आरबीआई के पूर्व गवर्नर के गंभीर इशारों को समझें...

आरबीआई के पूर्व गवर्नर के गंभीर इशारों को समझें...

इस साल के बजट के असर के बारे में कुछ सनसनीखेज बातें निकलकर आना शुरू हो गई हैं. खास तौर पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन ने बहुत ही बड़ी बात की तरफ इशारा किया है. साफ-साफ कहने के बजाए उन्होंने अपनी बात छुपाकर कही है. उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ही छुपाव किया होगा. लेकिन अगर सिर्फ इशारा ही किया है तो वाकई यह भी जिम्मेदारी का निर्वाह ही है. अब यह देश के विद्वानों और जागरूक नागरिकों का काम है कि उनके इशारे की व्याख्या करें.

रंगराजन का इशारा
उन्होंने बैंकों के फंसे हुए कर्ज की तरफ इशारा किया है. फंसे हुए कर्ज या डूबते हुए कर्ज या एनपीए को एक दो साल से तरह-तरह से दबा छुपाकर रखा जा रहा है. आज तक यह दावे से नहीं कहा जा पा रहा है कि बैंकों से दिया गया कितना कर्ज डूब जाने की कगार पर है. कई साल तक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहने के कारण बैंकों की सही स्थिति जानने वाले वे ही सबसे सही व्यक्ति थे. उनके अलावा हाल ही में आरबीआई के गवर्नर पद से अलग हुए रघुराम राजन ने भी अपने पद पर रहते हुए सरकार की मंशा की परवाह न करते हुए बैंकों के खाते दुरुस्त करने की सलाह दी थी. और तभी यह अंदेशा खड़ा हो गया था कि बैंकों की हालत इतनी पतली होती जा रही है कि अगर जल्द ही सरकार की तरफ से बैंकों में पैसा न डाला गया तो बहुत बड़ा आर्थिक हादसा हो सकता है.

क्या कहा रंगराजन ने
इशारों की भाषा में राजन ने कहा है कि बैंकों को सरकार की तरफ से दस हजार करोड़ देने की तुलना एक-दो लाख करोड़ की रकम से नहीं की जा सकती. इस बात की व्याख्या अभी मीडिया ने शुरू नहीं की है. लेकिन क्या इसका मतलब यह नहीं निकलता कि बैंकों को संकट से उबारने के लिए दो लाख करोड़ और उतनी न हो पाए तो कम से कम एक लाख करोड़ की जरूरत थी. अब ये वित्तीय प्रबंधन के विशेषज्ञ ही अनुमान लगा सकते हैं कि इस समय बैंकों पर अपने कर्ज़ की वसूली के लिए कितने लाख करोड़ रुपये का बोझ है. वैसे इस बारे में पिछले साल के बजट के पहले लिखे गए एक विशेषज्ञ आलेख में मोटा-मोटा अंदाजा लगाया गया था, देखें - हकीकत को छिपाकर ख्वाब दिखाता बजट 2016.  लेकिन हैरत की बात है कि साल भर बाद भी अब तक साफ साफ कुछ नहीं पता कि बैंकों की वास्तविक स्थिति है क्या?

क्या सुझाया रंगराजन ने
बैंकों की मौजूदा माली हालत को भले ही उन्होंने दुका छुपाकर कहा हो, लेकिन सुझाव उन्होंने खुलकर दिया है. उनका सुझाव है कि डूब की कगार पर खड़े बैंकों के कर्ज की वसूली से अच्छा कोई दूसरा उपाय सामने नजर नहीं आता. गौरतलब है कि राजन ने यह सुझाव हैदराबाद में इस साल के बजट के बाद आयोजित एक परिचर्चा में दिया है. जाहिर है कि राजन जैसे अनुभवी विशेषज्ञ की बात को यूंही छोड़ा नहीं जा सकता.

सरकार ने किया क्या?
पिछले साल के बजट में बैंकों की पतली हालत देखते हुए सरकार ने बैंकों में अपनी तरफ से 25 हजार करोड़ डाले थे. पिछले साल इस रकम को ऊंट के मुंह में जीरा माना गया था. जबकि एक साल के अंतराल में बैंकों के डूब रहे कर्ज की मात्रा सनसनीखेज ढंग से बढ़ जाने का पूरा अंदेशा है. यानी इस साल तो पिछले साल की तुलना में कई गुनी रकम बैंकों को दिए जाने की दरकार थी. लेकिन हैरत यह जताई जा रही है कि इस साल यह रकम पहले से भी 40 फीसद रह गई.

क्या हो सकता है सरकार के दिमाग में
बैंकों की नाजुक हालत संभालने के लिए सिर्फ दस हजार करोड़ की रकम को कोई भी नहीं कह सकता कि इससे कोई फर्क पड़ेगा. हां पीछे से जो दूसरे उपाय किए गए हैं उससे जरूर यह माना जा सकता है कि फिलहाल बैंकों को अपनी जान बचाने का मौका मिला है. वह उपाय था नोटबंदी. नोटबंदी ने लोगों को मजबूरी में अपने हजार पांच सौ के नोट बैंकों में जमा करने को मजबूर कर दिया. साथ ही साथ लोगों पर बैंकों से अपना पैसा निकालने की सीमा बांध दी. इस तरह बैंकों के पास लोगों की जमा रकम बाहर जाने से रुकी हुई है. लेकिन क्या यह स्थिति ज्यादा दिन तक चल सकती है. काम धंधों में मंदी से बुरी तरह से परेशान लोग अपने पैसे निकालकर कामधंधे को पटरी पर लाने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. याानी किसी भी समय बैंक अपनी वास्तविक समस्या से फिर से रूबरू हो सकते हैं. अब ये समस्या भले ही आज या एक दो महीने में न दिखाई दे रही हो लेकिन तीन-चार महीने बाद मुंह बाए खड़ी समस्या के समाधान के लिए अगर अभी से न सोचा गया तो यह भी तय है कि आग लगे पर कुआं खोद नहीं पाएंगे.

कितना बड़ा है मसला
दिल के बहलाने को हम राजनीति, समाज और कानून व्यवस्था को कितना भी महत्व देते रहें लेकिन देश और दुनिया के बड़े-बड़े विद्वान यह बताते आए हैं कि इन तीनों तंत्रों पर अर्थतंत्र सबसे भारी पड़ता है. यहां तक कि अर्थतंत्र को बाकी तीन तंत्रों का निर्धारक भी माना जाता है. यानी राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र पर प्रभुत्व अर्थशास्त्र का ही है. देश की प्रमुख दो समस्याओं यानी किसानों की बदहाली और युवाओं की बेरोजगारी की समस्या का सीधा संबंध अर्थतंत्र से है. आधुनिक समय में किसी देश की खुशहाली का संकेतक हम जीडीपी को मानते ही हैं. जाहिर है कि हमारी माली हालत की तस्वीर बताने वाले बैंकों के एनपीए पर हमें सबसे ज्यादा गौर करने की जरूरत है.


सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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