गिरते रुपये का कहीं कोई अंदरूनी कारण तो नहीं...?

रुपये(Indian rupee) की गिरती कीमत ने हमारे सामने व्यापार घाटे की समस्या को और बढ़ा दिया है.

गिरते रुपये का कहीं कोई अंदरूनी कारण तो नहीं...?

रुपये(Indian rupee) की गिरती कीमत ने हमारे सामने व्यापार घाटे की समस्या को और बढ़ा दिया है.

नई दिल्ली:

घूम-फिरकर देश की माली हालत की चिंता होने ही लगी. आर्थिक स्थिति की चर्चा न हो पाए, इसकी हर कोशिश नाकाम होती जा रही है. एक बार फिर सिद्ध हो रहा है कि सभी क्षेत्रों पर आर्थिक क्षेत्र का ही प्रभुत्व रहता है. इस समय धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैधानिक क्षेत्र का कोई भी मुद्दा हरचंद कोशिश के बावजूद पनपाया नहीं जा पा रहा. बहरहाल, महंगा होता कच्चा तेल, भारतीय मुद्रा (Indian rupee)  की गिरती कीमत, खेती-किसानी में बढ़ती लागत, भयावह बेरोज़गारी और महंगाई बढ़ने के अंदेशे ने चिंता को अभूतपूर्व तरीके से बढ़ा दिया है. सरकार का कोई भी तर्क हालात को संभाल नहीं पा रहा. इसका सबूत यह कि बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के शेयर बाज़ार दहशत के मारे बैठते ही चले जा रहे हैं. देश के सबसे ज़्यादा लोगों की जेब पर असर डालने वाली चीज़ें - यानी डीज़ल और पेट्रोल - के दाम अगर हर 24 घंटे में तेज़ रफ्तार से बढ़ाए जा रहे हों, तो कोई भी कह सकता है कि हालात गंभीर हैं.

ऐसा नहीं है कि ऐसे हालात से देश पहले कभी नहीं गुज़रा. पिछले दशक में भी महंगे कच्चे तेल और गिरते रुपये का संकट आया था. हालांकि आज जितना बड़ा संकट तब भी नहीं था. तब और अब के आर्थिक संकट का एक फर्क यह भी है कि उस समय मीडिया में उसे सातों दिन, चौबीसों घंटे बताया जा रहा था. आज अख़बार-TV पर वैसी मुस्तैदी नहीं है. दूसरा फर्क यह कि मुश्किल के उन दिनों वैश्विक मंदी के रूप में संकट का प्रत्यक्ष कारण था. आज मंदी जैसा संकट सामने नहीं है, और इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं कि वैश्विक मंदी की उस चुनौती से सिर्फ अपना देश ही निपट पाया था. सिर्फ अपना देश ही उस संकट से बच पाया था. यानी अपना वह इतिहास बताता है कि हम अपने हुनर से बड़ी से बड़ी समस्या से निपटने में सक्षम हैं.

आज के हालात अलग किस तरह...
इस समय हमारे पास वैश्विक मंदी के रूप में स्पष्ट कारण उपलब्ध नहीं है, लिहाज़ा वे उपाय नहीं किए जा सकते, जो UPA सरकार के समय मंदी से उपजे संकट से निपटने के लिए किए गए थे. यानी आज की सरकार और सरकारी अर्थशास्त्रियों को नए उपाय खोजकर लाने होंगे. समाधान के लिए नए उपाय खोजने से पहले यह खोजना पड़ेगा कि हमारे रुपये की कीमत गिरते जाने के वास्तविक कारण क्या हैं...?

