आज़ादी के समय की आबादी अभी भी गरीबी रेखा से नीचे क्यों?

आज़ादी के समय की आबादी अभी भी गरीबी रेखा से नीचे क्यों?

प्रतीकात्‍मक फोटो

विश्व जनसंख्या दिवस पर देश की बढ़ती आबादी पर सरकार और समाजशास्त्रियों में सालाना रस्मी बहस शुरू हो गई है, परंतु आम जनता का समस्या से बेपरवाह होना खतरनाक सामाजिक पहलू है

जनसंख्या विस्फोट हकीकत है या मिथक
आजादी के बाद 1951 में भारत की आबादी 36 करोड़ थी जो अब बढ़कर 127 करोड़ हो गई है। कुछ समाजशास्त्री भारत में जनसंख्या विस्फोट को मिथक बताते हैं। उनके अनुसार पिछले तीन दशकों में समाज के सभी वर्गों में जनसंख्या वृद्धि, जन्मदर और प्रजनन दर में लगातार गिरावट हो रही है जबकि हकीकत यह है कि 6 साल बाद सन् 2022 में भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश हो जाएगा..! भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 2.4 फीसदी स्थिर होने के कारण उपलब्ध संसाधनों पर ही अधिक दबाव पड़ रहा है। अमेरिका में प्रति वर्ग किलोमीटर 35 लोग, चीन में 146 लोग तथा भारत में 441 लोग रहते हैं। इसलिए सरकार तथा अर्थशास्त्रियों को आंकड़ों की जटिलता के बजाय जनसंख्या विस्फोट की भयावहता के यथार्थ को एकमत से स्वीकार कर लेना चाहिए, तभी समस्या का समाधान होगा।

बढ़ती जनसंख्या से विकास को ग्रहण
आजादी के समय जितनी आबादी थी, उतने लोग तो अब गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। दिल्ली जैसे महानगरों में 40 फीसदी आबादी स्लम के नारकीय माहौल में रहती है। आबादी से उपजी इस बदहाली को दूर करने की बजाय सरकार द्वारा  विपन्नता के सागर में स्मार्ट सिटी के सौ द्वीप तो भविष्य में समस्या को और अधिक बढ़ाएंगे। भारत की 1590 डॉलर सालाना प्रति व्यक्ति आय की तुलना में अमेरिका और चीन में प्रति व्यक्ति आय क्रमशः 55,000 तथा 7820 डॉलर है। गरीबी, अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य एवं सामाजिक पिछड़ापन क्या बढ़ती आबादी का कारण है या दुष्परिणाम, यह बहस मुर्गी और अंडे की तरह बेमानी है।

जनसंख्या विस्फोट से राजनेताओं-अफसरों को मलाई
शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य सामाजिक योजनाओं के अलावा सिर्फ केंद्र सरकार द्वारा सब्सिडी पर 2.32 लाख करोड़ खर्च किया जाता है, जिसके बावजूद कुपोषण से हर घंटे 60 बच्चे मौत के शिकार हो जाते हैं। देश में 30 करोड़ अशिक्षित तथा बगैर शौचालय के 60 फीसदी ग्रामीण आबादी का यथार्थ सरकारी योजनाओं की विफलता तथा भ्रष्टाचार की एक बानगी ही है। पिछड़े समाज में मलाईदार व्यवस्था के सतत लाभ के बाद नौकरशाही जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण के लिए क्योंकर उत्सुक रहेगी..? राजनेता भी जनसंख्या विस्फोट को शिक्षा तथा सामाजिक जागरूकता से हल करने के लिए इच्छुक भी नहीं है क्योंकि सब्सिडी पर निर्भर आबादी सभी दलों के लिए चुनावी वोट-बैंक का काम करती है।  

बढ़ती आबादी को समुदाय विशेष से जोड़ने की गलत कवायद
 बढ़ती आबादी को मुसलमानों में बहु-विवाह तथा कई बच्चों से जोड़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास भी इस समस्या को जटिल बनाता है। आपातकाल के बाद जनसंख्या नियंत्रण पर ठोस राजनीतिक प्रयास हुए ही नहीं और इसके उलट अब बहुसंख्यक आबादी को भी अनेक संतान पैदा करने के लिए उन्मादित किया जा रहा है। समान नागरिक संहिता को लागू करने से भी कोई समाधान नहीं हो सकता क्योंकि बढ़ती आबादी धर्म विशेष की नहीं वरन राष्ट्रीय समस्या है। एसोचैम के अनुसार देश में 4.12 फीसदी लोग ही व्यापार पर निर्भर हैं तथा अधिकांश लोग नौकरी करना पसंद करते हैं। निजी क्षेत्र तथा सरकारी क्षेत्र में नौकरियों के लिए दो बच्चों के कानून को अनिवार्य करने से भी दीर्घकाल में लाभ हो सकता है परंतु यह सामाजिक पिछड़ेपन के दुष्चक्र को बढ़ा भी सकता है।   

सरकार क्रियान्वित करे नई योजना
केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2000 में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के साथ कई राज्यों द्वारा चुनाव में खड़े होने के लिए अधिकतम दो बच्चों की पात्रता निर्धारित की गई जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2004 में वैध करार दिया। संविधान के अनुसार हर बच्चे को भोजन, शिक्षा तथा अच्छे जीवन का अधिकार है जिसे सुनिश्चित करना समाज तथा सरकार की जिम्मेदारी है। हर अतिरिक्त बच्चे से कृषि भूमि पर दबाव के साथ सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ता है। जनसंख्या नियंत्रण की योजनाओं को समृद्ध वर्ग ने अंगीकार कर लिया है जो अब एक बच्चे के परिवार की तरफ अग्रसर है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले यदि दो बच्चों के बाद यदि परिवार नियोजन करवा ले तो जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण हो सकता है। क्या सरकार बढ़ी आबादी के कारक परिवारों को सामाजिक आर्थिक जनगणना के आंकड़े के आधार पर चिह्नित करके डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर से लाभान्वित करके परिवार नियोजन के लिए प्रेरित कर सकेगी..? इससे जनसंख्या नियंत्रण के साथ बच्चों की अच्छी परवरिश भी होगी और तभी हम अपनी आबादी पर गर्व कर सकेंगे..।

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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