यह ख़बर 30 सितंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

उमाशंकर सिंह की कलम से : कहीं आपकी भी फाइल तो नहीं अटकी...?

नई दिल्ली:

फाइलें चलती हैं... उनकी अपनी चाल होती है... कई बार वे तेज़ी से चलती हैं, कई बार बहुत धीमे... इतनी धीमे कि एक टेबल से बगल वाली टेबल तक पहुंचने में दिनों लग जाते हैं... एक महकमे से दूसरे महकमे तक पहुंचने में तो महीनों... जिस मकसद से फाइल चली हो, उसे पूरा होने में तो कई बार ज़िन्दगी भी खप जाती है... जिसके लिए उस फाइल को चलना होता है, वह चल बसता है, लेकिन फाइल नहीं चल पाती...

पदोन्नति की फाइल... पुरस्कृत करने की फाइल... तबादले की फाइल... नौकरी की फाइल... कोर्ट-कचहरी की फाइल... मुआवज़े की फाइल... पेंशन की फाइल... सरकारी लोन की फाइल... जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र की फाइल... अस्पताल में दाखिले की फाइल... डिस्चार्ज होने की फाइल... मंत्रालय की फाइल... सरकारी खरीद-फरोख्त की फाइल... बोफोर्स और डेनेल आर्म्स डील की फाइल... केस की फाइल... सीबीआई की जांच की फाइल...

फाइलें तमाम तरह की होतीं हैं... कईं फाइलें एक साथ चलती हैं... उनमें कइयों से हमारा सीधा सरोकार होता है... कइयों से पाला नहीं पड़ा होता है... जिनसे पड़ता है, उन्हीं के बारे में समझ आता है... पहले तो गैस और टेलीफोन कनेक्शन की भी फाइलें चला करती थीं... बिजली मीटर लगाने की फाइल... इन फाइलों की तादाद घटी है, क्योंकि अब फाइलों की जगह 'मेलें' चलने लगी हैं, खासतौर से प्राइवेट दफ्तरों में... यहां फाइलें आगे नहीं बढ़तीं, मेल फॉरवर्ड होती हैं... इसके अपने गुण-दोष हैं... कई बार पेंडिग बॅाक्स में डाल दी जाती हैं... शो ऐज़ अनरेड... कई बार तुरंत फॉरवर्ड होती हैं... फाइल लाने-ले जाने वाले चपरासी की भी ज़रूरत नहीं... बस, मेल भेजना होता है... वैसे, कई बार मेल भेजकर इत्तिला भी करना पड़ता है - 'डिड यू सी माई मेल... आई हैव जस्ट सेंट टू यू...' मेल पर ही सारा काम होता है... दूसरों का किया भी अपने नाम होता है... कुछ इसे मेल का खेल कहते हैं...

मेल को छोड़िए - उस संसार पर बात फिर कभी... अभी हम बात कर रहे हैं फाइलों की... फाइल किस चाल से चलती हैं, यह फाइल चलाने वालों के चरित्र पर डिपेंड करता है... फाइलों की स्पीड घटाने-बढ़ाने के पीछे इनकी कुछ अपनी चालें होती हैं... कई बार वे चाल सीधी समझ में आ जाती है, लेकिन कई बार घुमा-फिराकर बताई जाती है... एक किरानी दूसरे के पास भेजता है... दूसरा तीसरे के पास... तीसरा फिर पहले के पास... इस चक्कर में कई ऋतुचक्र निकल जाते हैं...

फाइलों को आगे बढ़ाने के लिए चढ़ावे का बड़ा चक्कर है... क्लर्क स्तर पर यह चक्कर 10 से लेकर 10,000 तक का - कुछ भी हो सकता है... इसमें बिचौलियों का भी बड़ा रोल होता है... जो फाइल आपके जूते घिसने से भी आगे नहीं बढ़ती, इन बिचौलिए को बीच में लाते ही बढ़ जाती है... ये बड़े एक्सपर्ट होते हैं... किस बात की फाइल है या किस अफसर के पास फाइल है, यह जाना नहीं कि तुरंत बड़बड़ा देते हैं, कह देते हैं कि 'जानता हूं उसे, बड़ा काइयां है, बिना लिए-दिए मानेगा नहीं, आप देख लीजिए क्या कर सकते हैं...'

फाइलें छोटी और बड़ी भी होती हैं... बड़े लेवल की फाइल पर चक्कर भी बड़ा होता है... वहां लेवल आफ इंटरेस्ट अलग होता है... अंबानी के सेज़ की फाइल मुलायम बढ़ाएं तो अलग बात होती है... मायावती रोके तो अलग... फिर मायावती भी फाइल आगे बढ़वा दें तो कहानी बदल चुकी होती है... कुछ भी हो, लेकिन टाटा-बिड़ला, अंबानी-अडानी जैसे पूंजीपतियों की फाइलें कभी रुकती नहीं... उनकी फाइलों की कॉपियां भी कई होती हैं... एक अटकी, तो दूसरी चल पड़ती है... बंगाल में अटकती है तो हरियाणा में आगे बढ़ जाती है... गुजरात से फल-फूलकर वह दिल्ली तक पहुंच जाती है... सरकार बदलने के साथ कई बार फाइलें खोली और बंद भी की जाती हैं... जांच-पड़ताल और मुकदमे की फाइल हो, तो अपनों की बंद की, राजनीतिक विरोधियों की खोल ली...

'फक्कड़ों' की फाइल की तस्वीर अलग होती है... फाइल आगे बढ़ने से उसकी ज़िन्दगी बंधी होती है... और जहां किसी तरह का बंधन हो, वहां फाइल तेज़ी से कैसे मूव कर सकती है... वह धूल खाती है, वसूली मांगती है, और नहीं मिलने पर गुम हो जाती है... ढ़ूंढ़ने पर भी नहीं मिलती... मिलती है, तो उस पर बड़े बाबू के दस्तखत नहीं हुए होते... 'फाइल अभी नहीं देखी है, फाइल मेरे पास नहीं आई है, पता करो, फाइल कहां है...' जैसे जवाब मिलते हैं... जबकि फाइल वहीं कहीं होती है, और आमतौर पर वही अफसर फाइल को वहीं दबाए बैठा होता है...

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तो फाइलें दबती भी हैं... पूरी न सही, उसमें से कुछ रिकॉर्ड गायब भी हो जाते हैं... कई बार तो दफ्तरों में आग लग जाती है और फाइलें जल जाती हैं... कुछ बचता ही नहीं... क्या कर लोगे...