भारतीय टीम की जीत और क्रिकेट का संगीत

यह करिश्मा कैसे हुआ? बेशक, यह जज़्बे, जुनून और हौसले की जीत है. लेकिन किस भारतीय टीम में यह सब नहीं रहा करता है? जो भी देश के लिए खेलता है वह ऐसे ही जज़्बे से भरा होता है- यह अलग बात है कि हर वक़्त इस हौसले या जज़्बे को वह हवा और ज़मीन नहीं मिलती जिसमें वह जीत की तरह खिले. लेकिन इस बार क्यों मिली? क्या इस सवाल का कोई आसान जवाब है?

भारतीय टीम की जीत और क्रिकेट का संगीत

बेशक, यह जज़्बे, जुनून और हौसले की जीत है

टी-20 और वनडे वाले आधुनिक क्रिकेट के मौजूदा दौर में टेस्ट मैच शास्त्रीय संगीत जैसा लगता है- एक लय में हो रही गेंदबाज़ी, मुरकियों की तरह बल्लेबाज़ी और धीरे-धीरे गेंद और बल्ले के संगीत का बनता हुआ खुमार. यह संगीत जब अपने उरूज पर होता है तो कैसा जादू करता है, यह भारत और ऑस्ट्रेलिया की मौजूदा टेस्ट सीरीज़ ने बताया. भारत ने 2-1 के अंतर से यह सीरीज़ जीतकर इतिहास बनाया, यह कह देने से उस हौसले, हुनर और जज़्बे का पता नहीं चलता, जिसके साथ भारतीय टीम ने पहले टेस्ट की अजब सी हार के बाद अगले तीन टेस्टों में दो जीते और एक ड्रॉ कराया. सिडनी टेस्ट जब ड्रॉ हुआ तो इसे भारतीय हौसले की जीत माना गया, लेकिन ब्रिसबेन तो वाकई किसी करिश्मे से कम नहीं था. आधी भारतीय टीम चोटिल थी और टेस्ट शुरू होने से पहले 11 खिलाड़ी जुटाने मुश्किल थे. ख़ासकर गेंदबाज़ी के मोर्चे पर टीम बिल्कुल अनुभवहीन थी. पांच गेंदबाज़ों ने कुल मिलाकर पांच टेस्ट नहीं खेले थे. लेकिन इन्हीं गेंदबाज़ों ने स्मिथ, वॉर्नर और लाबुशेन जैसे धुरंधर खिलाड़ियों से सजी ऑस्ट्रेलियाई टीम के 20 विकेट निकाल लिए. फिर जिस ब्रिसबेन में आज तक कोई टीम चौथी पारी में ढाई सौ रन बनाकर नहीं जीत पाई, वहां भारतीय टीम के बल्लेबाज़ों ने 328 रनों का लक्ष्य हासिल कर लिया.

यह करिश्मा कैसे हुआ? बेशक, यह जज़्बे, जुनून और हौसले की जीत है. लेकिन किस भारतीय टीम में यह सब नहीं रहा करता है? जो भी देश के लिए खेलता है वह ऐसे ही जज़्बे से भरा होता है- यह अलग बात है कि हर वक़्त इस हौसले या जज़्बे को वह हवा और ज़मीन नहीं मिलती जिसमें वह जीत की तरह खिले. लेकिन इस बार क्यों मिली? क्या इस सवाल का कोई आसान जवाब है?

यह जवाब खोजने के लिए कुछ पीछे चलते हैं. अभी-अभी गुज़रे दिसंबर महीने में ही ऑस्ट्रेलिया के पूर्व क्रिकेट कप्तान ग्रेग चैपल ने विराट कोहली को ऑस्ट्रेलियाई मिज़ाज का खिलाड़ी बताया था. चैपल ने लिखा था कि कोहली सबसे बड़े गैरऑस्ट्रेलियाई ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी हैं. शायद चैपल का इशारा उस आक्रामकता और जीतने की भूख की ओर था जो अमूमन ऑस्ट्रेलियाई टीमों में दिखती रही है और अब कोहली जैसे भारतीय खिलाड़ियों में भी है. लेकिन विराट कोहली ने इसका जवाब यह कह कर दिया कि वे नए भारत की नुमाइंदगी करते हैं- न्यू इंडिया का चेहरा हैं.

