डॉ विजय अग्रवाल : सईद जाफरी की जिंदगी से सुखी जीवन के कुछ मंत्र

डॉ विजय अग्रवाल : सईद जाफरी की जिंदगी से सुखी जीवन के कुछ मंत्र

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर...

''मैं उस महिला की तस्वीर देखकर दंग रह गया... वह मेहरुनिमा ही थी... उसने दूसरी शादी कर ली थी और नाम बदल लिया था... अब अमेरिका में थी... मैं उससे मिलने पहुंचा तो उसने मना कर दिया... बच्चे सिर्फ एक बार बात करने को तैयार हुए... मुझसे कहा, 'नए पिता जानते हैं कि सच्चा प्यार क्या होता है... उन्होंने मां को बदला नहीं... जैसी हैं, वैसा स्वीकार कर लिया... तब मुझे समझ आया कि खुलेपन की वजह से उनकी शादी टिक पाई...''
 
ये चंद पंक्तियां फिल्म 'गांधी' में सरदार पटेल की भूमिका निभाने वाले सईद जाफरी की डायरी की हैं, जिनमें अपनी पत्नी से अलग हो जाने की उनकी गलती का जीवनभर का दर्द बयां हो रहा है... 86 साल की एक ठीक-ठाक, लम्बी, किन्तु तन्हा उम्र जीने के बाद हाल ही में वह इस दुनिया से रुख्सत हुए हैं।
 
अपनी शादीशुदा जिन्दगी में पति-पत्नी; दोनों एक-दूसरे से अपने प्रति समर्पण की चाहत रखते हैं। यह चाहत तो गलत नहीं है, लेकिन इस 'चाहत' का जो अर्थ लगाया जाता है, वह गलत जरूर है। क्या इसका मतलब अपने 'वजूद' का समर्पण, अपनी 'स्वतंत्रता' का समर्पण नहीं है...? यदि यह यही है, तो फिर सवाल उठता है कि क्या यह संभव है...? कोई जीवित रहते हुए कैसे खुद के 'वजूद' से खुद को अलग कर सकता है...? और यदि कर भी सकता है, तो फिर किस सीमा तक...? कभी-कभी तो सोचने में यह बात भी आ जाती है कि क्या यह जरूरी है भी...?
 
पति-पत्नि के जीवन के केंद्र में दो बातें सबसे मुख्य होती हैं। पहली, एक-दूसरे पर निर्भरता तथा दूसरी, प्रेम। पहली भौतिक जरूरत है, तो दूसरी भावनात्मक। क्या ये दोनों जरूरतें समर्पण के बिना पूरी नहीं हो सकतीं...? समर्पण क्यों, स्वीकार्य क्यों नहीं...? दरअसल 'समर्पण' हमारे 'ईगो' की मांग होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा अपने आप में इतनी विशाल होती है कि उसे सब कुछ स्वीकार होता है - अच्छा-बुरा, छोटा-बड़ा, सब कुछ। बल्कि सच तो यह है कि वह ये सब भेद जानती ही नहीं, उसके लिए तो सब कुछ अच्छा ही अच्छा होता है।
 
भेद करने का काम बुद्धि करती है, यही उसकी खुराक है, इसलिए जैसे ही किसी से हमारे संबंध बनते हैं, कुछ ही समय बाद हम उस संबंध की समीक्षा करने लगते हैं। समझ लीजिए कि बस, अब दरवाजों में घुन लगने की शुरुआत हो गई है। अब आप इसे नष्ट होने से बचा नहीं पाएंगे, क्योंकि समीक्षा की इस कसौटी पर कोई भी सोना खरा उतर ही नहीं सकता। अब संबंध या तो खत्म हो जाएंगे, या शिथिल पड़ जाएंगे। उसका टटकापन, उसकी गर्मी, उसकी सुगंध, उसकी नर्मी सब कुछ कुम्हला जाएगी। अब जिन्दगी जी नहीं जा रही है, काटी जा रही है। यह एक मजबूरी है, खुद की भी और उसकी भी।
 
इसके अगले छोर पर रहता है - स्वीकार करना। जो जैसा है, उसे उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार करना, न कि खण्ड-खण्ड में, टुकड़े-टुकड़े में। यदि तुम्हारा यह मेरा है, तो तुम्हारा वह भी मेरा है। आत्मा की इस आवाज की गूंज में बुद्धि की तूती बोलेगी ही नहीं। उसे जब सोचने का सूत्र ही नहीं मिलेगा, तो फिर वह समीक्षा की बुनावट को अंजाम दे ही कैसे पाएगा। ऐसा उदात्त स्वीकार्य पहले तो खुद को अपने आप ही समर्पित कर देता है। फिर सामने वाले को अपने-आप ही समर्पण करने को मजबूर कर देता है। यहां समर्पण की चाहत नहीं होती। यह तो स्वीकार्यता का स्वाभाविक परिणाम होता है, और यह समर्पण एक ऐसा विलक्षण समर्पण होता है, जिसमें दोनों की स्वतंत्रता कायम रहती है, दोनों का वजूद अखण्ड रहता है। सईद जाफरी साहब से यहीं थोड़ी-सी चूक हो गई, जो आगे चलकर उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी चूक सिद्ध हुई।
 
डॉ. विजय अग्रवाल जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं...
 
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