मुश्किल दौर में कांग्रेस के प्रभुत्व को खत्म करने वाले इकलौते गैर कांग्रेसी पीएम थे वाजपेयी...

बीजेपी कुनबे के भीतर ही वाजपेयी अपनी विचारधारा के कारण उपेक्षा का शिकार थे. एक उभरते हुए हिंदू मसीहा के रूप में लालकृष्ण आडवाणी सभी की आंखों के नूर हो चले थे.

मुश्किल दौर में कांग्रेस के प्रभुत्व को खत्म करने वाले इकलौते गैर कांग्रेसी पीएम थे वाजपेयी...

अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद सबसे ज्यादा मन को मोह लेने वाले, कवि और एक करिश्माई वक्ता थे. इसमें कोई दो राय नहीं कि वाजपेयी भारत के सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ वक्ताओं में से एक थे. भाषा और वाक्य-विन्यास पर अटल बिहारी वाजपेयी की पकड़ विश्व स्तरीय थी. हाजिरजवाबी और व्यंग्य के मिश्रण के साथ कहे गए पूर्व प्रधानमंत्री के शब्दों का कोई जोड़ नहीं था. इसी गुण से वह अपने बड़े से बड़े और सख्त से सख्त आलोचक का भी दिल जीत लेते थे. या फिर वह अपने शब्दों और हाजिरजवाबी के जादू से आलोचकों की खिंचाई कर उन्हें हंसने पर मजबूर कर देते थे. मेरे दिल में अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा एक सज्जन राजनीतिज्ञ के रूप में रहेंगे. एक ऐसी शख्सियत जिसके रोम-रोम में भारतीयता बसी हुई थी. निश्चित तौर पर वह राजनीति के अजातशत्रु थे.

जब मैंने अपने पत्रकारिता करियर का आगाज किया, तो मुझे वाजपेयी के रायसीना रोड स्थित घर पर उनका इंटरव्यू लेने की जिम्मेदारी दी गई. मैं बहुत ही बेचैन था और घबराया हुआ था. सच कहूं तो इंटरव्यू से एक दिन पहले मेरे भीतर कंपकपाहट सी थी और मैं गुजरी पूरी रात करवटें बदलता रहा. हिंदुस्तान अखबार की लाइब्रेरी में जो कुछ भी उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में उपलब्ध था, मैंने उनके इंटरव्यू की तैयारी के लिए सब पढ़ने की कोशिश की. यह वह समय था, जब राम मंदिर से जुड़ा आंदोलन अपने चरम पर था. बाबरी मस्जिद अभी भी अपनी जगह सुरक्षित थी. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रेशखर की सरकार गिरने के बाद नरसिम्हा राव की अगुवाई में नई कांग्रेस सरकार का गठन हुआ था. वहीं, बीजेपी कुनबे के भीतर ही वाजपेयी अपनी विचारधारा के कारण उपेक्षा का शिकार थे. एक उभरते हुए हिंदू मसीहा के रूप में लालकृष्ण आडवाणी सभी की आंखों के नूर हो चले थे. बता दूं कि वर्तमान पीढ़ी को यह बिल्कुल भी अंदाजा नहीं है कि आडवाणी का उन दिनों कैसा रुतबा हुआ करता था. यह कहना गलत नहीं होगा कि उस दौर में आडवाणी पार्टी में एक विराट वृक्ष की तरह थे, तो अटल बिहारी वाजयेपी उनकी छाया भर थे.

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उनसे जुड़े अपने इंटरव्यू की कहानी पर लौटता हूं. जब मैं अटल बिहारी वाजयेपी के निवास पर पहुंचा, तो मुझे बैठक में बैठने के लिए कहा गया है. कुछ ही पलों में वाजयेपी बैठक में आ गए. मेरे मुंह से एक भी शब्द निकलने से पहले ही उन्होंने कहा, "अच्छा तो आप हैं". यह पूर्व प्रधानमंत्री के साथ मेरी पहली मुलाकात थी. उनके शब्द और आगे बढ़े. "बैठिए..बैठिए. पूछिए क्या पूछना है". जैसे ही इंटरव्यू शुरू हुआ, तो मुझे अहसास हो गया है कि वाजपेयी मेरे सवालों को लेकर असहज थे, लेकिन किसी भी पहलू से उन्होंने इस बात को प्रकट नहीं होने दिया. इसी बीच एक शख्स अलग-अलग मिठाइयों, समोसों और चाय से सुसज्जित ट्रे लेकर आया. तब वाजपेयी ने कुछ ऐसा कहा कि मैं उनका मुरीद होकर रह गया. कानों से होते हुए उनके शब्द मेरे दिल में हमेशा-हमेशा के लिए समा गए- "अरे आशुतोष जी, सवाल-जवाब तो होते रहेंगे, आप मिठाई खाइिए". ये शब्द एक अलग ही एहसास थे. ये शब्द अभी भी मुझे गाहे-बेगाहे कचोटते रहते हैं. और जब भी ये यादें मुझे कचोटती हैं, तो मैं सुन्न सा होकर रह जाता हूं. दरअसल ये महज शब्द ही नहीं थे. शब्दों से ऊपर यह मेरे जैसे अजनबी शख्स के साथ उनका यह प्यार और अपनापन ही था, जिसने मुझे वाजपेयी के प्रति भावों से भर दिया. इतना कहने के बाद उन्होंने खुद मिठाई खानी शुरू की. और फिर मुझे अपने प्यार और आत्मीयता से खाने को मजबूर कर दिया. विचारधारा के स्तर पर सभी तरह के मतभेदों के बावजूद मैं हमेशा अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक रहा.