एक हद तक यह बात सही मालूम पड़ती है. लेकिन इसी नए भारत को हमने इसी सीरीज़ में बिखरते भी देखा. एडिलेड के पहले टेस्ट की पहली पारी में बढ़त लेने के बावजूद दूसरी पारी में भारतीय टीम बस 36 पर ऑल आउट हो गई. क्रिकेट के इतिहास में भारतीय टीम इतने कम स्कोर पर कभी आउट नहीं हुई थी. बेशक, इसके बाद टीम इंडिया ने जिस तरह वापसी की, वह भी लाजवाब है. अगला टेस्ट जीता, उसके बाद का टेस्ट ड्रॉ कराया और आख़िरी टेस्ट ऑस्ट्रेलिया के पंजों से निकाल कर पूरी सीरीज़ पर क़ब्ज़ा कर लिया.

उत्साही नए क्रिकेट प्रेमी यही कहेंगे कि यह नई टीम इंडिया की पहचान है. वह दबाव में नहीं बिखरती. यह सच है कि भारतीय क्रिकेट टीम पर दबाव में बिखरने की तोहमत पुरानी है. लेकिन क्या यह पूरी सच्चाई है? संघर्ष करना और लड़ना क्या बिल्कुल नई फितरत है? क्या हम वे मुक़ाबले भूल सकते हैं जब बिल्कुल फिसड्डी मानी जाने वाली भारतीय टीमों ने प्रतिद्वंद्वियों को नाकों-चने चबवाने का काम किया? जीतना हमेशा महत्वपूर्ण होता है, लेकिन कई बार खेलना भी जीत से बड़ा हो जाता है. 1952 में लेन हॉटन और डेनिस कॉम्प्टन जैसे बल्लेबाज़ों और ट्रुमैन, जिम लेकर और बेडसर जैसे गेंदबाज़ों से सजी इंग्लैंड टीम के ख़िलाफ़ लॉर्ड्स टेस्ट में भारतीय ऑल राउंडर वीनू मांकड ने जैसा प्रदर्शन किया था, उसके बाद इंग्लैंड की जीत के बावजूद उस टेस्ट को मांकड टेस्ट का नाम दे दिया गया. उस टेस्ट में मांकड ने 72 और 184 रन बनाने के अलावा 5 विकेट भी लिए थे और मैच के पांचों दिन मैदान पर कुछ न कुछ करते रहे थे.
सत्तर के दशक में वेस्ट इंडीज़ जैसी टीम के ख़िलाफ़ भारत ने 402 रन का लक्ष्य हासिल कर विश्व रिकॉर्ड बनाया था. उसी दशक में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ भारतीय टीम 429 रनों के लक्ष्य का पीछा करते हुए बेहद क़रीब पहुंच गई थी.

दरअसल उन दशकों में भारतीय खिलाड़ियों की कई ऐसी गरिमामय पारियां याद आती हैं जिनमें खिलाड़ी बिल्कुल चट्टान की तरह खड़े होकर विपक्षी टीमों का मुक़ाबला करते रहे. यह यों ही नहीं है कि चौथी पारी में गावस्कर 58 पार के औसत से सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले भारतीय बल्लेबाज़ हैं और दुनिया में उनके औसत से आगे सिर्फ़ डॉन ब्रैडमैन हैं- ज्यॉफ़ बायकॉट भी उनसे बिल्कुल दशमलव में कुछ ऊपर हैं.