बाकी मुद्राओं से तुलना का तर्क...
सरकार गिरते रुपये के संकट को बिल्कुल भी तवज्जो नहीं देना चाहती. उसका तर्क है कि दुनिया की दूसरी उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों की मुद्रा भी नीचे गिर रही हैं. इसका एक आशय यह भी निकलता है कि हम अब तक उभरी हुई अर्थव्यवस्था नहीं बन पाए, बल्कि दशकों से उभरती हुई अर्थव्यवस्था ही बने हुए हैं. यानी हमें मानकर चलना चाहिए कि हमारी हालत इस समय भी कच्ची गृहस्थी जैसी है. रुपये की गिरती कीमत ने हमारे सामने व्यापार घाटे की समस्या को और बढ़ा दिया है. खासतौर पर कच्चे तेल के बढ़ते दामों के कारण तेल के आयात पर खर्चा ज़्यादा हो रहा है. उस हिसाब से हम निर्यात बढ़ा नहीं पा रहे हैं.

 बाहरी कारणों का मतलब...
दुनिया की कोई भी या कैसी भी सरकार हो, हर संकट का यही तर्क देती है कि ऐसा तो हर जगह हो रहा है. यानी सरकारों के लिए समस्या का वैश्वीकरण करने का तरीका नया नहीं है, और मौजूदा हालात में अगर इस तर्क का इस्तेमाल करना हो, तो कम से कम यह भी साफ-साफ बताया जाना चाहिए कि वे बाहरी कारण हैं कौन से... उन कारणों को बोलने-बताने में संकोच कैसा.

तेल के दाम बढ़ने का तर्क...
इसका एक ही तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव बढ़ रहे हैं. क्या इतना भर कहने से यह साबित किया जा सकता है कि देश में 80 से 90 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल इसलिए बिक रहा है, क्योंकि कच्चा तेल 84 डॉलर प्रति बैरल हो गया है. इस तर्क में कच्चापन इसलिए है, क्योंकि अभी कुछ साल पहले ही जब कच्चे तेल का भाव 147 डॉलर हो गया था, उस समय देश में पेट्रोल और डीज़ल के दाम आज से बहुत कम थे. कच्चे तेल के भाव डेढ़ सौ होने के बावजूद देश के लोगों को आज से कम रेट पर डीज़ल-पेट्रोल मुहैया करा पाने के लिए क्या इंतजाम किया गया था, उसकी चर्चा ज़रूर होनी चाहिए, और उससे डीज़ल-पेट्रोल के दाम काबू करने के तरीके भी पता चलेंगे.

डीज़ल-पेट्रोल के दाम और महंगाई के बीच का संबंध...
कुछ साल पहले ही देश के हर नागरिक को समझाया गया था कि तेल महंगा होता है, तो महंगाई हर हाल में बढ़ती है. आज यह समझाया जा रहा है कि तेल के दाम बढ़ने से महंगाई नहीं बढ़ रही है. देश में महंगाई के सरकारी आंकड़े यही साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि यह बात भी याद करने लायक है कि कुछ साल पहले हम सरकारी आंकड़ों को झूठ साबित कर रहे थे. वह वक्त गुज़रे ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब कुछ विद्वान सरकारी आंकड़ों को झूठ साबित करने के लिए एक वाक्य सुनाते थे कि झूठ के तीन रूप होते हैं, एक झूठ, दूसरा सफेद झूठ और तीसरा सरकारी आंकड़ा. यानी वक्त कितना बदला हुआ है कि कहावतों और मुहावरों का इस्तेमाल ही बंद होता जा रहा है.

सरकार की निश्चिंतता का एक कारण...
महंगे कच्चे तेल के कारण सरकारी तेल कंपनियों को उसी हिसाब से तेल के रेट बढ़ाने की छूट है. सरकार को, खासतौर पर राज्य सरकारों को बढ़े रेट के हिसाब से और ज़्यादा टैक्स मिलता है. एक अनुमान है कि मौजूदा केंद्र सरकार के कार्यकाल में अब तक सरकारें कोई 20 लाख करोड़ रुपये पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स से वसूल चुकी हैं. इससे साबित होता है कि महंगे तेल की चिंता सरकार की चिंता तो बिल्कुल भी नहीं है. केंद्र सरकार ने भी पहले से ही तेल पर अपना टैक्स इतना खींचकर बढ़ा रखा है कि उसके ज़्यादातर खर्चे तेल पर लगे टैक्स से ही चल रहे हैं. चाहे सड़क निर्माण के 10 लाख करोड़ के ठेके हों या दूसरी योजनाओं के काम के लिए ठेके हों, सारे काम एक तरह से पेट्रोल-डीज़ल की बिक्री से मिले टैक्स से ही शुरू हो पा रहे हैं. स्वाभाविक है कि सरकार को अभी प्रत्यक्ष चिंता का कोई कारण नज़र नहीं आता होगा. बल्कि सरकार देश की माली हालात को बहुत अच्छी साबित करने की हरचंद कोशिश में लगी दिख रही है.