बाद में अटल बिहारी वाजयेपी देश के प्रधानमंत्री बने. उन्होंने बतौर पीएम तीन बार शपथ ली. पहली बार वह साल 1996 में देश के प्रधानमंत्री बने. जब विश्वास मत में वोटिंग मे उनकी हार तय दिख रही थी, तो अटल बिहारी ने वोटिंग होने से पहले ही अपना इस्तीफा दे दिया. साल 1998 में अटल बिहारी संसदीय पटल पर सिर्फ एक वोट से हार गए. और इसके बाद तीसरे कार्यकाल में अटल बिहारी साल 1999 से लेकर 2004 तक देश के प्रधानमंत्री रहे. वास्तविक तौर पर वह भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे. उनसे पहले तक मोरारजी देसाई, चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, आईके गुजराल और एचडी देवेगौड़ा सहित तमाम पूर्व प्रधानमंत्री अपने करियर में किसी न किसी मोड़ पर कांग्रेस का हिस्सा रह चुके थे. इन तमाम प्रधानमंत्रियों से उलट अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने करियर की शुरुआत बौतर स्वयंसेवक के रूप में की थी. बाद में वह जन संघ में शामिल हो गए. अटल बिहारी वाजयेपी का प्रधानमंत्री बनना वास्तविक अर्थों में भारतीय राजनीति में एक विचारधारा की विदाई होने जैसा था. शुरुआत में प्रधानमंत्रियों ने कांग्रेसी व्यवस्था के खिलाफ बगावत की और ये लोग दूसरी पार्टियों में शामिल हो गए. लेकिन अंतर यह था कि इन लोगों के दूसरी पार्टी में जाने के बाद भी एक विचार के रूप में कांग्रेस के प्रभुत्व को चुनौती देने वाला कोई नहीं था.

वाजपेयी ने इस कांग्रेसी प्रभुत्व को बदल दिया, लेकिन कांग्रेस दीवार पर साफ तौर पर लिखी इस इबारत को नहीं पढ़ सकी. ऐसे समय कांग्रेस को अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कदम उठाना चाहिए था. वाजपेयी के इस उदीयकरण वाले दौर में कांग्रेस को पार्टी को नया आकार देने के लिए विचारधारा के स्तर पर नई दिशा पर काम करना था, लेकिन ऐसा नहीं ही हुआ. वास्तव में, कांग्रेस की यह भूल बहुत ही दिलचस्प थी. कांग्रेस ही वह पार्टी थी जिसने राज्य के नियंत्रण से लेकर बाजार की अर्थव्यस्था तक में क्रांतिकारी बदलाव लाते हुए एक बड़ा उदाहरण स्थापित किया. लेकिन कई दशक तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस इस दौर में खुद की स्थिति को लेकर पूरी तरह अनभिज्ञ रही. यह कांग्रेस की नाकामी ही थी, जिसके कारण आरएसएस/बीजेपी का उदय हुआ. और अगर ऐसा हुआ, तो इसके लिए श्रेय वाजपेयी को भी दिया जाना चाहिए. इस दौर में अगर आडवाणी देश की विचारधारा को एक नया रूप-रंग प्रदान कर रहे थे, तो वाजपेयी इसे जनता के बीच स्वीकार्य बना रहे थे. पूरे देश ने वाजपेयी को एक ऐसे उदारवादी शख्स के रूप में ग्रहण किया, जो किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचा सकता था. एक ऐसी शख्सियत जो सभी की पसंदीदा थी. और जो सभी के दिलों में घर कर गई. वास्तव में भारतीय राजनीति में वाजयेपी यह एक अलग ही दौर था. और वह इस दौर के सबसे बेहतरीन राजनेता थे. एक ऐसा दौर जहां अच्छे स्वभाव वाली राजनीति मानो अपने आप में गुण था. ऐसा समय, जब मतभेदों के बावजूद एक दूसरे की आवाज को सुना जाता था. एक ऐसा समय, जब अलग-अलग आवाजें बुलंद करने वाले लोग या नेता एक टेबल पर एक साथ खाते थे, हंसी-मजाक करते थे और इसके बाद एक-दूसरे की आलचोना करने के लिए अगले घंटे के लिए फिर से सदन में लौट आते थे.