कहा जा सकता है कि लेकिन वे विजेता टीमें नहीं रहीं. और वे संभलने से ज़्यादा बिखरती रहीं. लेकिन इसकी वजह हौसले, जुनून या समर्पण नहीं की कमी नहीं थी. तब भारतीय क्रिकेट के भीतर वह बुनियादी ढांचा ही नहीं था जो इतनी बड़ी तादाद में इतने अच्छे खिलाड़ी तैयार करता कि हम दुनिया की बड़ी टीमों- यानी वेस्टइंडीज़, ऑस्ट्रेलिया या इंग्लैंड- की बराबरी करते. अस्सी और नब्बे के दशकों के बाद जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पास पैसा आया और घरेलू क्रिकेट में बहुत बड़ी तादाद में युवा क्रिकेटर आए, उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था हुई, नए-नए कोच आए, तब भारतीय क्रिकेट में एक से एक सितारे उभरे. कहना मुश्किल है कि अगर वाशिंगटन सुंदर या नटराजन या सिराज जैसे गेंदबाज़ 20 साल पहले हुए होते तो उन्हें खोज कर राष्ट्रीय परिदृश्य में कोई लाने वाला होता भी या नहीं. कहना मुश्किल है कि न जाने कितने तेंदुलकर या विराट कोहली अपने-अपने शहरों में खेलते हुए किन्हीं थके हुए उदास नौजवानों की तरह किन्हीं दूसरे धंधों में लग गए. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में क्रिकेट के इस फैलाव ने धोनी जैसे सितारे दिए जो रांची जैसे सुदूर शहर से आकर भारतीय क्रिकेट की कमान संभाल सकते थे.

भारतीय क्रिकेट की आज की कामयाबी इसी पेशेवर ढांचे की देन है. इसी पेशेवर ढांचे की वजह से हमारे पास कई प्रतिभााशाली खिलाड़ियों की एक पूरी कतार है. लेकिन इसमें एक ख़तरा भी निहित है. इस पेशेवर ढांचे के समानांतर क्रिकेट का जो एक व्यावसायिक रूप उभरा है, उसने क्रिकेट के मूल रस को जैसे सोख लिया है. क्रिकेट तमाशे में बदल चुका है- एक ऐसे टीवी शो में- जिसमें खिलाड़ी बिल्कुल हाराकिरी करने वाले अंदाज़ में बल्लेबाज़ी करते हैं. गेंद लगातार इस खेल में छोटी होती जा रही है. क्रिकेट में मद्धिम लय का जो संगीत बचा है, वह ग़ायब हो चुका है.

भारत-ऑस्ट्रेलिया की मौजूदा टेस्ट सीरीज़ इस व्यावसायिक क्रिकेट के समानांतर एक बड़ी और उजली रेखा है जिसने याद दिलाया है कि क्रिकेट का लुत्फ़ सिर्फ चौके-छक्के लगाने के रोमांच में नहीं, सब्र के साथ टिकने, लगातार खेलते रहने, चोट खाकर भी टिके रहने के संयम में है- बल्लेबाज़ी की एक अलग तरह की कला में भी है. ऐसी सीरीज़ बहुत कम होती है. अगर चाहें तो इसकी तुलना 2001 में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच ही भारत में हुई उस शृंखला से कर सकते हैं जिसमें गांगुली की टीम ने स्टीव वॉ की बेहद मजबूत और अपराजेय लगती टीम को हराया था. तब भी भारत पहला टेस्ट बुरी तरह हारा था और दूसरे टेस्ट में पारी की हार के कगार पर था. लेकिन तभी अचानक वीवीएस लक्ष्मण और राहुल द्रविड़ में कोई नई जान पड़ गई. यह भारतीय क्रिकेट का जादुई लम्हा था. इसके बाद इस टीम ने जीत की कई कथाएं लिखीं- बेशक, हार की भी- लेकिन इसमें किसी को शक नहीं रहा कि भारतीय क्रिकेट टीम दुनिया की सबसे सशक्त टीमों में है.

इस सीरीज़ को भी इसी नज़रिए से देखना चाहिए. यह भारतीय टीम और भारतीय क्रिकेट की महानता का नया उदाहरण है. लेकिन इसे नकली राष्ट्रवादी जुनून से जोड़ेंगे तो न क्रिकेट का भला करेंगे और न इन खिलाड़ियों का. बस उन नेताओं का भला होगा जो क्रिकेट प्रेमी के चोले में क्रिकेट प्रशासक बन गए हैं और जिनकी मूर्तियां स्टेडियमों में लग रही हैं. इसलिए खेल का आनंद लें, जीत का जश्न मनाएं लेकिन क्रिकेट की अपनी गरिमा है- यह न भूलें. इस जीत को संगीत की तरह महसूस करें, शोर में न बदलें.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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