असम में नागरिकता का सवाल...

1985 में ऑल असम यूनियन और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच असम समझौता हुआ था. उसी में तय हुआ था कि असम में दोबारा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न बनेगा.

असम में नागरिकता का सवाल...

असम में 1951 में पहली बार नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बना था. यह दूसरी बार है जब नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न बनाने का काम अंतिम चरण के करीब पहुंचा है. करीब का मतलब यह हुआ कि अभी सिर्फ ड्राफ्ट जारी हुआ है, अंतिम सूची 31 दिसंबर 2018 को आएगी. 1985 में ऑल असम यूनियन और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच असम समझौता हुआ था. उसी में तय हुआ था कि असम में दोबारा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न बनेगा. लेकिन 1986 से लेकर 2014 तक कुछ नहीं हुआ. असम के एक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की जिस पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ प्रक्रिया तय की बल्कि यह भी तय कर दिया कि 31 दिसंबर 2018 तक इस काम को पूरा करना है. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में राज्य के 55000 कर्मचारी लगाए गए और हर ज़िले में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न सेवा केंद्र खोले गए. ड्राफ्ट है, अंतिम सूची नहीं है मगर अंतिम सूची में क्या कोई बाहर हो जाएगा इसे लेकर बेचैनी है, मगर हर स्तर पर आश्वासन है कि सबको मदद दी जाएगी. मौका दिया जाएगा.

ड्राफ्ट के अनुसार असम की 3.29 करोड़ आबादी में से 2.89 करोड़ लोग नागरिक हैं. बाकी के 40,07,707 लाख लोगों की नागरिकता संदिग्ध पाई गई है. इन सभी को एक और मौका मिलेगा अपनी दावेदारी रखने का. भारत के गृहमंत्री से लेकर असम के मुख्यमंत्री तक ने कहा है कि ड्राफ्ट एनआरसी के आधार पर किसी को डिटेंशन कैंप में नहीं भेजा जाएगा या उसकी नागरिकता खारिज नहीं की जाएगी. मगर टीवी पर बहस हो रही है कि क्या घुसपैठियों को निकाल नहीं देना चाहिए. दि सेंटिनल अखबार में छपा है कि बीजेपी के मारीगांव के विधायक रमाकांत देवरी का नाम सूची में नहीं है मगर रमाकांत जी ने हमसे फोन पर कहा कि उनका नाम है. AIUDF के विधायक हैं अनंत कुमार मालो, उन्होंने माना कि उनका नाम नहीं है.

करीमगंज के मोनोदीप देब ने हमें फोन पर बताया है कि उनके माता-पिता और घर के 15 लोगों के नाम रजिस्टर में हैं मगर उनका नाम नहीं है. दोस्त बप्पन पाल का भी नाम नहीं है जबकि उसके पिता मनोरंजन पाल का नाम है. हमारे सहयोगी रतनदीप सेंट्रल असम के नेल्ली गए जहां 1983 में नरसंहार हुआ था. यहां पर हिन्दू, मुस्लिम और जनजाति समाज के लोग एनआरसी की सूची से प्रभावित मिले हैं.

इस्माइल और हामिद का परिवार नेल्ली के दंगे में मार दिया गया था. इस्माइल को समझ नहीं आ रहा है कि पिछले साल जो 1 करोड़ 90 लाख का ड्राफ्ट तैयार हुआ था उसमें उसके परिवार का नाम था. मगर इस बार के ड्राफ्ट में पूरे परिवार का नाम नहीं है. हामिद अपना दस्तावेज़ दिखा रहे हैं कि फॉरेन ट्राइब्यूनल ने उन्हें 2010, 2012 और 2016 में भारतीय नागरिक माना है लेकिन एनआरसी में उनका नाम नहीं है. यही नहीं, यहां के लोगों ने बताया कि ड्राफ्ट में नेल्ली के 80 फीसदी मुसलमानों के नाम आ गए हैं मगर 60 परसेंट से भी कम हिन्दुओं के नाम आए हैं. इन गांवों में यही बात हो रही है कि तुम्हारा नाम है क्या, उसका है लेकिन उसका छूट गया है.

