'सब्रहीन स्वामी' और पीएम नरेंद्र मोदी की राजनीतिक चतुराई...

'सब्रहीन स्वामी' और पीएम नरेंद्र मोदी की राजनीतिक चतुराई...

पीएम नरेंद्र मोदी के साथ सुब्रह्मण्यम स्वामी (फाइल फोटो)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखिरकार रिज़र्व बैंक के गवर्नर के मामले में अपनी चुप्पी तोड़ी। उन्होंने सुब्रह्मण्यम स्वामी को एक तरह से चेतावनी दी कि वह अपनी हद में रहें। साथ में उन्होंने रघुराम राजन को देशभक्त होने का सर्टिफिकेट भी जारी कर दिया, जिससे आगे वह स्वामी जैसे लोगों के सामने उसे पेश कर सकें। हालांकि राजन को इस सर्टिफिकेट की ज़रूरत थी नहीं, फिर भी क्या बुरा है, जो विरोधियों की ओर से सर्टिफिकेट आ गया।

अब मोदी समर्थक यह तर्क दे सकते हैं कि सरकार राजन के ख़िलाफ कभी नहीं थी। लेकिन दो और दो चार करने वाले आम लोग जानते हैं कि किस तरह प्रधानमंत्री ने इस मामले में चुप्पी साधे रखी। किस तरह वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी सुब्रह्मण्यम स्वामी के खुले हमलों के ख़िलाफ ऐसा कुछ नहीं कहा, जिससे एक पद की गरिमा को भी बचाए रखा जा सके। चुप्पी तब टूटी, जब हमले अरविंद सुब्रमण्यन के बहाने सीधे अरुण जेटली पर होने लगे।

यह नया नहीं है कि सरकार को पूर्ववर्ती सरकार की ओर से नियुक्त गवर्नर पसंद नहीं आ रहा है। हमारा राजनीतिक ढांचा ही इस तरह से बन गया है कि एक सरकार को पूर्ववर्ती सरकार की नियुक्तियां पसंद नहीं आतीं। इसके कुछ अपवाद होंगे, लेकिन ज़्यादातर मामलों में गुण-दोष दरकिनार कर दिए जाते हैं। राजनीतिक निष्ठा की महत्ता बड़ी हो जाती है। वैसे कोई राजन से जाकर पूछे, तो वह शायद यह न कह पाएं कि उनकी कांग्रेस के प्रति कोई निष्ठा है। वह पेशेवर अर्थशास्त्री हैं और ठीक उसी तरह से काम कर रहे थे, जिस तरह उन्हें करना चाहिए। हो सकता है, सरकार और उनकी सोच में अंतर हो, लेकिन यह तो पहले भी होता आया है। वह पहले गवर्नर नहीं हैं, जो सरकार से अलग सोच रखते हैं। न मोदी-जेटली पहले प्रधानमंत्री-वित्तमंत्री हैं, जो रिज़र्व बैंक से कुछ और अपेक्षाएं रखते हों। इसे तो मोदी सरकार पर लगातार पड़ रहे दबाव के रूप में देखा जाना चाहिए कि उन्हें जनता से चुनाव में किए 'अच्छे दिन' के वादों को पूरा करना है।

दूसरा यह भी कि पीएम मोदी अब चुप्पी तोड़कर राजनीतिक चतुराई का परिचय देने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि अब सांप तो मर चुका, किसी तरह लाठी को टूटने से बचा लिया जाए। अगर राजन पर उन्हें इतना भरोसा था, तो वह यह चुप्पी तब तोड़ते, जब सुब्रह्मण्यम स्वामी लगातार राजन के ख़िलाफ बयान दे रहे थे। चुप्पी तब टूटी, जब स्वामी की तोप उनके विश्वस्त अरुण जेटली की ओर मुड़ने लगी। यह सर्वविदित है कि पीएम के पास चुनिंदा ही लोग हैं, जिन पर वह भरोसा करते हैं। शेष तो उनके साथ इसलिए दिखते हैं, क्योंकि एक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना है। यहां तक कि स्वामी भी राज्यसभा में क्यों आए हैं, इसका एक अलग राजनीतिक समीकरण है।

जहां तक सुब्रह्मण्यम स्वामी का सवाल है, तो जो कुछ वह कर रहे हैं, वह नया नहीं है। '70-80 के दशक में उनके साथ काम कर चुके उनके राजनीतिक साथी उन्हें 'सब्रहीन स्वामी' के नाम से ही पुकारते रहे हैं। वह हमेशा से ऐसे ही रहे हैं। वह ऐसे बौद्धिक हैं, जिन्हें अपने अलावा किसी और की बौद्धिकता हमेशा दोयम दर्जे की लगती है। वह सबकी देशभक्ति को अपने चश्मे से देखते हैं।

रविवार को अपने कॉलम में स्वामीनाथन अंकलेसरैया अय्यर ने ठीक तर्क प्रस्तुत किए हैं कि अगर किसी और देश का नागरिक होना, न होना ही देशभक्ति का पैमाना बन जाएगा तो इस बाज़ार-आधारित अर्थव्यवस्था में मुश्किल हो जाएगी। उन्होंने ठीक ही कहा है कि इससे बहुत-सी भारतीय कंपनियों के प्रमुखों पर अंगुली उठ सकती है। अगर सुब्रह्मण्यम स्वामी के नज़रिये से देखें तो पीएम मोदी का अमेरिका और ब्रिटेन में जाकर भारतीयों को लुभाना भी ग़लत दिखेगा, क्योंकि वहां रह रहे भारतीयों में से बहुत से अब भारत के नागरिक नहीं हैं। नागरिकता से देशभक्ति को इस वैश्विकता के माहौल में नहीं तौला जा सकता। वह रोज़गार का दबाव भी हो सकता है।

रोज़गार के दबाव में सभी हैं। चाहे वह सुब्रह्मण्यम स्वामी हों, अरुण जेटली हों, या ख़ुद प्रधानमंत्री। यह बात और है कि हमारे राजनेता अपने काम को देशसेवा या समाजसेवा का नाम देते हैं, लेकिन आख़िरकार उनके पास एक ज़िम्मेदारी तो है, जिसे अगर वे ठीक से नहीं निभाएंगे तो उनसे यह ज़िम्मेदारी छीन ली जाएगी। जनता ने यह काम दिया है और जनता ही उन्हें बर्खास्त कर देगी।

मोहम्म्द अली जिन्ना ने एक बार कहा था कि वकील सोचता नहीं है, वह अपनी 'ब्रीफ' के आधार पर काम करता है। सुब्रह्मण्यम स्वामी पेशेवर वकील तो नहीं हैं, लेकिन अपने मामले-मुक़दमे वह खुद लड़ते रहे हैं, इसलिए इसे उनके लिए सही मानना चाहिए। हो सकता है, उनके पास वही 'ब्रीफ' हो, जो वह कर रहे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वकील नहीं हैं, राजनेता हैं। उन्हें तो विचारों के ज़रिये ही देश को चलाना होगा। यह और बात है कि वह भी उसी जगह से आए हैं, जहां से स्वामी को 'ब्रीफ' मिल रही होगी।

विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं...

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