प्रियदर्शन की बात पते की : युद्ध की आसान भाषा

नई दिल्‍ली:

युद्ध की भाषा बोलना एक आसान काम होता है- नेताओं को ये कुछ ज़्यादा रास आता है। यह एक सरल देशभक्ति है जिसमें कुछ साबित नहीं करना पड़ता, कुछ दांव पर लगाना नहीं पड़ता।

म्यांमार की सीमाओं पर या उसके भीतर घुस कर सेना ने जो कार्रवाई की, उसके बाद आ रहे बयान इसी आसान देशभक्ति के सबूत हैं। देश लोगों से बनते हैं, उनकी खुशहाली से खुशहाल रहते हैं। ऐसे खुशहाल देश अनावश्यक तनाव नहीं पालते, गैरज़रूरी युद्धवादी मुद्रा नहीं अपनाते। लेकिन जो सरकारें ऐसा देश नहीं बना पातीं, वे युद्धवाद और राष्ट्रवाद में शरण लेती हैं। वे लोगों को उन नाइंसाफ़ियों की तरफ़ देखने को उकसाती हैं जो अदृश्य हैं, अमूर्त हैं। वे ठोस समस्याओं से लड़ने की जगह काल्पनिक दुश्मनों से लड़ती और उन्हें ख़त्म करती हैं।

म्यांमार में भारतीय सेना की कार्रवाई सही थी या गलत- इस पर हम बहस करने की हालत में नहीं हैं। तर्क यही बताता है और भावना भी यही दलील देती है कि हिंसा और अलगाव की राह पकड़ने वाले उग्रवादियों से नरमी बरतना अपने-आप को कमज़ोर करना है।

लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इस सैनिक कार्रवाई के बाद जो राजनीतिक बयानबाज़ी जारी है, वह एक नकली राजनीति, एक नकली राष्ट्रवाद का पोषण करती है जिसके केंद्र में जनता नहीं सत्ता है, राष्ट्र नहीं, राष्ट्र की मूरत है, जितना आत्मविश्वास है उससे ज़्यादा उकसावा है और दूसरों पर भरोसा करने के बड़प्पन की जगह उन पर हमला करने का उत्साह है।

कहने की ज़रूरत नहीं कि यह बयानबाज़ी सीमा पार पाकिस्तान को हमसे भी ज़्यादा रास आती है। इससे अचानक वहां की जनता का ध्यान अपनी समस्याओं की ओर कम, भारत की ओर ज़्यादा चला जाता है। यह अनायास नहीं है कि वहां पक्ष-विपक्ष एक होकर युद्ध की भाषा बोलने लग गया है। जो यह युद्ध की भाषा नहीं बोलेगा, वह देशद्रोही करार दिया जाएगा। जिस मुशर्रफ़ को पाकिस्तान में पनाह नहीं मिल रही थी, उन्हें नज़रबंद करने से लेकर जेल तक में डालने की कोशिश चल रही थी, वे भी भारत को ललकारने उतर पड़े हैं। अब अगले कई दिन इस बयानबाज़ी में निकलेंगे।

हो सकता है कि इस पार या उस पार से सीमा या नियंत्रण रेखा पर फिर झड़पों का सिलसिला शुरू हो- फिर कुछ घर जलेंगे, फिर कुछ लोग मारे जाएंगे और फिर नेता साबित करेंगे कि वे कितने बड़े देशभक्त हैं- कि उन्होंने देश की नाक कटने नहीं दी है। वे इस ऐतिहासिक सच को भी कबूल करने को तैयार नहीं हैं कि दुनिया भर में उग्र राष्ट्रवाद का किला दरक रहा है।

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कई सौ साल आपस में लड़ने वाला यूरोप आज एक है, और सबसे ज़्यादा राष्ट्रवाद दक्षिण एशिया के इस हिस्से में है जो दुनिया का सबसे पिछड़ा हिस्सा है- यहां कमज़ोर पिटते हैं, अल्पसंख्यक मारे जाते हैं, औरतें सताई जाती भ्रष्टाचार चरम पर है, और विकास के सूचकांक जैसे इन तमाम देशों को अंगूठा दिखाते हैं। लेकिन हम देशभक्त हैं, यह सीमा के पार हमारी बहादुरी बताती है।