क्या 2019 में टीवी के दर्शकों को कोई काम नहीं है?

बहस के दौरान कोई मेज़ पर पसर जाना चाहता है, कोई कुर्सी पर पीछे तक झुक कर पीठ सीधी कर लेना चाहता है. कुछ वक्ता तो बोलते वक़्त सोते नज़र आते हैं और कुछ को बोलते हुए सुनकर सोने का मन करने लगता है.

क्या 2019 में टीवी के दर्शकों को कोई काम नहीं है?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

कहीं से घूमते-फिरते हुए आकर बैठे और बिठाए गए ये लोग गिनती में दो, चार, छह और कभी-कभी दस भी होते हैं. कई साल से आते-आते इनके चेहरे पर टीवी की ऊब दिखने लगी है. जो नया आता है वो भी इसी टाइप के टीवी को देखते-देखते ऊबा हुआ लगता है. बहस के दौरान कोई मेज़ पर पसर जाना चाहता है, कोई कुर्सी पर पीछे तक झुक कर पीठ सीधी कर लेना चाहता है. कुछ वक्ता तो बोलते वक़्त सोते नज़र आते हैं और कुछ को बोलते हुए सुनकर सोने का मन करने लगता है. किसी के कान से स्काइप की तार निकल आती है तो कोई बोलता रह जाता है और आवाज़ चली जाती है. वक्ता चाहे जो भी बोलें, अपने हाव-भाव से बता देते हैं कि वे बकवास कर रहे हैं. अब डिबेट में आ गए हैं तो कुछ न कुछ बोलना तो है ही. एंकर भी फंसा लगता है. वो भी शो ख़त्म कर भाग जाने की प्लानिंग में लगा नज़र आता है.

इन सब पर एक सवाल की बहुत भारी ज़िम्मेदारी आन पड़ी है. 2019 में क्या होगा? इतना मुश्किल और ज़रूरी सवाल था कि न्यूज़ चैनलों ने 2018 से ही हल करना शुरू कर दिया. काश इसकी गिनती होती कि पिछले एक साल में सभी चैनलों और हरेक चैनल का मिलाकर 2019 को लेकर कितने डिबेट और सर्वे हुए हैं. यह सवाल घिसा हुआ लगने लगा है. दर्शकों को यह बताया गया कि बड़ा भारी गंभीर काम हुआ है इसलिए वह इन सर्वे और विश्लेषण को गंभीरता से ले. चैनल और दर्शक मिलकर रोज़ यह अभ्यास करते हैं. दो चार सवालों तक सीमित रहने वाले इस डिबेट ने राजनीति का काम आसान किया है.

किसी एक दुकान पर चाय हर बार अच्छी नहीं बनती है और हर दुकान पर चाय अच्छी नहीं मिलती है. फिर भी चाय बिकती है और दुकान भी चलती है. ईमानदारी से देखेंगे तो ज़्यादातर चाय पीने वालों का चाय के प्रति स्वाद बिगड़ चुका है. फिर भी वे चाय पीते हैं क्योंकि उन्हें पीने के बाद लगता है कि चाय पी है. बहुत से दर्शक अच्छी चाय की तलाश में कई बार ठगे जाते हैं और घटिया चाय पी लेते हैं. अंत वे इस बात पर समझौता कर लेते हैं कि फ़लां चाय ठीक देता है. बुरा नहीं है. यही अवधारणा न्यूज़ चैनलों और दर्शकों के बीच काम करती है. यह मामला सिर्फ चाय और ख़बर पेश करने की विधि तक सीमित नहीं है. विधि के साथ-साथ चायपत्ती की सप्लाई भी बहुत घटिया हो रही है. चैनलों की चायपत्ती यानी कंटेंट ख़त्म हो चुका है. दर्शक फिर भी चाय पीता है. कम से कम हलक में कुछ तो गरम जा रहा है. उसी तरह दर्शकों को डिबेट की लत लग गई है कि कुछ तो मज़ा आ रहा है.