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क्या यह 'फील गुड' खत्म होने की शुरुआत है...?
आर्थिक क्षेत्र में 'फील गुड' का विचार बड़ा कारगर माना जाता है. खासतौर पर कॉरपोरेट जगत में 'फील गुड' के सहारे उद्योग-व्यापार खूब पनपाए जाते हैं. शेयर बाज़ार को ऊपर चढ़ाने के लिए तेजड़िये यही उपाय अपनाते हैं, लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में इस उपाय का इस्तेमाल अभी दो दशक पहले ही वाजपेयी सरकार के समय में हुआ था. और इसका इस्तेमाल बेझिझक और निःसंकोच हुआ था. हालांकि 'फील गुड' फैक्टर चला नही था. उस समय महंगाई को रोकने के लिए जो-जो किया गया, सरकार के लिए वह उल्टा पड़ा था. बेरोज़गारी ने 'फील गुड' के प्रचार का सारा असर खत्म कर दिया था. यहां तक कि वाजपेयी सरकार के चले जाने के बाद विपक्ष में रहते हुए नेताओं को यह प्रचार करना पड़ा था कि वाजपेयी सरकार के दौरान छह करोड़ रोज़गार पैदा हुए थे. ऐसे दावों की पड़ताल हो नहीं पाती, क्योंकि बेरोज़गारी के आंकड़े जमा करने से बचा जाता रहा है. खैर, आज यह सवाल वाजिब है कि क्या एक बार फिर वैसे ही 'फील गुड' वाले उपाय से उम्मीद तो लगाई जा रही है...? यह सवाल आज के मुश्किल हालात में ही नहीं उठाया जा रहा है, बल्कि इसे दो साल पहले इसी स्तंभ में एक आलेख में भी कहा गया था -'फील गुड' में तो नहीं फंस रहा देश...

यह सब चुनावी साल में...
देश की मुश्किल आर्थिक परिस्थतियों में तीन रोज़ पहले ही, यानी शुक्रवार को रिज़र्व बैंक से उम्मीद लगाई जा रही थी कि वह किसी मौद्रिक उपाय का ऐलान करेगा. प्रेस कॉन्फेंस हुई, लेकिन उसने यथास्थिति का ऐलान कर दिया. गिरता हुआ शेयर बाज़ार, जो प्रेस कॉन्फ्रेस से पहले थोड़ी देर के लिए संभला हुआ दिख रहा था, वह फिर धड़ाम हो गया. उसके एक रोज़ पहले वित्तमंत्री ने डीज़ल-पेट्रोल पर वसूले जा रहे भारी-भरकम टैक्स में डेढ़ रुपये की कटौती का ऐलान किया था, हालांकि उसका कोई असर नहीं पड़ा था. इसी बीच अनौपचारिक रूप से कुछ ऐसी चर्चा कराई गई कि 10 दिन तक डीज़ल-पेट्रोल के दाम नहीं बढ़ाए जाएंगे, लेकिन दाम अगले ही दिन से बढ़ने लगे. शनिवार को एक कार्यक्रम में वित्तमंत्री ने बहुत देर तक तरह-तरह के तर्क दिए कि सब कुछ सामान्य है. देखते हैं - अगले हफ्ते उनकी बनाई धारणा का क्या असर पड़ता है...?

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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