उत्तर प्रदेश : विकास गाथा पर भारी जातीय संतुलन की राजनीति

उत्तर प्रदेश : विकास गाथा पर भारी जातीय संतुलन की राजनीति

प्रतीकात्मक फोटो.

चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों और नेताओं को क्या-क्या नहीं करना पड़ता है. ऐसे वादे करना जो पूरे न किए जा सकते हों, ऐसे आरोप जो साबित न किए जा सकते हों, ऐसी मांग करना जो वाजिब न हों, यह अब आम बात हो चुकी है. और कुछ इसी तरह अपनी छवि गढ़ी जाती है, जिसे बनाए रखने के लिए न जाने क्या-क्या नाटक करने पड़ते हैं. सच तो यह है कि हमारे देश में पिछले कितने ही दशकों से नेता यह सब करने के जितने आदि हो चुके हैं, उतने ही आम लोग भी यह सब देखकर नजर-अंदाज़ करने के आदि हो चुके हैं. इसीलिए हर चुनाव के पहले कुछ ऐसा करने की ललक हमेशा बनी रहती है जिससे लोगों के ऊपर कुछ तो प्रभाव बना रह जाए.

उत्तर प्रदेश में आजकल ऐसी ही छाप छोड़ने का माहौल चल रहा है. एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कुछ-कुछ दिनों पर किसी शहर में एक बड़ी रैली करके अपने मन की बात लोगों से साझा करते हैं, और दूसरी ओर कांग्रेस के राहुल मोदी के कथित भ्रष्टाचार के सबूत से भूचाल ले आने का दावा करते हुए पुराने आरोपों को दोहराते नजर आ रहे हैं. प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपनी समाजवादी पार्टी की स्थापित छवि को तोड़ने के क्रम में ताबड़तोड़ उद्घाटन और शिलान्यास करके अपनी विकासवादी छवि को निखारने में लगे हैं और पिछले कुछ दिनों में लगभग रोज ही कैबिनेट की बैठक करके दर्जनों निर्णय लिए जा रहे हैं. बहुजन समाज पार्टी की मायावती अपनी लगातार बयानबाजी में मोदी को ही निशाना बनाकर भाजपा विरोध में अपने को नम्बर एक पर स्थापित करना चाह रहीं हैं.

पद पर बने रहने की वजह से, और पिछले कुछ महीनों में अपने को समाजवादी पार्टी की परंपरागत छवि से अलग दिखने के कारण अखिलेश यादव अभी प्रचार की दौड़ में आगे हैं. चूंकि उनकी ही पार्टी में कुछ नेताओं का मानना है कि केवल ‘विकास’ के नाम पर वोट नहीं मिलते, इसलिए अचानक ही अखिलेश सरकार ने कैबिनेट निर्णय के बाद घोषणा  की है कि 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किया जाएगा. यह जातियां हैं - शिल्पकार, मझवार, गोंड, बेलदार, तुरैया की उपजाति कहार, कश्यप, केवट, बिंद, भर, राजभर, धीमर, बाथम, तुरहा, गोडिया, मांझी व मछुआ.

यह कुछ अजीब सी और दिलचस्प बात है कि ऐसा ही प्रस्ताव उत्तर प्रदेश की ओर से केंद्र को दो बार भेजा जा चुका है. वर्ष 2006 में मुख्यमंत्री रहने के दौरान मुलायम सिंह यादव ने भी ऐसा प्रस्ताव न केवल केंद्र को भेजा था बल्कि इस बारे में सूचना भी जारी कर दी थी. लेकिन वर्ष 2007 में इस प्रस्ताव को वापस ले लिया गया और बाद में बसपा सरकार ने अपने अंतिम दौर में 2011 में यही प्रस्ताव फिर से पारित करके केंद्र के पास भेज दिया. लेकिन केंद्र सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की.

अब एक बार फिर अखिलेश सरकार ने यही प्रस्ताव पारित किया है. संवैधानिक तौर पर इस तरह जातियों को किसी आरक्षण वर्ग में रखना या ऐसी व्यवस्था में बदलाव करना प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर है और इस बारे में केंद्र सरकार ही निर्णय ले सकती है. लेकिन यह जानते हुए भी, और चुनाव की घोषणा होने से कुछ दिन पहले ही ऐसा प्रस्ताव पास करना निश्चित तौर पर चुनाव को ध्यान में रखकर विकास की चर्चा के बीच जातिवाद से प्रभावित निर्णय है. लगता है कि उत्तर प्रदेश में फिलहाल जातिगत समीकरणों से ऊपर उठने का समय नहीं आया है.

इस निर्णय की तुरंत ही आलोचना भी शुरू हो गई और सभी दलों ने इसे चुनाव से प्रेरित बताया है. सामाजिक शास्त्र के विशेषज्ञ कहते हैं कि अनुसूचित जातियों के बीच भी इस निर्णय को पसंद नहीं किया जाएगा क्योंकि इसकी वजह से अभी तक इस अरक्षित वर्ग के लोगों को मिलने वाली सुविधाओं के लिए आवेदकों की संख्या बढ़ जाएगी. फिर ऐसा भी हो सकता है कि अन्य अत्यंत पिछड़े वर्ग के लोग भी अपनी जाति को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की मांग करने लगें.

जहां एक ओर समाज के कुछ वर्ग जातियों के बंधन से ऊपर उठने का समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर आरक्षण को केवल सरकारी सुविधाओं से जोड़कर देखने की वजह से आरक्षण के वर्गों को और बढ़ाने की कोशिश भी होती है. ऐसे तो समाज को जाति-विहीन बनाने की कोशिश कभी सफल नहीं होगी. चुनाव से पहले ऐसी घोषणा करने से लक्षित वर्ग को लुभाने की कोशिश तो होती ही है, ऐसे निर्णय के लागू न होने की दिशा में केंद्र सरकार को दोषी ठहराना भी आसान हो जाता है.

ऐसा नहीं है कि केवल एक ही पार्टी ऐसी कोशिशों में लगी है. एक तरफ कांग्रेस ने घोषित तौर पर पहले ब्राह्मण वर्ग को और फिर दलितों को आकर्षित करने की योजना बनाई. भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ी जातियों और दलितों को शुरू से ही अपने लक्ष्य पर रखा है, और बहुजन समाज पार्टी ने अपने परिचित सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को किनारे कर केवल दलित और मुस्लिम वर्ग को ही साधने पर जोर दिया हुआ है. जातियों को इस प्रकार आकर्षित करने के माहौल में अखिलेश यादव की सरकार के अपने को अलग दिखाने की कोशिश भी आखिरकार नाकाम ही हो गई लगती है.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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