यह ख़बर 29 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

उमाशंकर सिंह की कलम से : तिब्बत दौरे पर दो टूक- पार्ट 1

ल्हासा से उमाशंकर सिंह:

कभी सोचा नहीं था कि अचानक यूं ही तिब्बत जाने का मौक़ा मिलेगा और चला भी जाउंगा। ये जगह से मुझे हमेशा से अपनी ओर खींचता रहा है, लेकिन सच कहूं तो कभी तिब्बत जाने का कभी सपना भी नहीं देखा था। रिपोर्टिंग के लिए तो दूर, सैलानी के तौर पर भी क्योंकि यहां पहुंचने के पहले आपको कई चुनौतियां पार करनी होती है, जिसमें सबसे बड़ी है चीन से आपको तिब्बत यात्रा संबंधी ज़रूरी इजाज़त मिलना। लेकिन ये तिब्बत को लेकर चीन की बदली हुई रणनीति का ही नतीजा है कि उसने भारत, नेपाल और भूटान के पत्रकारों के दल को न सिर्फ आमंत्रित किया, बल्कि तिब्बत जाकर वस्तुस्थिति देखने का मौक़ा भी दिया।
 
पारदर्शिता विश्वसनीय पत्रकारिता की सबसे बड़ी शर्त है। इसलिए ये बताना ज़रूरी है कि जब मैं और मेरी सहयोगी कादंबिनी शर्मा को चीनी दूतावास में मुलाक़ात के लिए बुलाया गया तो तिब्बत से जुड़े कई पहलुओं पर खुल के चर्चा हुई। इसमें तिब्बत से आने वाली फ्री तिब्बत की मांग की आवाज़ भी शामिल थी। हमारे सवाल तमाम थे और चीन का जवाब था आप ख़ुद जाकर देख लीजिए।

तो सवाल है कि हमने तिब्बत जाकर क्या देखा? जो कुछ देखा उसे अपनी निगाह से देखा या चीन की निगाह से। जो कुछ देखा उसे उसी रूप में बता पाने की हैसियत हम रखते हैं या नहीं। और जो कुछ नहीं देखा क्या किसी इस दबाव में उसे भी बताने की कोशिश तो नहीं कर रहे ताकि कोई ये न कहे कि हमने ईमानदार पत्रकारिता नहीं की... एम्बेडेड जर्नलिज़्म किया।

यहां ये सवाल इसलिए क्योंकि मैंने कई बार ख़ुद से पूछा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम एकपक्षीय तौर पर चीज़ों को रख दें और दूसरे पक्ष को ये लगे कि उनकी आवाज़ को दरकिनार किया गया है। लेकिन तिब्बत के संदर्भ में सबसे बड़ी हक़ीकत ये है कि आपको उस जगह पर कोई ऐसा मिलता ही नहीं जो दूसरे पक्ष की नुमाइंगी करता हो। ये सच है कि चीन भारत जैसा लोकतंत्र नहीं है, जिसे श्रीनगर में हुर्रियत कांफ्रेंस का दफ्तर मंज़ूर हो, इसलिए ये भी सच है कि दूर देश बैठ आज़ादी की मांग करने वालों की आवाज़ अपने ही इलाक़े में मद्धिम होते होते मंद हो जाती है। शायद तिब्बत के लिए यही सच है।
हमने तिब्बत ऑटोनॉमस रिजन यानि टीएआर के शनन प्रिफेक्चर और तिब्बत शहर का दौरा किया। मॉडल गांव के किसानों से लेकर तिब्बत हस्तशिल्प कला के ज़रिए रोज़गार पाने वाले कलाकारों तक से मुलाक़ात की। टीएआर अधिकारियों से लेकर तिब्बती अनुसंधान केंद्र के विशेषज्ञों तक से बात की।

भाषागत अंतर के कारण इन सबसे किसी एक भाषा में संवाद नामुमकिन था। कहीं तिब्बती भाषा से चीनी भाषा से अंग्रेजी के अनुवादक का सहारा लेना पड़ा तो कहीं तिब्बती भाषा से चीनी और फिर चीनी से अंग्रेज़ी भाषा के अनुवादकों का। भाषागत जानकारी की कमी की वजह से आम के बदले इमली न समझा दिया जाए, इसके लिए बोलने वाले के हावभाव और रंगढंग को भी परखने की कोशिश साथ-साथ चलती रही।

कहने का मतलब कि इन पूरे तिब्बत प्रवास के दौरान दिमाग में तिब्बत और चीन के रिश्ते को लेकर जो पहले से बना जो नज़रिया है वह हावी होने की कोशिश करता रहा। और साफ़ कहें तो तिब्बत की आज़ादी की बात करने वालों की बातों, उनके संघर्षों की दास्तां और प्रदर्शनों से बना नज़रिए तिब्बत को लेकर चीन के अप्रोच से बार बार टकरा रहा था। लेकिन इस टकराव के बावजूद मैं इस अंतिम नतीजे पर पहुंचा हूं कि चीन ने तिब्बत में विकास के जो काम किए हैं और आगे जो करने की योजना है वह अद्वितीय है। आप इसे मेरी अल्पज्ञता कह सकते हैं, लेकिन मेरी अपनी आंखों से देखा गया ये ताज़ातरीन सच है।