इसके बाद भी चाय की दुकानें चलती रहती हैं और चैनलों पर डिबेट की दुकान भी चलती रहेगी. मगर यह सच्चाई है कि आइडिया के तौर पर चैनलों के डिबेट क्रायक्रम का अंत हो चुका है. डिबेट कार्यक्रमों ने सबसे पहले लोकतांत्रिक मुद्दों और सवालों को सीमित किया क्योंकि इनकी लागत कम होती है. 2019 में मोदी का जादू चलेगा इस सवाल पर न तो लागत है और न मेहनत. आपको झांसा देने के लिए बीच-बीच में सर्वे ले आया जाता है जिससे लगे कि कुछ नया मिल गया है. दर्शकों को लगता रहे कि वे नया देख रहे हैं इसलिए कभी किसी बयान को आधार बना लिया जाता है तो कभी किसी विवाद को. वैसे भी डिबेट तो अब ट्वीटर और फ़ेसबुक पर ही हो जाता है. पहली बार तर्क रखने और जवाब देने का अंदाज़ टीवी तक आते आते बासी हो जाता है. सोशल मीडिया ने डिबेट को मार दिया है. चैनलों का डिबेट अब थका हुआ लगता है.

कॉस्ट कटिंग की वाजिब वजहें होती हैं लेकिन इसके असर में चैनल तो चैनल रहे नहीं, दर्शक भी दर्शक नहीं रहे. पहले चुनावी कवरेज़ रिपोर्टरों की फ़ौज से होता था अब सर्वे से होता है. रिपोर्टर अलग अलग सवाल खड़े करता था, सर्वे सारे सवालों को ख़त्म कर चुनावी चर्चा को दो चार सवालों तक सीमित करता है. आख़िर टीवी के डिबेट में आने वाले नियमित वक्ताओं में किसने रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर काम किया है? लगातार इन सवालों पर आलसी वक्ताओं को बिठाकर इनसे जुड़े प्रश्नों की प्रासंगिकता समाप्त की जा रही है. ऐसा कर चैनल सायास राजनीति दलों की बड़ी मदद करते हैं या उनके ऐसा करने से मदद हो जाती है.

चैनलों ने दर्शकों को दर्शकहीनता की स्थिति में पहुंचा दिया है. दर्शकहीनता की स्थिति वो स्थिति है जिसमें आप टीवी के सामने दर्शक तो होते हैं मगर उस टीवी में कोई सूचना नहीं होती. सूचनाओं की विविधता नहीं होती. ठीक उसी तरह से जैसे पेरिस जाकर एफिल टावर देख लेने से न तो आप पूरे पेरिस को जान जाते हैं और न ही फ्रांस का समाज और इतिहास. ज़्यादातर पर्यटक कुछ चिन्हित जगहों पर सेल्फी लेकर चले आते हैं. उसी तरह डिबेट कार्यक्रम भी दर्शकों के लिए महज़ सेल्फी प्वाइंट बन कर रह गए हैं. दर्शक भी पर्यटक हो गया है. तीन दिन मे फ्रांस घूम लेना चाहता है या फिर वह फ्रांस की बाकी सच्चाई न देख सके इसके लिए पर्यटक स्थल तय कर दिए गए हैं. आप पेरिस पहुंच कर आर्क द त्रियांफ का दरवाज़ा देखते हैं. वहां आई भीड़ आपको यक़ीन दिलाती है कि जो आप देख रहे हैं वही सब देख रहे हैं. हमारा देखना सीमित और संकुचित हो चुका है. इसी को दर्शकहीनता कहता हूं. उन्हें लगता है कि वे न्यूज़ चैनल देखते हैं मगर न्यूज़ कहां हैं? रिपोर्टिंग कहां है?

