वेद प्रकाश शर्मा : भाषा का उत्कर्ष दिखाने वाला चश्मा उतारकर भी देखें इन्हें

वेद प्रकाश शर्मा : भाषा का उत्कर्ष दिखाने वाला चश्मा उतारकर भी देखें इन्हें

ये वो दिन थे जब ‘नंदन’, ‘चंपक’ और ‘नन्हें सम्राट’ पढ़ने में उम्र विद्रोह करने लगा था. ‘सुमन सौरभ’ और ‘विज्ञान प्रगति’ के दिन आ गए थे जिसे पढ़ने के बाद लगता था कि कुछ तो बड़े होने लगे हैं. ऐसे ही दिनों में मुझे गांव में विमल भैया की आलमारी मिली. इससे होकर एक ऐसी दुनिया की खिड़की खुली जहां रोमांच था, दिमागी कसरत थी और उत्सुकता थी. ऊपर कोने से मोड़े गए पन्ने जो बुकमार्क का काम करते थे वापस बुलाते रहते थे कि यहां से आगे बढ़कर क्लाइमेक्स तक पहुंचो. ये आलमारी बड़की मां के कमरे में थी, जहां कोई यह कहने नहीं आता था कि ‘इसको पढ़ने की तुम्हारी उम्र नहीं’. आलमारी की तरतीब जब तक न बिगड़े, भैया के भी बिगड़ने की संभावना नहीं थी. एक दिन यहीं मिले वेद प्रकाश शर्मा और ‘जिगर का टुकड़ा’ एक मोटा सा खुरदरे पन्ने वाला उपन्यास. बाद में पता चला था कि इसे लुगदी उपन्यास कहते हैं यानि पल्प फिक्शन. इसके बाद ‘भस्मासुर’, ‘कुबड़ा’, ‘दहेज में रिवाल्वर’, ‘जादू भरा जाल’, ‘जुर्म की मां’  जैसे बहुत सारे उपन्यास पढ़ गया मैं. ‘लल्लू’ तो बाद मे पढ़ी थी, फिल्म पहले देख ली थी ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’, जिसमें अक्षय कुमार थे. उन्होंने तुलसी कॉमिक्स सीरीज भी निकाली थी जिसका किरदार 'जम्बू' लोकप्रिय था.

‘वर्दी वाला गुंडा’ की धूम मची लेकिन उस दौर में यह हाथ ही नहीं लगी. धीरे-धीरे वक्त के साथ ये सब छूट जाता है. आप कॉमिक्स से शुरू करके पल्प पर आते हैं. उसमें भी वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक  के साथ दिनेश ठाकुर, रीमा भारती जैसों को पढ़ते हैं और रानू, गुलशन नन्दा, कुशवाहा कान्त को पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं. इसी बीच में आपको कोई प्रेमचन्द थमाता है. ‘मैला आंचल’, ‘शेखर’ इत्यादि के साथ विश्व साहित्य के शाहकारों से गुजरते हैं तब आप ‘गुनाहों के देवता’ को भी भूलने लगते हैं. आप एक अलग तरह के पाठक में बदलते हैं. अरसे बाद एक दिन ब्लाक बस्टर ‘वर्दी वाला गुंडा’ मिलता है तो इसे पढ़ते हुए वो दिलचस्पी वैसा रोंमांच नहीं होता क्योंकि पढ़ने की रुचि एक लंबे फासले को पार कर चुकी है अब नीचे उतरना मुश्किल है.
 
यह सब तब याद आया जब अचानक खबर मिली कि वेद प्रकाश शर्मा नहीं रहे. उम्र कोई अधिक नहीं थी, बासठ साल. निधन के बाद लोगों को याद आया कि आमिर खान उनके घर गए थे, उपन्यास करोड़ों में बिके थे. उनको लेकर पॉपुलर बनाम गंभीर की बहस भी जोर पकड़ चुकी है. लेकिन सवाल है कि क्या वेद प्रकाश शर्मा कभी चाहते होंगे कि उन पर आलोचनात्मक बहस चले, उनके पल्प को थियराइज किया जाए? या कभी वे अपनी सीमा या विधा से बाहर कुछ साहित्यिक लिखते तो उनके ऑर्गेनिक पाठक उनको पढ़ते?

