समान नागरिक संहिता : संवैधानिक जिम्मेदारी की बजाय राजनीति क्यों?

समान नागरिक संहिता : संवैधानिक जिम्मेदारी की बजाय राजनीति क्यों?

कानून मंत्री सदानंद गौड़ा (फाइल फोटो)

देश में समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड- यूसीसी) लागू करने की संभावना का पता लगाने के लिए मोदी सरकार द्वारा विधि आयोग को पत्र लिखने से राजनीतिक हंगामा खड़ा हो गया है। क्या सरकार के इस कदम से संविधान की अवहेलना हुई है...?

प्रगतिशील समुदाय एवं मुस्लिम महिलाओं में बदलाव के लिए बेचैनी
अंग्रेजों ने भारत में सभी धर्मों के लिए एक समान क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम बनाया जो अभी भी लागू है। सिविल लॉ के बारे में 1840 में ऐसे प्रयास किए गए, परंतु हिंदुओं सहित सभी धर्मावलंबियों के विरोध के बाद कॉमन सिविल कोड लागू नहीं हो सका। संविधान सभा में लंबी बहस के बाद अनुच्छेद 44 के माध्यम से यूसीसी बनाने के लिए दिशा-निर्देश दिया, जिसे पिछले 70 वर्षों में लागू करने में सभी सरकारें विफल रही हैं। कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद 1955-56 में हिंदुओं के लिए संपत्ति, विवाह एवं उत्तराधिकार के कानून पारित हो गए। दूसरी ओर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने साल 1937 में निकाह, तलाक और उत्तराधिकार पर जो पारिवारिक कानून बनाए थे, वह आज भी अमल में आ रहे हैं जिन्हें बदलने के लिए मुस्लिम महिलाएं एवं प्रगतिशील तबका बेचैन है।   

निकाह और तलाक के कानूनों पर है सर्वाधिक विवाद
सिविल लॉ में विभिन्न धर्मों की अलग परंपराएं हैं परंतु सर्वाधिक विवाद शादी, तलाक, मेनटेनेंस, उत्तराधिकार और गिफ्ट के कानून में भिन्नता से होता है। यूसीसी पर हालिया सरगर्मी एक ईसाई व्यक्ति द्वारा पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने के बाद पैदा हुई जिसमें उसने ईसाइयों के तलाक अधिनियम को चुनौती दी थी। उसका कहना था कि ईसाई दंपति को तलाक लेने से पहले 2 वर्ष तक अलग रहने का कानून है जबकि हिंदुओं के लिए यह अवधि कुल एक वर्ष की है। दूसरी ओर तीन मुस्लिम महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग याचिकाएं दायर कर तलाक-उल-बिद्दत (तीन तलाक) और निकाह हलाला (मुस्लिम महिला मुंहजबानी तलाक के बाद अपने पति के साथ तब तक नहीं रह सकती जब तक किसी और मर्द से शादी करके तलाक न ले ले।) को गैर-इस्लामी और कुरान के खिलाफ बताते हुए इस पर पाबंदी की मांग की। ऑल इंडिया मुस्लिम लॉ बोर्ड की खिलाफत के बावजूद सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर अगली सुनवाई 6 सितंबर को करेगा।  

सरकारों की कमजोरी से विफल होता संविधान
1985 में शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था जिसे मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप माना गया। कट्टरपंथियों के दवाब के बाद राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए 1986 में संसद से कानून ही पारित करा दिया। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो मामले में अपने विस्तृत आदेश में सरकारों के लचर रवैये पर सख्त टिप्पणी करते हुए यूसीसी को जरूरी बताया था। परंतु 2000 में लिली थॉमस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यूसीसी को लागू करना विवादास्पद हो सकता है। पिछले वर्ष 2015 में एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को यूसीसी को लागू करने पर विचार का निर्देश दिया। गोवा में यूसीसी का कानून पहले ही लागू है जिसे सहमति बनाकर देश भर में लागू किया जा सकता है। भाजपा द्वारा यूसीसी को चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाया गया जिससे सरकार के इस कदम को यूपी चुनाव से जोड़ा जा रहा है।

संवैधानिक प्रावधानों में स्पष्टता के बावजूद विधि आयोग से राय क्यों?
अभी हाल ही में मंदिरों में महिलाओं को प्रवेश के अधिकार पर कोर्ट ने मुहर लगाई है जिसका लाभ मुस्लिम महिलाओं को भी मिलने की बात हो रही है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी महिलाओं द्वारा बदलाव की मांग जायज है, जो संविधान के अनुच्छेद 14ए 15 एवं 21 के तहत उनका मूल अधिकार भी है। यूसीसी अगर लागू हुआ तो एक नया कानून सभी धर्मों के लिए बनेगा और वर्तमान हिंदू कानून को मुस्लिम समुदाय पर लागू नहीं किया जा सकता। इसके लिए सरकार द्वारा विधि आयोग को कानून का मसौदा बनाने के लिए निर्देश देना चाहिए जिस पर विमर्श और आपत्तियों के बाद उचित कानूनी संरक्षण से सहमति बन सके। विधि आयोग से कानून के मसौदे की मांग करने की बजाय सिर्फ राय मांगने से न सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों पर वरन सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़े हो गए हैं?

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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