दर्शक होने का यही पैटर्न है. चैनल होने का भी यही पैटर्न है. आपको लगता है कि मीडिया का विस्तार हुआ है लेकिन रिपोर्टिंग का तो विस्तार नहीं हुआ है. न चैनलों में और न अख़बारों में. आप किसी मीडिया समूह की वेबसाइट को ग़ौर से देखिए. पता चल जाएगा कि उसमें होने के नाम पर कुछ तो है मगर वो कुछ भी नहीं है. जब रिपोर्टर का विस्तार नहीं हुआ तो जवाबदेही का विस्तार कैसे हो गया? क्या बग़ैर सूचना के जवाबदेही तय की जा सकती है? टीआरपी से विज्ञापन मिलता है तो क्या चोटी के चैनल अपनी कमाई रिपोर्टिंग के ढांचे पर ख़र्च करते हैं? मूल रिपोर्टिंग और किसी बड़ी घटना के आस-पास की रिपोर्टिंग में भी फ़र्क़ करना होगा. कुंभ के समय चार रिपोर्टर चले जाएंगे मगर 2013 की यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा या शिक्षा मित्रों के लिए एक रिपोर्टर नहीं जाएगा.

दर्शक जब जनता के रूप में सरकार या समाज को दिखाने के लिए चैनलों को बुलाते हैं तो कोई जाता ही नहीं है. दर्शकों को पता होगा या वाक़ई वे इतने मासूम हैं कि पता नहीं चलता कि वे अब चैनलों पर न्यूज़ नहीं देखते हैं. उनके दिमाग़ में ये बात हो सकती है कि वे न्यूज़ चैनल देख रहे हैं लेकिन उसमें न्यूज़ कहां हैं. धारणा को सूचना समझने का प्रसार होता जा रहा है. लोग भी कहते हैं कि डिबेट करा दीजिए. उनके दिमाग में माडिया का बनाया यह ढांचा धंस गया है. डिबेट का चरित्र ही ऐसा है कि वह दस में एक बार जनता के सवालों पर तो होगा मगर नौ बार सत्ता, साधन संपन्न लोगों के हक़ में होगा. इसका नुक़सान यह हुआ है कि प्रशासन और ठगों के गिरोह ने जनता का गला घोंटना शुरू कर दिया है. डिबेट के प्रोग्राम चैनलों को ग़रीब विरोधी बनाते हैं. लोकतंत्र विरोधी बनाते हैं.

प्रधानमंत्री तो दूर मंत्री तक अपने मंत्रालय से संबंधित सख़्त सवालों के लिए हाज़िर नहीं होते हैं. आप रेल मंत्री के उदाहरण से समझिए. हज़ारों लोग रेल के लेट चलने को लेकर ट्वीट करते होंगे मगर वे नोटिस तक नहीं लेते. किसी यात्री को इमरजेंसी में मदद पहुंचा कर ट्वीट करते हैं और वाहवाही लूट लेते हैं. यह अच्छा काम है लेकिन मूल समस्या का समाधान नहीं है. संवाद भी नहीं है. संवाद का झांसा है. रेल मंत्री लोगों की समस्याओं से जुड़ी सूचनाओं को ढंकने के लिए धारणा से संबंधित जानकारी को आप तक पहुंचा देते हैं. न्यूज़ चैनल भी यही करते हैं. बल्कि जो न्यूज़ चैनल करते रहे हैं, वही अब रेल मंत्री करने लगे हैं.

