देश में दलित नेतृत्व की विडम्बना और दिशा

जिग्नेश मेवाणी को यह समझना होगा कि एक अधिनायकवादी व्यवस्था के विरुद्ध उठाए गए हथियार लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसके विरुद्ध उतने कारगर नहीं होते, मार्क्सवाद आज एक ऐसा ही हथियार है.

देश में दलित नेतृत्व की विडम्बना और दिशा

भूकम्प और ज्वालामुखियों ने कई सुन्दर और उपयोगी भू-आकृतियों को जन्म दिया है. लेकिन ऐसा होता बहुत कम है. देखा यह गया है कि आकृतियां बन तो जाती हैं, लेकिन बनी रह नहीं पातीं.

दरअसल, मुझे भूगोल की इस घटना की याद अचानक तब आ गई, जब मैं दलित युवा नेता जिग्नेश मेवाणी के अचानक उभरकर राष्ट्र के परदे पर छा जाने के बारे में विचार कर रहा था. मेवाणी किसी सुचिंतित विचार प्रक्रिया अथवा क्रमशः किसी सामाजिक आन्दोलन की उपज न होकर भीमा-कोरेगांव की एक तात्कालिक सामाजिक घटना की उपज हैं. इतिहास में ऐसा कईयों के साथ हुआ है. लेकिन ऐसी उपज की सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि वह कब तक अपनी इस ऊर्जा और स्वरूप को बचाए-बनाए रखकर अपने मकसद को अंजाम तक पहुंचा पाता है.

चैनलों पर जिग्नेश को सुनने-देखने तथा अखबारों में उनके भाषणों के अंशों को पढ़ने पर वे जोशीले, ऊर्जावान तथा साहसी लगे. इस उम्र में, और वह भी नेतृत्व के लिए ये स्वाभाविक गुण हैं. लेकिन साथ में बहुत स्पष्ट तौर पर यह भी आभास हो रहा था कि उनमें उस वैचारिक स्पष्टता, सामाजिक समझ एवं दूरदर्शिता का अभाव है, जो उन्हें रचनात्मकता तक पहुंचा सकेगा.

उनकी बातें तीन मुख्य स्तम्भों पर टिकी मालूम पड़ती हैं-मनुस्मृति का विरोध, संविधान का फ्रेम तथा मार्क्सवाद का दर्शनशास्त्र. इन तीनों में नया कुछ इसलिए नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद से उभरे लगभग सभी आंदोलनों ने अपने-अपने ढंग से इन्हीं उपायों को अपनाया है. जाहिर है कि अब तो ये उपाय और भी पुराने पड़कर अप्रभावी हो गए हैं. हां, शुरुआत करने के लिए ये थोड़े ठीक हो सकते हैं. लेकिन यदि इस शुरुआत को वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक संदर्भों में प्रौढ़ता प्राप्त नहीं हुई, तो इसका भी अंत अपने पूर्ववर्तियों की तरह होना निश्चित है. यह अवश्य होगा कि जिग्नेश सहित उनके कुछ अन्य सहयोगी (कन्हैया जैसे नौजवान) विधानसभाओं और संसद में अपनी सीटें सुरक्षित कर लेंगे, जैसा कि पैंथर पार्टी के साथ हुआ. या यदि जातिगत तत्व को छोड़ दिया जाए, तो आम आदमी पार्टी के साथ हुआ.

जिग्नेश मेवाणी को यह समझना होगा कि एक अधिनायकवादी व्यवस्था के विरुद्ध उठाए गए हथियार लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसके विरुद्ध उतने कारगर नहीं होते. मार्क्सवाद आज एक ऐसा ही हथियार है. और यदि उन्हें इसका इस्तेमाल करना भी है, तो फिलहाल ‘मनुस्मृति’ के ‘जातिगत विभाजन’ की बजाय ‘वर्ग चरित्र’ के सिद्धांत पर ध्यान दें. उनके सामने इसके कई जीवंत प्रमाण मौजूद हैं कि उनके अपने समुदाय के ही प्रतिनिधि राजसत्ता प्राप्त करते ही स्वयं तथाकथित उच्च वर्ग; जिसे कार्ल-मार्क्स ‘शोषक वर्ग’ कहते हैं, बन जाते हैं. और डॉ आम्बेडकर की पूजा करने के बावजूद उनकी व्यक्तिपूजा के विरुद्ध विचारों को दरकिनार करके मूर्तियों की स्थापनाएं करने में जुट जाते हैं. ‘‘आरक्षण के सिद्धान्त को जाति समूह के अंदर ही आर्थिक आधार से न जोड़ने देना’’ इसी वर्ग-चरित्र की रणनीति है. इसलिए बाह्य सामाजिक विरोध (मनुस्मृति) से कहीं अधिक जरूरी है, अपने समुदाय के अंदर की प्रतिक्रियावादी शक्तियों का विरोध करना. साथ ही समुदाय को सक्षम बनाने के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों तथा सरकार द्वारा प्रदत्त उन सुविधाओं का समुचित रूप में उपयोग कराया जाना, जो उनके जीवन पर तत्काल सकारात्मक प्रभाव डालने की क्षमता रखते हैं. यह काम भी किसी राजनीतिक आंदोलन का ही अंग होता है, क्योंकि इससे आंदोलन को शक्ति मिलती है. हां, यदि जिग्नेश के मन में आंदोलन की जगह क्रांति की बात हो, तब बात कुछ अलग हो जाएगी.


डॉ विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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