1960 से लेकर चीन अब तक तिब्बत पर अरबों खर्चने करने की बात करता है। ये खर्च कहां किए गए? क्या भारी भरकम सेना रखने पर? सेना की तैनाती नहीं है, ऐसी बात नहीं है और उस पर खर्च नहीं होता होगा ऐसा भी नहीं है। पर वह सड़कों पर नज़र नहीं आता। तिब्बत के दौरे पर हमें गांवों, शहरों या सड़कों पर सेना की कोई मौजूदगी नज़र नहीं आयी। न बख़्तरबंद गाड़ियों के तौर पर, न ही गश्ती दल के तौर पर। चेकपोस्ट और जांच पड़ताल वाली जगहों पर स्थानीय पुलिस के दस्ते चाकचौबंद तौर पर मुश्तैद ज़रूर नज़र आए। सीसीटीवी से सड़कों और शहरी इलाक़ों की निगरानी उसी तरह होती है जैसा बीजिंग जैसे जगहों की होती है।

ल्हासा की तरफ आने जाने वाले वाहनों की पड़ताल हमारे कश्मीर से ज़्यादा बेहतर तरीक़े से होती है। गाड़ियों से उतार कर जमातलाशी लेने जैसा एक भी मामला नहीं दिखा। ना हीं बंदूक की नोक ताने कोई प्रहरी किसी से ऊंची आवाज़ में बात करता नज़र आया। हां सवारी से गाड़ी में बैठे-बैठे सवाल जवाब देखने को ज़रूर मिला।

ये सब किसी भी देश या इलाक़े में सुरक्षा संबंधी चिंताओं की ख़ातिर की जाने वाली कवायद जैसी लगी। हां इस पर भी भारी भरकम रकम खर्च ज़रूर होता होगा जैसा कि हर देश में होता है। लेकिन चीन तिब्बत पर जिस खर्च की बात करता है उसका नमूना सड़कों पर चलते हुए नज़र आता है। बेहतरीन सड़कें, यूरोपीय देशों जैसे सुरक्षा मानक और उपकरणों का इस्तेमाल आदि आदि। तभी जब चीन के 2020 तक तिब्बत में एक लाख से ज़्यादा लंबी सड़कों का जाल बिछाने के लक्ष्य को देखते हैं, तो समझ में आता है कि कैसे वह विकास के रास्ते तिब्बतियों की रगों में उतर जाना चाहता। आख़िरकार वह तिब्बत में विकास की 77 परियोजनाएं ही हैं, जिसके ज़रिए तिब्बत की ज़मीनी तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी है और आगे बहुत ज़्यादा बदलने की उम्मीद है।

हमारे साथ तिब्बत के दौरे पर मौजूद द हिंदू अखबार की सुहासिनी हैदर बतातीं हैं कि जब वह 2007 में यहां आयी थीं तो न तो ऐसी सड़कें थीं और न ही ऐसे चकाचक शहर की गलियां। उनके मुताबिक़ पिछले 6-7 साल में ही काफी बदलाव आ गया है। इस बात की तस्दीक ल्हासा के होटल ब्रह्मपुत्रा ग्रैंड में पिछले चौदह साल से काम करने वाले नेपाली मैनेजर गुरुंग भी करते हैं। वह कहते हैं कि 2007 तक तो हमारे होटल के पीछे जंगल हुआ करता था। अब देखिए कैसी गगनचुंबी इमारतें खड़ीं हो गईं हैं और सड़कें चकाचक हो गई हैं। मैंने गुरुंग से जानना चाहा कि ल्हासा राजधानी है तो यहां तिब्बत की आज़ादी की मांग करने वालों का धरना प्रदर्शन तो होता रहता होगा। गुरुंग का जवाब था कि 2008 में कुछ हल्ला हंगामा हुआ था उसके बाद से ल्हासा में तो ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला।

हो सकता है कि धरना प्रदर्शन या लोगों के किसी असंतोष के सिर नहीं उठाने के पीछे बड़े बड़े जानकार चीन की दमनकारी नीति को क़सूरवार बताएं, लेकिन आज़ादी की वो दीवानगी ही क्या जो किसी दमन के सामने मंद पड़ जाए। हमारे अपने देश की आज़ादी के दीवानों को ही याद कर लें तो समझ में आ जाएगा कि अंग्रेजों ने किस किस तरह की दमनकारी नीति नहीं अपनाई, लेकिन लोग देश में ही डटे रह कर लड़ते रहे। तब गांधी जी और आज़ादी के दूसरे पुरोधाओं ने देश छोड़ दिया होता तो सोचिए कि आज़ादी की अलख कौन जगाए रखता।

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यह उदाहरण उनके लिए है जो तिब्बत को चीन की साम्राज्यवादी नीति का शिकार बताते हैं, लेकिन शायद वे उन कारणों को रेखांकित करने से बचते हैं जिसकी वजह से चीन ने तिब्बत में ख़ुद को मज़बूती से स्थापित कर लिया है। इसके लिए उसने न सिर्फ तिब्बत में विकास की बड़ी परियोजनाएं चलायीं हैं, बल्कि तिब्बत के ग्रोथ रेट को पिछले 5 साल से दस फीसदी से ज़्यादा रखा है। दुर्गम इलाके के वाबजूद क़रीब 2000 किलोमीटर चिंगई-ल्हासा रेलवे बना वह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और तिब्बत ऑटोनॉमस रिजन के बीच की दूरी को पाटने में क़ामयाब रहा है। इसके लिए कहीं उसे दर्जनों सुरंगे बनानी पड़ीं हैं तो कही एलिवेटेट लाइन बिछानी पड़ी है। चीन ने ये सब बिना थके किया है। 1300 किलोमीटर रेललाइन बिछाने की महथी परियोजना पर काम कर रहा है। टीएआर के सभी छह प्रिफेक्चर (हिस्से) और मुख्य शहरों को हवाई मार्ग से जोड़ने के लिए एक दर्जन से ज़्यादा हवाई अड्डों के निर्माण पर काम चल रहा है। जारी.....