जिनके नाम नहीं हैं उनके लिए 7 अगस्त से फार्म उपलब्ध होगा, वे अपनी दावेदारी कर सकते हैं, आपत्तियां दर्ज करा सकते हैं. 28 सितंबर तक फार्म जमा करने हैं. एनआरसी सेवा केंद्र पर लोकल रजिस्ट्रार को पावर होगा, अगर उसने खारिज कर दिया तो उसे फॉरेनर्स ट्राइब्यूनल में अपील करनी होगी. अभी यह तय नहीं हुआ है कि जो अवैध पाए जाएंगे उनका क्या होगा. न सुप्रीम कोर्ट ने अभी कुछ कहा है न भारत सरकार ने. राजनीति अपनी तरफ से बहुत कुछ कह रही है क्योंकि यह हिन्दू मुस्लिम टॉपिक का बेजोड़ फार्मूला है. क्या सरकार ने कहा है कि वह घुसपैठियों को निकालेगी, क्या आपने ऐसा सुना है, क्या आप जानते हैं कि घुसपैठियों को निकालने की प्रक्रिया क्या है, क्या इन्हें भारत के कानून के अनुसार 2 से 8 साल तक कैद में रखा जाएगा या फिर इन्हें असम के छह डिटेंशन सेंटर में रखा जाएगा, अभी तक इस पर कुछ भी नहीं कहा गया है.

असम का मामला उलझा हुआ है. हिन्दू बंगाली और असमी बंगाली अपनी पहचान को लेकर अलग तरह से दावेदारी करते हैं. मुस्लिम बंगाली में एक कैटगरी है जो खुद को देसी मानता है, वो खुद को शरणार्थी पहचान से अलग पहचान चाहता है. असम में नागिरता जटिल रही है. पहले से भी इसे साबित करने के लिए अलग-अलग कैटगरी रही है और समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने जो 16 प्रकार के दस्तावेज़ों की सूची तय की है जिसके आधार पर दावेदारी की जा सकती है.

इस बहस को आप कुछ पुराने और कुछ नए संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों के बग़ैर नहीं समझ सकते हैं. इनकी भी एक लंबी यात्रा रही है. सेक्शन 6-ए उनमें से एक है. 7 दिसंबर 1985 को दि सिटिज़नशिप एक्ट में सेक्शन 6-ए जोड़ दिया गया ताकि असम में भारतीय मूल के सभी प्रवासियों को मान्यता दी जा सके. इसके तहत तय हुआ कि 1 जनवरी 1966 से पहले आने वाले भारतीय नागरिक माने जाएंगे. जिनके माता-पिता या परदादा अविभाजित भारत में पैदा होंगे वे भारतीय मूल के माने जाएंगे. 1 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1971 के बीच आने वाले लोगों की पहचान की जाएगी और उनका नाम मतदाता सूची से हटाया जाएगा. दस साल के भीतर इस काम को पूरा करना होगा.

सिटिज़नशिप अमेंडमेंट बिल 2016 के अनुसार अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए 6 समुदायों को नागरिकता दी जाएगी. ये समुदाय हैं बौद्ध, हिन्दू, सिख, जैन, पारसी और ईसाई. एक समुदाय को जानबूझ कर छोड़ दिया गया. इस बिल का असम गण परिषद, पूर्वोत्तर की कई सरकारें विरोध कर रही हैं. इंडियन एक्सप्रेस में इस पर लिखते हुए प्रताप भानु मेहता ने लिखा है कि क्या धर्म के आधार पर अवैध घुसपैठियों को नागरिकता दी जा सकती है? यह संविधान के आर्टिकल 14 का सीधा उल्लंघन है जो कानून के बराबर समानता का अधिकार देता है. आर्टिकल 15 धर्म, नस्ल, जाति के आधार पर भेदभाव से बचाने की गारंटी देता है. इस वक्त यह बिल संयुक्त संसदीय समिति के पास है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिन लोगों के नाम नहीं आए हैं उन्हें शामिल करने की प्रक्रिया तय की जाए और उसका मसौदा कोर्ट के सामने पेश किया जाएगा. किसी ने नहीं कहा है कि 40 लाख घुसपैठिये हैं. अगर ये घुसपैठिए होते तो क्या इन्हें दोबारा साबित करने का मौका मिलता है. मगर आप सभी टीवी चैनलों पर देखेंगे कि घुसपैठिया लिखा हुआ है और उसे लेकर बहस हो रही है. हिन्दू मुस्लिम टॉपिक से मीडिया और राजनीति को अब कोई नहीं बचा सकता. नौकरी की मांग करने वाले छात्र टीवी नहीं देखें. भारत का नागरिक कौन है, इसे तय कैसे करेंगे, तारीख के हिसाब से, धर्म के हिसाब से. वैसे एक तरीका और भी है जो भारत में नहीं है मगर भारतीयों के लिए है. हमारे मेहुल भाई चौकसी ने पैसे देकर एंटीगुआ से नागिरकता खरीद ली है.


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