यह ख़बर 01 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

हृदयेश जोशी की कलम से : क्या उठ पाएंगे घायल वामपंथी?

नई दिल्ली:

चोटखाई वामपंथी पार्टियां उठने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन उनकी रणनीति में कई रुकावटें दिख रही हैं।

सीपीएम ने तय किया है कि केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ और उसकी नाकामियों को दिखाने के लिए वह दिसंबर से देश भर में धरने प्रदर्शन और कार्यक्रम करेगी। इस कोशिश सीपीएम ने अपने सहयोगियों की संख्या बढ़ाई है। अब तक सीपीएम के साथ सीपीआई, फॉरवर्ड ब्लॉक और आरएसपी के साथ मिलकर चार पार्टियों का लेफ्ट फ्रंट रहा है। अब सीपीएम ने इस फ्रंट में सीपीएमएल और एसयूसीआई को भी शामिल किया है। यानी दिसंबर से शुरू होने वाले विरोध प्रदर्शन और धरनों के लिए लेफ्ट फ्रंट में 6 पार्टियां हो गई हैं।

हालांकि सीटों के लिहाज से सीपीएमएल और एसयूसीआई की ताकत न के बराबर है, लेकिन सड़कों पर आक्रामकता के मामले में ये पार्टियां प्रमुख वामपंथी दल कहे जाने वाले सीपीआई और सीपीएम से अधिक सक्रिय रहते हैं।

छह पार्टियों वाले इस लेफ्ट फ्रंट ने ब्लैक मनी के मामले पर सरकार को नाकाम बताया है। फ्रंट मनरेगा की नीति पर मोदी सरकार को घेरेगा। इसके अलावा लव जेहाद और शिक्षा क्षेत्र में आरएसएस के दखल पर भी लेफ्ट सवाल उठाएगा।
 
लेफ्ट फ्रंट के नेताओं को लगता है कि अभी वामपंथ की राजनीतिक ताकत इतनी कम है कि संसद में वाम मोर्चा कुछ अधिक नहीं कर सकता। उसे सड़क पर ही एकजुट होकर अपनी मौजूदगी दर्ज करनी होगी। लेकिन सच ये है कि लेफ्ट को बाहर की लड़ाई लड़ने से पहले अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर और वामपंथी मोर्चे में ही मंथन करना होगा और अंतर्विरोधों को भीतर ही हल करना होगा।

सीपीएम अभी खुद ही एक बड़े मंथन के दौर से गुजर रही है। हाल में हुई पार्टी की सेंट्रल कमेटी की बैठक से साफ हो गया पार्टी को अभी खुद ये नहीं पता कि किस रास्ते चलना है। केरल में सीपीएम की ताकत बहुत कम हो गई है। बंगाल में पार्टी हाशिए पर है। ममता बनर्जी के साथ बीजेपी का संघर्ष उसे और भी किनारे धकेल रहा है।

पार्टी महासचिव प्रकाश करात सीपीएम से आक्रामक तेवर अख्तियार करने को कह रहे हैं। करात चाहते हैं कि पार्टी शेत्रीय दलों के साथ गठजोड़ करने की बजाय अपनी ताकत को बढ़ाएं लेकिन पार्टी के दूसरे नेता सीताराम येचुरी ने करात के नेतृत्व के दौरान लिए गए फैसलों पर ही सवाल खड़े कर दिए।

अभी सीपीएम के भीतर मंथन इस बात को लेकर है कि इलाकाई पार्टियों के साथ क्या रुख अपनाया जाए। कांग्रेस के खिलाफ गुस्से का फायदा बीजेपी को मिल रहा है और बीजेपी हर राज्य में बड़ी कामयाबी हासिल कर रही है। ऐसे में वामदलों के लिए ये फैसला काफी कठिन है कि वह कांग्रेस से दूरी बनाने के साथ साथ इलाकाई पार्टियों से भी दूरी बनाएं।

वहीं महासचिव प्रकाश करात को लगता है कि क्षेत्रीय पार्टियों के साथ रहना या उनसे गठजोड़ करना कभी भी पार्टी के लिए मुफीद नहीं रहा।

गौरतलब है कि सीपीआई के डी राजा को राज्यसभा में ताज़ा कार्यकाल एडीएमके की मदद से ही मिला है लेकिन लोकसभा चुनावों में तमिलनाडु में जयललिता ने लेफ्ट को झटका दिया और एक भी सीट नहीं दी। नतीजा राज्य में सीपीएम-सीपीआई को तो कुछ नहीं मिला, लेकिन बीजेपी ने एक सीट ज़रूर निकाल ली। ऐसे में वामपंथियों के बीच राज्यों में दूसरी पार्टियों के साथ गठजोड़ को लेकर बहस चल पड़ी है।  

लेकिन बहस लेफ्ट फ्रंट में आए नए घटकों को लेकर भी है। बंगाल में बहुत थोड़ा प्रभाव रखने वाली लेकिन काफी कट्टर लेफ्ट सोच वाली एसयूसीआई से गठजोड़ से फ्रंट को क्या फायदा होगा साफ नहीं।

एसयूसीआई नंदीग्राम और सिंगूर में सीपीएम के रुख के खिलाफ ही नहीं थी, बल्कि टाटा के नैनो कारखाने और नंदीग्राम में कैमिकल हब बनाने के खिलाफ जब ममता बनर्जी ने बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार को घेरा तो एसयूसीआई ने टीएमसी का साथ दिया। 2009 के लोकसभा चुनाव में एसयूसीआई टीएमसी से मिलकर चुनाव भी लड़ी।

उधर सीपीएमएल के कार्यकर्ता भले ही विधानसभा या लोकसभा चुनावों में सीटों के मामले में जीत न पाए हो लेकिन बंगाल और केरल के बाहर ज़मीन पर संघर्ष करने के मामले में सीपीएम से आगे हैं।

सीपीएमएल अभी मोदी सरकार के खिलाफ आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर विरोध करने के लिए ही इस फ्रंट में आई है। चुनावी साझा करने के बारे में उसने कुछ सोचा नहीं है कि वह सीपीएम-सीपीआई का साथ देगी या अलग रहेगी।

सीपीएमएल की कविता कृष्णन ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, हमने सीपीएम के साथ किसी तरह के चुनावी मोर्चे के बारे में सोचा ही नहीं है। कई मामलों पर हमारी राय उनसे अलग है। हम अभी मोदी सरकार की साम्प्रदायिक और जन विरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रस्तावित विरोध प्रदर्शनों में उनका साथ देंगे।

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सीपीएमएल की रणनीति है कि इस वक्त ट्रेड यूनियनों और दूसरे समान सोच रखने वाले संगठनों के साथ तालमेल करने की ज़रूरत है जो बीजेपी और कांग्रेस दोनों की आर्थिक नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठा सके। कविता कृष्णन ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, हम कई छोटे वामदलों के साथ, निष्पश सोच रखने वाले मंचों, संगठनों और व्यक्तिगत लोगों को अपने साथ जोड़ेंगे ताकि एक प्रभावी विरोध दर्ज किया जा सके।