विक्रम जोशी को बदमाशों ने नहीं, सड़े हुए सिस्टम ने मारा; नजीर स्थापित कीजिए मुख्यमंत्री जी

विक्रम जोशी को चंद बदमाशों ने नहीं, बल्कि एक सड़े हुए सिस्टम ने मारा है. ऐसा सिस्टम, जो विकास दुबे जैसे अपराधी पैदा करता है, जो पहले विभाग के संरक्षण में पलते है और फिर उसी के लिए तालिबान बन जाते हैं.

विक्रम जोशी को बदमाशों ने नहीं, सड़े हुए सिस्टम ने मारा; नजीर स्थापित कीजिए मुख्यमंत्री जी

आखिर पुलिस विक्रम जोशी के मरने के बाद जागी नहीं, जगाई गई. और फिर वही पुराना रटा-रटाया लीपापोती का बहुत ही घटिया और बासी हो चुका फॉर्मूला, चौकी इंचार्ज, एसओ या सीओ का निलंबन, परिवार को कुछ आर्थिक सहायता और परिवार के एक सदस्य को नौकरी. लीपापोती का एक बेहतरीन तरीका. क्या इससे परिवार के नुकसान की भरपायी हो जाएगी? क्या इससे उन दस और छह साल की बेटियों के आगे से ताउम्र उनके पिता की हत्या की तस्वीरें मिट पाएंगी? क्या ये बेटियां इस घटना से उबर पाएंगी? पुलिस की क्या छवि बनेगी इन बेटियों की नजरों में?

और सबसे बड़ा सवाल क्या इतना कर देने से करोड़ों की जनसंख्या वाले प्रदेश में खासकर पत्रकारों के बीच यह भरोसा पैदा होगा कि ऐसी घटना दोबारा नहीं होगी? वास्तव में यहां कोई गारंटी नहीं ही है. फिर से कभी भी कुछ भी हो सकता है. कौन जानता है कि आगे भी किसी पत्रकार को गोली नसीब हो और ऐसी घटनाओं पर त्वरित कार्रवाई को लेकर "पुलिस चरित्र" में बदलाव दिखेगा, यह भी सपने जैसा ही दिखाई देता है. दरअसल विक्रम जोशी को चंद बदमाशों ने नहीं, बल्कि एक सड़े हुए सिस्टम ने मारा है. ऐसा सिस्टम, जो विकास दुबे जैसे अपराधी पैदा करता है, जो पहले विभाग के संरक्षण में पलते है और फिर उसी के लिए तालिबान बन जाते हैं.

इस सिस्टम की सड़ांध बहुत ही भयावह है. हर सरकार ने इस सड़े हुए सिस्टम में अपना-अपना योगदान दिया है. पत्रकारों के साथ हालिया कुछ समय में हुए बर्ताव ने इस सिस्टम में खाद-पानी डाला है. यह सिस्टम पत्रकारों से लेकर आम आदमी तक का खून चूस रहा है. कभी बेटियों के सामने गोली मारकर, तो कभी किसी गल्ला व्यापारी की हत्या कर, तो कभी किसी रूप में. और यह बात किसी से छुपी नहीं है कि कहीं न कहीं तंत्र और व्यवस्था कितनी और किस रूप में ऐसे लोगों की मदद करती है. एक चेन स्नेचर से लेकर दुर्दांत अपराधी तक. विकास दुबे मामलें में पुलिस वालों की भूमिका का उदाहण सामने है. दो सौ पुलिस वालों के फोन सर्विलांस पर थे. क्या वास्तव में पुलिस शर्मसार महसूस कर रही है?

क्या एसओ/सीओ आदि को निलंबन, आर्थिक मदद/नौकरी देकर लीपापोती के अलावा कोई ऐसा रचनात्मक तरीका नहीं है, जिससे जनता का इस तरह खून न चुसे. या फिर ब्यूरोक्रेसी ऐसा नहीं चाहती या डीजीपी ऐसा नहीं चाहते? या ये तमाम लोग यही चाहते हैं कि सड़ी हुई व्यवस्था बरकरार रहे. हो सकता है ये बदलाव चाहते हों, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति नदारद हो. यह तो कहीं से छिपा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट कितनी बार पुलिस सुधारों की बात कह चुका है. कौन रोक रहा है, हर कोई जानता है.

सभी ने देखा सीएए कानून में योगी जी ने कैसे सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों से इसकी भरपाई की? क्या कोई ऐसा तरीका नहीं इजाद हो सकता कि इन गोली चलाने वालों की दस से पंद्रह दिन के भीतर संपत्ति जब्त कर रकम मृतक के परिवार या बच्चों के नाम कर दी जाए? क्या इस तरह के रचनात्मक रास्ते तैयार नहीं किए जा सकते? क्या "ठोको नीति" के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता?

पिछली सरकारों के सताए प्रदेश ने आपकी पार्टी को इसी उम्मीदों से सत्ता थमायी थी, लेकिन हालात पिछली सरकारों जैसे ही हैं. या कह सकते हैं और बदतर हुए हैं. पुलिस कार्यप्रणाली ने जनता में भरोसे को और कम किया है. ठोको नीति के बावजूद सड़े हुए सिस्टम की दुर्गंध कहीं तेज हो गई है. गांव-गांव, शहर-शहर लोगों के पास हथियारों/अवैध हथियारों की संख्या बढ़ती जा रही है. क्यों और कैसे लोगों को हथियार जारी हो जाते हैं या ये अवैध हथियार हासिल कर लेते हैं? वास्तव में राम-राज्य इस तरह से नहीं आएगा. आपको भरोसा देना होगा पत्रकारों से लेकर आम जनता को कि आप रटे-रटाए, बासी हो चुके और "घटिया फॉर्मूले" से हटकर कोई अलग ही रेखा खींचेंगे. एक अलग नजीर स्थापित करेंगे. आपके पास पूर्ण बहुमत की सरकार है. आगे आपको यह सड़ा सिस्टम और मौके देगा. क्या आप नजीर स्थापित करेंगे?

मनीष शर्मा Khabar.Ndtv.com में बतौर डिप्टी न्यूज एडिटर कार्यरत हैं

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