सोशल मीडिया कॉम्पैटिबल मुद्दों को उठाने की जरूरत नहीं, उठे-उठाए आते हैं...

हम सभी सोशल लोगों के लिए ये एक चुनौती वाला दौर है. मुद्दों का स्वावलंबन, ख़ुद से उठने की प्रवृत्ति हवाई यात्राओं के लिए तो एक खतरनाक ट्रेंड है ही, एक ऐसी सामाजिक विकृति भी है जिससे हम सबको निपटना होगा. नहीं तो हम सभी के टाइमलाइन मरघट हो जाएंगे.

सोशल मीडिया कॉम्पैटिबल मुद्दों को उठाने की जरूरत नहीं, उठे-उठाए आते हैं...

बहुत समय से एक विड्रॉल सिम्प्टम महसूस हो रहा है. लग रहा है कि मन में कुछ बेचैनी है, अंगूठे कसमसा रहे हैं, ट्विटर टाइमलाइन तड़पड़ा रहा है, फेसबुक फड़फड़ा रहा है, बाकी सोशल मीडिया के तमाम प्लैटफ़ॉर्म पर भी इत्यादि टाइप की समस्याएं देखने को मिल रही थीं. लग रहा है एक खालीपन ने पूरे यूनिवर्स को घेर लिया है. इस मनोस्थिति को पकड़ने के लिए हेलो जिंदगी वाले शाहरुख खान काफी हैं, फ़्रॉयड की जरूरत नहीं पड़ेगी. समस्या सीधी और सिंपल है, हुआ दरअसल ये है कि मार्केट में मुद्दों की भारी कमी हो गई है, अब कोई ऐसा मुद्दा बच ही नहीं पा रहा है जिसे मैं उठा पाऊं. ऐसे में मेरा कॉन्फिडेंस बैठना लाज़िमी था. और जब से पता चला है कि  मुद्दों का म्यूटेशन हो गया है तब से एग़्ज़िस्टेंशियल क्राइसिस का दरवाजा खटखटा रहा हूं.

ताजा शोध बता रहा है कि अब जो नए मुद्दे आ रहे हैं वो परजीवी नहीं रहे, स्वावलंबी हो गए हैं. वो रेडीमेड उठे हुए आते हैं. अब उनके जींस और उनके डीएनए में कुछ ऐसी तब्दीलियां आई हैं कि मुद्दे उठे-उठाए आ रहे हैं, जन्म ही उठी हुई स्थिति में होता है. यह मुद्दों का सोशल मीडिया कॉम्पैटिबल वर्ज़न है, मुद्दों को उठने के लिए किसी मनुष्य के सोशल मीडिया एकाउंट, लाइक या रिट्वीट वर्ज़न की  ज़रूरत नहीं. अब मुद्दे खुदबखुद वायरल हो जाते हैं. कई बार बैक्टीरियल भी. खैर तो ऐसी ही कमी से जूझते हुए मैंने कोशिश की कुछ निम्न प्रकार के लुच्चे और टुच्चे मुद्दे ही उठा लूं, अंडर द रेडार, जो बहुत ज़्यादा नहीं उठ पाए थे. तो पता चला कि एडॉप्टेशन की उस रेस में भी मैं काफी पिछड़ चुका हूं. देश के जागरूक नेता-अभिनेता-प्रवक्ता-सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर उन मुद्दों को उठाने में पहले से मुब्तिला हैं. इन सबके बाद में मैं एक अत्यंत मुद्दाविहीन निरीह विचारक बना हुआ बारापुल्ला पर टहल रहा हूं, जो अपने आप में काफ़ी उठा हुआ है और वहां पर पता चला था कि ज़रूरत से ज़्यादा ऊपर उठे मुद्दों को उस ऊंचाई से पतंग की तरह लूटा जा सकता है. तो वहां पर मनोरम दृश्यों के बीच मुद्दों का मांझा पकड़ने में लगा हूं. पर सप्लाई कम है.  

बलात्कारी राम रहीम को जेल की सजा सुनाई दी गई. 30-40 लोगों के मारे जाने पर सरकार ने सफाई दे ही दी. बच्चे मर ही चुके हैं. ट्रेनें पलट ही चुकी हैं. बिहार में बाढ़ पर हवाई यात्रा भी हो ही गई. असम में बाढ़ की मीडिया कवरेज भी हो गई. ट्रिपल तलाक का मुद्दा भी सुलझ गया. चीन ने भी घुटने टेक ही दिए हैं. पाकिस्तान को भी डोनाल्ड ट्रंप ने रपेट ही दिया है. बवाना में नतीजों के बाद ईवीएम भी अब भरोसेमंद साबित कर ही दिया गया है. वेमुला का कास्ट पता चल ही चुका है. अब तो टॉयलेट भी एक प्रेम कथा हो चुकी है. अक्षय कुमार की नागरिकता का मुद्दा भी उठ चुका है. मुंबई ने भी चुभक-चुभक कर बाढ़ में चलना शुरू कर ही दिया है. नोटबंदी के नोट भी वापस आ चुके हैं. साथ में दो सौ का नोट भी आ चुका है. जीएसटी भी अभूतपूर्व सफलता को प्राप्त कर ही चुकी है. लालू की रैली में समर्थकों का रेला लग ही चुका है. बेलंदोर झील पर झाग भी आ ही गया है. पीवी सिंधु को चोकर कहने का मुद्दा भी उठ चुका था. मैं तो ये सोच रहा था कि धोनी के मैच के बीच फ़ील्ड के बीचोंबीच नींद लेने का मुद्दा बन सकता था पर भारत मैच ही जीत गया. फिर लगा कि सिंधू को चोकर कहने वाला हेडलाइन तो बहसीय मुद्दा है, पर ट्विटर पर उसे हाथोंहाथ लेकर उठाया जा चुका था.

पर लग रहा है कि जैसे डीयू का कटऑफ़ निन्यानबे दशमलव नौ नौ फ़ीसदी तक जा रहा है. वैसे ही मुद्दे अब इतने उठ जाएंगे कि हवाई यात्राएं असुरक्षित हो जाएंगी. हो सकता है कुछ मुद्दे सैटेलाइट से भी टच कर जाएं. हैं, बहुत से इंटरस्टेलर मुद्दे. खैर मुद्दों के इस सेनसेक्स में मेरा स्टॉक बिल्कुल डाउन है. सोशल मीडिया में सूनापन है. एक अजीब सी उपलक्ष्य हीनता महसूस हो रही है. अगर मुद्दे ही ना उठा पाऊं तो फिर सोशल मीडिया पर मेरा वजूद क्यों है, क्या है? ऐसे में कुछ अगर आग्रह करते भी हैं, कोई मु्द्दा उठाने के लिए, तो लगता है कि वो मुंह चिढ़ा रहे हैं या फिर मेरी टाइमलाइन देखकर दया कर रहे हैं.

हम सभी सोशल लोगों के लिए ये एक चुनौती वाला दौर है. मुद्दों का स्वावलंबन, ख़ुद से उठने की प्रवृत्ति हवाई यात्राओं के लिए तो एक खतरनाक ट्रेंड है ही, एक ऐसी सामाजिक विकृति भी है जिससे हम सबको निपटना होगा. नहीं तो हम सभी के टाइमलाइन मरघट हो जाएंगे. फिलहाल मैं गम गलत करने के लिए जंतर-मंतर जा रहा हूं. पोकेमॉन गो बता रहा है वहां पर कुछ मुद्दे मिल सकते हैं. सी यू गाय्ज़.


क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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