छलका शिक्षकों का दर्द -'बस यही बाकी रह गया था...'

छलका शिक्षकों का दर्द -'बस यही बाकी रह गया था...'

प्रतीकात्मक चित्र

कल फेसबुक पर एक मित्र ने पोस्ट शेयर की, शीर्षक था 'बस यही बाकी रह गया था।' नजर पोस्ट के साथ नत्थी तस्वीर पर गई। एक सरकारी आदेश था। चार प्राचार्यों को जूते-चप्पल की रखवाली की जिम्मेदारी दी गई थी। मामला मध्य प्रदेश से जुड़ा हुआ है, जहां भारी-भरकम सिंहस्थ के आयोजन में सरकार ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। हालांकि यह आदेश उज्जैन से संबंधित न होकर ओंकारेश्वर के लिए था। ओंकारेश्वर नर्मदा किनारे बसा हुआ तीर्थ है। बाहरी प्रदेशों से आने वाले भक्त उज्जैन के साथ ओंकारेश्वर के लिए भी जाते हैं, जिससे वहां बड़ी भीड़ हो जाया करती है।

सरकार का यह आदेश सोशल मीडिया पर मचे बवंडर के बाद वापस ले लिया गया, लेकिन इसके पीछे जो शिक्षकों का दर्द था 'बस यही बाकी रह गया था' सामने आ गया। अब सवाल यह है कि इस 'बाकी के पहले' शिक्षक के साथ और क्या-क्या हो रहा है? 'राग दरबारी' में लिखा गया है, 'शिक्षा व्यवस्था सड़क पर पड़ी कुतिया है, जिसे हर कोई लतिया रहा है।' लेकिन राग दरबारियों के देश में जब सरकार खुद शिक्षकों की ऐसी फजीहत पर उतारू हो जाए, तो भला गरियाने के और क्या किया जा सकता है?

शिक्षा अनिवार्य और सीधा मसला है, इसलिए स्वाभाविक रूप से यह विमर्श में मौजूद है। बेहतर शिक्षा पर व्यक्ति, परिवार से लेकर देश तक का भविष्य निर्भर है। ज्ञान अर्जित करने के ढांचे अलग-अलग समाजों, कालखंडों में गुरुकुल से लेकर घोटुल तक समाहित रहे हैं। आधुनिक भारत और पिछले कुछ साल के आर्थिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इन ढांचों के साथ जो व्यवहार किया गया है, वह एक तरह से इस प्रतिष्ठित पेशे की गरिमा को कमजोर करने वाला रहा है। वह केवल व्यक्ति के स्तर पर नहीं है, नीतियों के स्तर पर भी जो रेखाएं खीची गईं हैं, वो उन चुटकुलों और व्यंग्य चित्रों से ज्यादा गंभीर हैं, जो अब से दस या बीस साल पहले हम पत्रिकाओं में देखा या पढ़ा करते थे। अब वह केवल जनगणना या चुनाव में ड्यूटी लगा देने वाले, या कक्षा में बैठकर स्वेटर बुनने सरीखा नहीं रहा है। बड़ा सवाल यह है कि नीतियां ही जब उसे कमजोर कर रही हैं, तो दूसरा कौन उसकी प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना करेगा।

सबसे कमजोर कड़ी तो यही है कि नीतियों ने सरकारी शिक्षक को अलग-अलग कैडर में बांटकर रख दिया। अब शालाओं में चार पांच तरह के शिक्षक अध्यापन के कार्य से जुड़े हुए हैं। कहीं कोई अध्यापक है, शिक्षाकर्मी है, गुरुजी है, अतिथि शिक्षक है। जब काम अध्यापन है, तो प्रकार अलग-अलग क्यों? वेतन अलग-अलग क्यों? अब जबकि मूल शिक्षकों का कैडर तकरीबन समाप्त होने को ही है, तब धरनों, आंदोलनों और प्रदर्शनों के दबाव में पैरा शिक्षकों को ही मूल शिक्षकों के समान दर्जा आधिकारिक रूप से दिया जा रहा है। प्रश्न उठता है कि आखिर जब करना यही था, तो पहले से ही कर दिया गया होता। इससे कम से कम वे सब बेहतर युवा भी शिक्षकीय पेशे में आने की कोशिश करते, जो एक समय में केवल नाम मात्र की तनख्वाह होने के कारण दूसरे अन्य पेशों में चले गए।

