कोर्ट परिसर में हिंसा : सिर्फ गाइडलाइन तय न हों, कार्रवाई भी होनी चाहिए

कोर्ट परिसर में हिंसा : सिर्फ गाइडलाइन तय न हों, कार्रवाई भी होनी चाहिए

जेएनयू मामले में राजद्रोह के अभियुक्त कन्हैया कुमार को 2 मार्च तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया तथा दूसरी ओर गाइडलाइन्स के बावजूद पटियाला हाउस में अराजकता फैलने तथा सुरक्षा बिन्दुओं की जांच हेतु सुप्रीम कोर्ट ने पांच सीनियर एडवोकेट नियुक्त कर दिए। कुछ दिन पूर्व मद्रास हाईकोर्ट के जज द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना से कानून की ढहती दीवारों की भयावह तस्वीर सामने आती है। मद्रास में जज साहब पिछड़े वर्ग की राजनीति का झंडा उठाए हुए हैं तथा दिल्ली में वकीलों का एक वर्ग राष्ट्रवाद के नाम पर अदालत परिसर पर हिंसा को जायज़ ठहरा रहा है। गुनहगार लोगों के व्यापक मीडिया कवरेज से भविष्य में उनके राजनीतिक तिलकोत्सव की अभिलाषा शायद पूरी हो जाए, लेकिन ऐसे मामलों में बढ़ोतरी लोकतंत्र के लिए नासूर साबित हो सकती है।

जेएनयू में राजनीतिक दबाव से गिरफ्तारियां
जेएनयू में तथाकथित देशविरोधी नारों के विरुद्ध राजनीतिक दबाव के बाद ही एफआईआर दर्ज की गई तथा केंद्रीय गृहमंत्री के हस्तक्षेप के बाद गिरफ्तारी होने से पुलिस की निष्पक्षता पर सवाल तो खड़े होते ही हैं। पटियाला हाउस परिसर में पत्रकारों तथा अन्य लोगों की पिटाई के वीडियो सामने आने के बाद भी कोई एफआईआर या गिरफ्तारी न होने से पुलिस द्वारा सरकार के इशारे पर काम करने का जवाब भी मिलता है। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अगर कार्यवाही हो भी जाए तो हर मामले में तो ऐसे निर्देश संभव नहीं हो सकते।

दंड के लिए हिरासत का गैरकानूनी इस्तेमाल
संविधान में व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है तथा गैरकानूनी हिरासत के विरुद्ध सख्त कानून बनाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई आदेशों में स्पष्ट किया है कि पुलिस द्वारा बेवजह गिरफ्तार करने के ढर्रे पर रोक लगनी चाहिए। हिरासत में लेने का मकसद पुलिस की जांच है, जिसके आधार पर चार्जशीट फाइल होती है। अदालत द्वारा सजा मुकर्रर करने के बाद ही व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है, लेकिन अब हिरासत में लेकर दंडित करने का प्रचलन बढ़ गया है। आंकड़ों से स्पष्ट है कि ऐसे मामले अदालतों में नहीं टिकते और अंत में व्यक्ति छूट जाता है, लेकिन बेवजह हिरासत से नक्सलवाद और अराजकता पनपती है, जो जेलों के बोझ को भी बढ़ाती है।

गैरकानूनी हिरासत के विरुद्ध दंड एवं मुआवजे का प्रावधान
जेएनयू मामले में गृहमंत्री और पुलिस कमिश्नर ने कन्हैया कुमार के विरुद्ध राजद्रोह के पुष्ट सबूतों की उपलब्धता पर ज़ोर दिया है, जिनकी हाफिज सईद ने हवा निकाल दी है। अदालत में यह मामला भी यदि अंत में छूट गया तो फिर गैरकानूनी हिरासत तथा मानवाधिकार हनन की ज़िम्मेदारी कौन लेगा। बंगाल में ममता बनर्जी सरकार द्वारा फेसबुक पोस्ट पर गैरकानूनी गिरफ्तारी के विरुद्ध हाई कोर्ट द्वारा 50,000 के जुर्माने का आदेश दिया गया था, तो क्या देश के सभी भागों में ऐसे जुर्माने का कानूनी प्रावधान नहीं होना चाहिए...?

जज और वकीलों का कानून पर खत्म होता विश्वास
कोई भी अपने मामले में खुद फैसला नहीं कर सकता - इस कानूनी सिद्धान्त के बावजूद मद्रास हाईकोर्ट के जज ने ऐसा करने का दुस्साहस किया, फिर भी उनको दंडित करने के लिए हमारे नेता शायद ही महाभियोग लाएं। दूसरों को न्याय दिलाने वाले वकीलों ने पहले लखनऊ में हिंसा की और फिर पटियाला हाउस अदालत परिसर में लोगों की पिटाई की, जिसके विरुद्ध बार काउंसिल तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा शायद ही सख्त कार्रवाई हो पाए...?

स्टूडेंट को सपोर्ट करने के लिए राहुल गांधी के विरुद्ध इलाहाबाद की अदालत में देशद्रोह का मामला दर्ज हो गया है, लेकिन दिल्ली की अदालत के गुनाहगारों के विरुद्ध कोई कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है...? अगर वकील और जज ही कानून के शासन पर भरोसा नहीं करेंगे तो क्या सारे कानून आम जनता के लिए ही बने हैं...? कोर्ट परिसर में हिंसा संविधान के शासन को चुनौती है, जो सबसे बड़ा राजद्रोह है, और इसके विरुद्ध सरकार का मौन दुःखद है। देश में कानून के शासन की रक्षा अब गाइडलाइन्स से नहीं, वरन् संविधान के निष्पक्ष अनुपालन से हो पाएगी, जिसके तहत सरकार और अदालतें काम कर रही हैं।

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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