उससे उलट एक आज का दौर है, जहां बीजेपी का हिस्सा होना एक प्रचलन हो सकता है. इस समय सीटों के मामले में बीजेपी अपनी अपनी सर्वकालिक सबसे ऊंची उड़ान पर सवार है. लेकिन एक वाजयेपी का शुरुआती दौर भी था, जो बहुत ही मुश्किल था. यह वह समय था, जब आरएसएस अपने ऊपर गांधी की हत्या के आरोपों से लगे धब्बे से गुजर रही थी, साथ ही एक ऐसा समय जब साम्यवाद एक नए विश्व विजेता के रूप में सिर ऊंचा उठा रहा था. मानो वाजपेयी के लिए मुश्किलें यहीं तक ही सीमित नहीं थीं. उस दौर में पंडित नेहरू हिंदुस्तानियों के सिए सबसे बड़े सपनों के सौदागर हुआ करते थे! वहीं, कांग्रेस का विरोध करने के लिए विपक्ष के पास राम मनोहर लोहिया के रूप में एक लाडला नेता मौजूद था. ऐसे में आप समझ सकते हैं कि संसद में खड़े होना और हिंदुत्व की बात करना कितना ज्यादा मुश्किल था. लेकिन यह अटल जी का रेशमी स्पर्श ही था, जिसने उन्हें तमाम दिग्गज नेताओं और जनता के बीच स्वीकार्य बना दिया. और यह वाजपेयी ही थे, जिनके जरिए आरएसएस अपने पैर आगे की ओर पसार सकी. आज के समय में यह कहना आसान है कि वाजपेयी में विचारधारा को लेकर स्पष्टता नहीं थी. लोग यह कह सकते हैं कि विचारधारा के लिहाज से वाजपेयी दीन दयाल उपाध्याय के संपूर्ण मानवतावाद और अपने खुद के गांधीवादी समाजवाद दर्शन के बीच विचरण करते रहे, लेकिन इसके बावजूद यह वाजपेयी और उनकी व्यावहारिक राजनीतिक समझ ही थी, जिसने बीजेपी और आरएसएस को सम्मान दिलाया.

मैं इस विचार का कतई भी समर्थन नहीं करूंगा कि वह भ्रमित या बीजेपी/आरएसएस के बीच असहज थे. वह हिंदुत्व के दर्शनशास्त्र के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान थे. अपनी विचारधारा को आगे ले जाने और इसे सभी लोगों के लिए इस स्वीकार्य बनाने के लिए वाजपेयी के अपनी ही पार्टी के साथियों और आरएसएस में अपने मार्गदर्शकों के साथ मतभेद थे. विचारधारा से जुड़ी पार्टियों में ऐसे मतभेद दिनचर्या जैसी बात है. इसके अलावा मैं देश के कुछ बुद्धिजीवियों की इस बात से भी समहत नहीं हूं कि वाजपेयी धर्मनिरपेक्ष और नेहरूवादी थे. उनके बारे में यह भी कहा जाता था कि अटल जी एक गलत पार्टी में थे. मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानता. अटल जी आरएसएस से जुड़े शख्स थे. आरएसएस की विचारधारा में ही उनका जन्म हुआ और इसी में उनकी 'परवरिश' हुई. हिंदुत्व के मूल को लेकर उन्हें कोई समस्या नहीं थी. अटल-जी की कोमलता आरएसएस/बीजेपी के लिए ढाल की तरह थी.

अब जबकि वाजयेपी दुनिया से विदा हो चुके हैं, तो मुझे उनसे कभी भी यह सवाल करने का मौका नहीं मिलेगा कि जब बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था, तब उन्होंने पार्टी से किनारा क्यों नहीं किया? मैं उनसे अब यह भी सवाल नहीं कर पाऊंगा कि गुजरात दंगों के तुरंत बाद उन्होंने मोदी को पार्टी से बाहर क्यों नहीं कर दिया? मैं इन सवालों के जवाब जानता हूं, लेकिन इन सवालों के जवाब मैं अटल-जी के मुंह से सुनना पसंद करता. साथ ही, मैं वाजपेयी से साल 2014 से लेकर अब तक मोदी सरकार के बारे में उनका आंकलन भी सुनना पसंद करता. हम सभी जानते हैं कि आडवाणी मोदी राज में असहज हैं. लेकिन इस बाबत वाजपेयी के विचार रहस्यमयी ही बनकर रहेंगे. मैं केवल इतना कह सकता हूं कि मेरे जैसा शख्स जेएनयू में पला-बढ़ा हुआ है. इस संस्थान को हिंदुत्व के समकालीन 'भगवानों' की तरफ से देशद्रोहियों का अड्डा कहकर अपमानित किया गया है. लेकिन ऐसे संस्थान से निकलने के बावजूद मेरे मन में आरएसएस की विचारधारा में जन्मे और परवरिश हासिल करने से लेकर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने वाले शख्स वाजपेयी प्रति असीम श्रद्धा और सम्मान है. वजह यह है कि मेरी शिक्षा-दीक्षा लोकतंत्र में हुई है. और मैं पूर्ण रूप से उस सच्ची लोकतांत्रिक महान सभ्यता को अपने साथ लेकर चलता हूं, जिसे भारत कहा जाता है.


आशुतोष जनवरी, 2014 में आम आदमी पार्टी के सदस्य बने थे...

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