केवल यही नहीं, एक जमाने में शिक्षकों का पेशा केवल पढ़ाई से संबंधित कार्यों के लिए होता था। इसमें आर्थिक पक्षों का महत्व केवल इतना भर था कि विद्यार्थियों से नाममात्र की फीस लेकर जमा कर दिया करना। यह काम भी कक्षा का कोई होशियार लड़का कर लिया करता था। मध्याह्न भोजन योजना, शालाओं में अधोसंरचना का निर्माण और अन्य प्रबंधकीय कार्यों में शिक्षकों की भूमिका को एक नए फ्रेम में फिट किया, और जैसा कि होना था आर्थिक प्रबंधन अपने साथ भ्रष्टाचार जैसे तत्वों को लेकर भी आता है। यही कारण है कि जो इससे बच न सका, उसने दुनिया के सबसे पवित्र पेशों में से एक को कलंकित किया। इसके सैकड़ों उदाहरण देश के हर जिले में दर्ज हैं।

कुछ दिन पहले पत्रकार से शिक्षक हुए अपने एक मित्र से लंबी बात हुई। जब वह इस व्यवस्था से गुजरे तो उन्होंने परिस्थितियों को खुद नजदीक से देखा। एक सरकारी शिक्षक को 18 तरह की जानकारियों को संकलित करना, उन्हें व्यवस्थित करना और फिर उनकी रिपोर्टिंग करना पड़ता है। उनका वक्त ज्यादा तो लिखा-पढ़ी में ही चला गया। सरकारी स्कूल में जब वह तीन साल पहले गए वहां 63 बच्चे थे। तीन साल बाद उनकी संख्या घटकर 28 रह गई। उनमें भी ज्यादा दलित बच्चे थे। जो बच्चे संपन्न परिवारों से थे, वह गांव के सरकारी स्कूल में भर्ती हो गए। कक्षा में जब किसी पाठ में रसगुल्ले का जिक्र आया तो सवाल पूछा कि किस-किस ने रसगुल्ला खाया। किसी का हाथ नहीं उठा। मित्र ने अगले दिन एक किलो रसगुल्ला कक्षा में बंटवाया।
 


पिछले दिनों यात्रा के दौरान एक स्कूल ऐसा भी मिला जहां 18 साल से कोई शिक्षक ही पदस्थ नहीं हो सका। केवल एक शिक्षाकर्मी स्कूल की गाड़ी हांक रहा है। बड़े शहरों के कई स्कूल ऐसे भी हैं, जहां पर एक स्कूल में 16-17 शिक्षकों की तैनाती भी है। दूसरी ओर गैर-सरकारी स्कूल हैं, जहां शिक्षकों को वेतन के नाम पर क्या दिया जाता है, यह किसी से छुपा नहीं है, लेकिन वे मॉडल हैं। इसमें किसका भला होगा और किसका नहीं होगा। लेकिन इतना जरूर है कि जब हम अमीरी-गरीबी को और बढ़ने की बात कहते हैं, तो लगता है कि केवल आर्थिक ही नहीं, ज्ञान प्राप्त करने, शिक्षित होने और नहीं होने की खाई भी और गहरी हो रही है।

हालांकि यह बिल्कुल मत समझिएगा कि हर व्यक्ति डिग्री लेकर सभ्य नागरिक बन ही जाता है। कोई भी अंक सूची या डिग्री सभ्य होने की गारंटी नहीं होती। हमारे यहां उसके इतर भी ज्ञान की परंपराएं रही हैं, लेकिन अफ़सोस कि किसी ऐसे विषय पर बवाल खड़ा नहीं किया जाता।

शिक्षा व्यवस्था की यह हालत जानबूझकर की गई है या अनजाने में। इस सवाल को खोजना होगा। लेकिन इस गाड़ी की मुख्य धुरी को ही जब इतना कमजोर बना दिया जाएगा तो लोग तो उसे लतियाएंगे ही और हां, शिक्षकों को खुद भी तो बहुत कुछ सोचना है।

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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