिता देखी है, परियों की कहानी भी सुनी है, राधे मां और आसाराम को टीवी स्क्रीन पर छाप छोड़ते हुए देखा है। मैं जानता हूं यह सब टीआरपी के लिए किया जाता है लेकिन क्या पत्रकारिता का मतलब सिर्फ टीआरपी है?

जेएनयू के मामले को मीडिया ने जिस तरह हैंडल किया उस पर सवाल उठाया जा रहा है। कोर्ट के फैसले से पहले आप जजमेंट सुना देते हैं, किसी को गुनहेगार बना देते हैं। वीडियो दिखाने से पहले उसकी जांच नहीं करते। सही या गलत न जानते हुए आप ने कई लोगों को कठघरे में खड़ा कर दिया हैं। चाहे वह कन्हैया हो या एबीवीपी की कोई छात्र, आप नहीं जानते इसका कितना बड़ा असर हुआ है। लोग मीडिया के ऊपर ज्यादा से ज्यादा सवाल उठाने लगे हैं।

रोज देखता हूं टीवी के स्टूडियो में आप लोग जज बन जाते है, खुद जजमेंट लिखते है। कुछ गेस्ट को बैठाकर एक दूसरे से लड़ाई करवाते है। जब तक यह गेस्ट एक दूसरे से नहीं लड़ पड़ते हैं तब तक आप चैन से नहीं बैठते है। जब गेस्ट लड़ना शुरू कर देते  हैं तो आप के चेहरे पर प्रसन्नता की झलक दिखाई देती है।

क्या हमारी पत्रकारिता टीवी की स्टूडियो तक सीमित रह गई है। कुछ गेस्ट के भरोसे हम अपने पत्रकारिता को बचाए रखें है। क्या हमको देश की समस्या के बारे में नहीं सोचना चाहिए, किसानों के बारे में नहीं सोचना चाहिए जो रोज़ आत्महत्या करते हैं। क्या आप को नहीं लगता हमारी पत्रकारिता शहर तक सीमित रह गई है, गांव की समस्या से दूर हैं हम। क्या एंकर को भी टीवी के स्टूडियो छोड़कर फील्ड में नहीं जाना चाहिए, लोगों की समस्या के बारे में बात नहीं करना चाहिए। ऐसा लगने लगा है की पत्रकारिता बंट गई है, पत्रकार अपना एजेंडा चला रहे हैं,  कुछ लोग सरकार की सिर्फ तारिफ करते रहते हैं तो कुछ सिर्फ खिंचाई। बहुत कम पत्रकार रह गए है जो स्थिति को समझकर बात करते है, संतुलित मत देते हैं।

मैं नहीं जानता आप यह सब जानबूझकर करते हैं या अनजाने में। लगता नहीं की आप अनजाने में करते होंगे क्यों की आप लोग तो बहुत बड़े एंकर है लेकिन मैं यह पूछना चाहता हूं कि अपने शो ख़त्म करने के बाद जब आप घर जाते है, क्या घर में लोग आपकी तारीफ करते हैं या फिर खिंचाई? क्या आपके बच्चे आप की तारीफ करते है? क्या वह कहते हैं कि आप ने बहुत अच्छा काम किया? टीवी स्टूडियो से पहले अपने घर में अपनी पहचान बनाइए।

मेरा यह ख़त उन एंकरों के लिए है जो समझ रहे हैं की यह उन्हीं के लिए ही है। जो समझ रहे है यह उन के लिए नहीं है तो वह समझदार है और मीडिया की मान को समझते है मीडिया की गरिमा को बचा कर रखे हैं। जानता हूं इस खत को पढ़ने के बात आप मुझ पर नाराज़ होंगे अब तक तो कई गालियां भी दे चुके होंगे, कह रहे होंगे यह कौन है जो हमको पत्रकारिता सीखा रहा है लेकिन सच यह है की मैं पत्रकारिता से प्यार करता हूँ और पत्रकारिता का भविष्य आप लोगों की हाथ में है। यह चाहता हूं एक युवा आप को देखकर गर्व महसूस करे, आप की पत्रकारिता का हवाले देते हुए पत्रकारिता में कदम रखे।

सुशील कुमार महापात्रा एनडीटीवी इंडिया में गेस्ट डेस्क के हेड हैं

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