आम बजट 2017 के लुभावनेपन को डसता आर्थिक सर्वेक्षण का यथार्थ : 10 अहम सवाल

आम बजट 2017 के लुभावनेपन को डसता आर्थिक सर्वेक्षण का यथार्थ : 10 अहम सवाल

आर्थिक सर्वेक्षण में राज्य सरकारों द्वारा लोकलुभावन योजनाओं की होड़ की आलोचना करते हुए कहा गया कि भ्रष्टाचार और लालफीताशाही की वजह से गरीब जनता को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता. इस बार के बजट को सरकार ने 10 हिस्सों में बांटा है, जिसमें क्रियान्वयन के अहम सवालों का जवाब फिर नदारद है...

किसानों की पांच साल में दोगुनी आमदनी : शहर केंद्रित विकास एवं सरकारी योजनाओं की सब्सिडी से खस्ताहाल ग्रामीण जनता पलायन के लिए विवश है. आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2001 से 2011 के दौरान 10 वर्षों में आठ करोड़ मजदूर गांवों से पलायन कर शहर आ गए. नोटबंदी ने उत्पादन, खपत और मुद्रा प्रणाली की चूलें हिला दीं, फिर किसानों की आमदनी पांच साल में दोगुनी करने का ख्वाब क्यों दिखाया जा रहा है...?

ग्रामीण विकास में इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास : सभी गांवों को 1 मई, 2018 तक विद्युतीकृत करने का लक्ष्य इस बजट में भी दोहराया गया है. मनरेगा के लिए पिछले बजट में 38,500 करोड़ का प्रावधान था, जबकि वास्तविक खर्च 58,000 करोड़ रुपये हुआ. नोटबंदी के बाद गांवों में बड़े पैमाने पर कुटीर उद्योग तथा असंगठित क्षेत्र में रोजगार खत्म हुए. इस कड़वे यथार्थ के बावजूद बजट में मनरेगा हेतु सिर्फ 48,000 करोड़ का आवंटन किया गया है, जो ग्रामीण भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए नाकाफी है.

युवाओं को रोजगार : हमारी अर्थव्यवस्था सिर्फ खपत के इंजन पर चल रही हैं, जिसमें नई नौकरियां पैदा नहीं हो रहीं. देश में एक तिहाई लोग बेरोजगार हैं, जबकि वर्ष 2015 में सिर्फ 1.35 लाख नौकरियों का ही सृजन हुआ. पिछले बजट में वर्ष 2019 तक सभी सड़कों को बनाने का वादा यदि पूरा हो जाए, तो युवाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार मिल सकता है. विश्वबैंक की रिपोर्ट के अनुसार ऑटोमेशन की बदौलत भारत में 69 फीसदी नौकरियों पर तलवार लटक रही है, फिर 'टेक इंडिया' थीम का बजट देश के युवाओं को पर्याप्त रोजगार कैसे देगा...?

गरीबों के लिए मकान : नरेंद्र मोदी सरकार की दो दर्जन से अधिक योजनाएं रोजगार और आमदनी बढ़ाने में विफल रहीं है. विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के अनुसार सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में 91 करोड़ (73 फीसदी) लोग गरीबी के चंगुल में हैं, जिनमें 23 करोड़ लोग घोर-गरीब हैं. सरकारी योजनाएं गरीबों को दो वक्त का खाना मयस्सर कराने में विफल रही हैं, फिर एक करोड़ मकानों का सपना कैसे साकार होगा...?

सामाजिक सुरक्षा बढ़ाना : केंद्रीय बजट का 88 फीसदी धन राजस्व व्यय, यानी वेतन, भत्ते, सब्सिडी एवं ब्याज आदि पर खर्च होता है और बाकी 12 फीसदी पैसा पूंजीगत विकास कार्यों में खर्च होता है. आर्थिक सर्वेक्षण में गरीबों के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) की बात कही गई थी, पर बजट में उसके लिए कोई प्रावधान नहीं है.

अच्छे जीवन के लिए ढांचागत विकास : शहरों में हुए ढांचागत विकास को देश का विकास मानने की गलती से देश में आर्थिक विषमता बढ़ रही है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक फीसदी लोगों के लिए पास 58 फीसदी संपत्ति है, जबकि 23 करोड़ लोग घोर गरीबी का जीवन जी रहे हैं. उन वंचित वर्गों के अच्छे जीवन के लिए ढांचागत विकास हेतु बजट में पर्याप्त प्रावधान नहीं किए गए.

डिजिटल इकोनॉमी को बढ़ावा देना : भारतीय आईटी कंपनियों की 60 फीसदी आमदनी अमेरिका से होती है, जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों की वजह से खतरे में है. डिजिटल इकोनॉमी से भारत में बेरोजगारी बढ़ने के साथ अमेरिकी इंटरनेट कंपनियों को अनुचित फायदा हो रहा है, जिसके लिए बजट में समुचित प्रावधान नहीं किए गए.

सार्वजनिक क्षेत्र में जनभागीदारी बढ़ाना : नोटबंदी से कई लोगों की मौत हुई तथा अनेक लोग बेरोजगार हुए, जिनकी क्षतिपूर्ति हेतु बजट में वित्तीय प्रावधान नहीं किए गए. सरकारी तंत्र को पुनरावलोकन करना चाहिए कि नोटबंदी पर जनता का व्यापक सहयोग, जनभागीदारी में क्यों नहीं तब्दील हो पाया...?

रिसोर्स-मोबिलाइज़ेशन का राष्ट्रीय मैनेजमेंट : दिल्ली हाईकोर्ट के नवीनतम आदेश के अनुसार डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में पर्यावरण को हुई हानि का ब्योरा देना ज़रूरी है. सरकार या सरकारी छूट पर आश्रित सभी योजनाओं और उपक्रमों में यदि सरकारी मदद तथा रोजगार सृजन का ब्योरा सार्वजनिक तौर पर दिया जाए तो देश में बड़े पैमाने पर रिसोर्स-मोबिलाइज़ेशन हो सकता है. बजट के बाद क्या वित्त विधेयक पारित होने के समय क्या सरकार इस बारे में समुचित प्रावधान करेगी...?

ईमानदार का सम्मान हो : नोटबंदी के बाद जब 18 लाख लोगों की जांच हो रही है तो फिर उद्योगपतियों के अकाउंट्स का फारेंसिक ऑडिट क्यों नहीं हो रहा, जिन्होंने सरकारी बैंकों का आठ लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ हड़प लिया है. चुनाव आयोग के माध्यम से सरकार को सुझाव दिया गया था कि राजनीतिक दलों को नगद चंदे पर आयकर छूट समाप्त हो जानी चाहिए. इसे करने की बजाय नगद चंदे की सीमा 20,000 से घटाकर 2,000 हजार कर दी गई. डिजिटल इकोनॉमी की बात करने वाली सरकार यदि राजनीतिक दलों को डिजिटल / चेक से चंदे पर ही इनकम टैक्स छूट का प्रावधान कर देती तो नोटबंदी के बाद परिवर्तन की ईमानदार शुरुआत हो सकती थी.

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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