बहरहाल, वेद प्रकाश शर्मा को उस चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए जिसमें साहित्यिक भाषा का उत्कर्ष दिखता है. जहां भाव और कथ्य भाषा में प्रत्यक्ष से अधिक छुपे हुए और कालातीत होते हैं. जो अपने समय और भूगोल के साथ-साथ समय और भूगोल के पार भी पाठकों को छूता है, उनमें कुछ जोड़ता और तोड़ता है. वेद प्रकाश शर्मा के लेखन को उनकी ही विधा में सक्रिय लेखकों के बीच रखकर देखने से ही उनके महत्व को समझा जा सकता है. तमाम दबावों के बाद भी उनके लेखन में हिन्दी पल्प की निरंतर गिरती हुई सनसनी या उत्तेजना नहीं थी. उनके उपन्यासों में दिमाग का वह खेल था जहां पाठक खुद अपना पाठ रचने लगता है. एक सामान्य पाठक ऐसे ही पाठ की इच्छा करता है जिससे वह अपने को जोड़कर देख सके. जो पाठक को उसके अपने यथार्थ से काटकर एक ऐसी दुनिया में ले जाता था जहां वह अपने को जीतता हुआ देख सके. उनके उपन्यासों में सामयिकता थी वैसी ही जैसी हिंदी की फार्मूला फिल्मों में होती है और काल्पनिकता में डीटेलिंग की भी जिसमें चूक कम ही होती थी. सामाजिक मुद्दे भी इन कथाओं में दिख जाते थे. उनके गढ़े चरित्र भी विश्वसनीय थे. लोकप्रिय विजय-विकास सीरिज का विजय जितना ही शांत विकास उतना ही उग्र. इनके आगे विश्व के सारे जासूस पानी भरते थे. एक पात्र केशव पंडित इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके नाम से ही उपन्यास की फ़्रैंचाइजी बन गई. ‘वर्दी वाला गुंडा’ उनकी लोकप्रियता का चरम था जिसकी बिक्री के आंकड़ों के साथ उनके आलीशान घर की तस्वीर लगाई जाती थी. यानी हिंदी का लेखक किताब की बिक्री से एक घर खरीद सकता है, यह सोचना भी प्रेरक था.
 
उनके देहांत के बाद एक बार फिर उनको खारिज करने की और उचित जगह दिलाने की बहस शुरू हो गई है. मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि ये दोनों तरह के लोग उनके पाठक नहीं हैं. खारिज करने वाले तो उनको पढ़ते ही नहीं हैं और उनके लेखन को साहित्य को दर्जा देने की वकालत करने वाले उनकी आड़ में अपनी दुकान चमका रहे हैं.  वेद प्रकाश शर्मा का असली पाठक वर्ग इस विमर्श के दायरे से बाहर है. वह उनकी एक किताब पढ़ चुकने के बाद उसी को स्टॉल पर वापस कर आधे दाम में दूसरी उठा लेता है. यह पाठक वर्ग भी सिमटता जा रहा है क्योंकि उसके हाथ में मोबाइल आ गया है और उसमें एक ऐसा सिम है जिसमें बेपनाह डेटा है जिससे वह देखता है. वह पढ़ने की आदत से देखने की आदत पर शिफ़्ट कर गया है, कर रहा है. रेलवे स्टेशन पर इन  स्टॉलों पर कभी पूछिए इन किताबों की बिक्री की हालत.

पाठक समुदाय कोई समजातीय यानी होमोजेनस समुदाय नहीं है और इसे होना भी नहीं चाहिए. इस समुदाय में जितनी अधिक विविधता होगी, भाषा उतनी ही समृद्ध होगी. किसी भाषा का महत्व इससे भी पता चलता है कि उसमें कितनी विधागत और सामग्री जन्य विविधता है. वेद प्रकाश शर्मा इसी विविधता के एक सिरे के अग्रणी स्तंभ थे और उन्हें इसी रूप में याद किया जाना चाहिए. उनका जाना इस विविधता की क्षति है. कोई जरूरी नहीं है कि जाने वाले को किसी महानता के लिए स्वीकार या खारिज कर याद किया जाए. उसकी भूमिका का ईमानदारी से स्वीकार भी उनको श्रद्धांजलि हो सकती है. अपने पाठकों के प्रति ईमानदारी ने वेद प्रकाश शर्मा जैसे लेखक को लोकप्रिय बनाया और यही ईमानदारी गंभीर साहित्य रचने का दावा करने वालों में नहीं मिलती.


(अमितेश कुमार एनडीटीवी में रिसर्चर हैं)

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