इस पूरी प्रक्रिया में डिबेट के सवाल सीमित होते चले गए. मोदी जीतेंगे या राहुल. इससे चैनलों को अपना अनुसंधान नहीं करने का बहाना मिल जाता है. ख़ुद एंकर हूं तो बता सकता हूं कि डिबेट शो करने में कोई मेहनत नहीं लगती है. एक दो घंटे की मेहनत से हो जाता है. वक्ताओं के नाम पर दो भेड़ों को बुलाकर भिड़ाना होता है. एक घंटा आराम से कट जाता है. आपको बोर न लगे इसलिए नारों की शक्ल में स्क्रीन की पट्टी पर आकर्षक पंक्तियां लिखी जाती हैं. वो देखने में आकर्षक होती हैं मगर न तो उनका ख़ास मतलब होता है और न ही उन नारों के अनुरूप कार्यक्रम होता है. कई तरह के चमकदार आइटम बनाए जाते हैं जो स्क्रीन पर उछलते-कूदते रहते हैं. प्रयास यही होता है कि आपको लगे कि आप कुछ देख रहे हैं. आप दर्शक हैं.

सवालों के सीमित हो जाने से प्रोपेगैंडा की संभावना बन जाती है. जब दर्शकों के ज़हन से सवाल ख़त्म कर दिए जाएं या सवालों को दर्शकों तक न पहुंचने दिया जाए तो लोकतंत्र का मूल्य दर्शकों के लिए समाप्त हो जाता है. दर्शक और चैनलों के सक्रिय संबंधों से एक मीडिया सोसायटी बनती है. आर्थिक कारणों से करोड़ों लोग इस मीडिया सोसायटी से बाहर होते हैं. जो लोग अंदर होते हैं वही लोकतंत्र के सवालों को लेकर सोचने वाले, जानने वाले अंग्रिम पंक्ति या केंद्र में होते हैं. एक बार यह केंद्र या अग्रिम पंक्ति ध्वस्त हो जाए बाकी का काम आसान हो जाता है. भारत के न्यूज़ चैनलों ने इसके अर्जित लोकतंत्र को ख़त्म करने का काम किया है और ख़त्म करने का प्रयास करने वालों की मदद की है.

क्या आपसे पूछा जा सकता है कि आप 2019 से संबंधित चर्चाओं से क्या हासिल करते है? क्या वाक़ई आपको कुछ नया जानने को मिलता है? ऐसा क्या बताया जाता है जो आप नहीं जानते हैं. सुनने के नाम पर कुछ भी सुनते चले जाना आपको निष्क्रिय बना रहा है. आप कब तक चैनल देखने के नाम पर डिबेट देखेंगे? इसमें क्या होता है? इससे आज तक व्यवस्था से लेकर राजनीति में कोई जवाबदेही आई? अपवाद की बात न करें. इसलिए जवाबदेही नहीं आई क्योंकि डिबेट सूचना पैदा नहीं करते हैं. वे सवालों को मारने के लिए सवाल पैदा करते हैं. वाक़ई आप महान हैं. आप कैसे इस तरह के प्रोग्राम देख सकत हैं?

मैं मानता हूं कि राजनीति महत्वपूर्ण है. इतनी समझ तो है. इसमें सबकी भागीदारी सक्रिय होनी चाहिए. लेकिन बग़ैर सूचना के आप भागीदारी नहीं भागीदारी का आंकड़ा भर बन रहे हैं. चैनलों के पास ऐसा करने की बहुत सारी मंजबूरियां हैं. आपके पास क्या है? क्या आप भी मजबूर हैं? क्यों नहीं इन डिबेट कार्यक्रमों को देखना बंद कर देते हैं? आपको इसलिए बंद कर देना चाहिए कि इनमें अब कुछ नहीं होता. राजनीतिक दलों के पास कुछ लोग ज्यादा आ गए हैं. वे खुद को नेताओं से होशियार समझते हैं. नेता भी जानते हैं कि राजनीति को अपने हिसाब से ही करेंगे, इसलिए इन सबको टीवी डिबेट में भेज देते हैं. प्रवक्ता भी यह बात जानता है और आप ज़रा सा दिमाग़ लगाकर देखेंगे तो समझ जाएंगे कि यह बंदा अपने राजनीतिक दल में सबसे खलिहर होगा. जिनको जवाब देना चाहिए वो तो आते नहीं डिबेट में तो फिर आप डिबेट देखने क्यों जाते हैं?

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