आखिर सभी को है मां और बहन की ज़रूरत...

आश्चर्यजनक रूप से किसी भी कामना के लिए लिंगभेद पूरी तरह खत्म हो जाता है, और भक्त चाहे पुरुष हो या स्त्री, कामनापूर्ति के लिए प्रमुखतः देवियों की ही शरण ली जाती है...

हमारे देश में, प्रमुखतः बहुसंख्यक हिन्दुओं में, तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का अस्तित्व माना जाता रहा है, तथा भगवान के रूप में आमतौर पर पुरुषों को ही देखा गया है, भले ही वह विष्णु हों, शिव या शंकर हों, राम हों या कृष्ण, परंतु आश्चर्यजनक रूप से किसी भी कामना के लिए लिंगभेद पूरी तरह खत्म हो जाता है, और भक्त चाहे पुरुष हो या स्त्री, कामनापूर्ति के लिए प्रमुखतः देवियों की ही शरण ली जाती है... धन की कामना के लिए लक्ष्मी, विद्या की कामना के लिए सरस्वती, शक्ति की कामना के लिए दुर्गा और काली...

हमारे ही देश में अपने ग्रह पृथ्वी को भी धरती माता के रूप में पूजा जाता है, और देश को भी भारतमाता कहकर पुकारा जाता है, जिसके लिए सैकड़ों-हज़ारों ने हंसते-हंसते प्राण न्योछावर कर दिए... हमारे ही देश में गाय को भी माता का दर्जा दिया गया है, जो पौष्टिक दूध देकर सहस्राब्दियों से हमारी अगली पीढ़ियां तैयार करती आ रही है...

हमारा ही देश है, जिसकी भगवतकथाओं में स्वयं भगवान राम के श्रीमुख से मां की महिमा का गुणगान करते हुए कहलवाया गया - "अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते... जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी..." अर्थात "हे लक्ष्मण, भले ही लंका स्वर्णमंडित है, परंतु मुझे उसमें कोई रुचि नहीं है, क्योंकि जन्म देने वाली मां तथा जन्मभूमि मेरे लिए स्वर्ग से भी बढ़कर हैं..." इसी देश में यह भी कहा गया है - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता..." अर्थात "जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता विचरण और निवास करते हैं..."

अब एक समाचार... अरुणा रामचंद्र शानबाग इसी समाज में रहती है... ज़िन्दा है, लेकिन लाश की तरह, परंतु उसे शांति से मरने का अधिकार नहीं दिया गया... भले ही सहमत हूं कि माननीय न्यायालय ने याचिका निरस्त करने के लिए जो मानवीय और नैतिक आधार दिए, वे उचित हैं, परंतु क्या यह उचित है कि अरुणा के जीवन को जीते-जी नर्क में तब्दील कर देने वाला अपराधी सात साल की सज़ा काटकर आज़ाद हो गया, और अरुणा आज भी 'सज़ा' ही काट रही है... अरुणा ने 22 साल की आयु में जो कुछ अपने ही सहकर्मी के हाथों झेला, वह आज 38 साल बाद भी 60 साल की आयु तक उसके साथ है, और हमेशा रहेगा, क्योंकि वह आज तक उस हमले से बाहर नहीं आई है... अपने जीवन के लिए पूरी तरह दूसरों पर निर्भर अरुणा के बारे में संभवतः किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के स्टाफ को पुनर्विचार करने की आवश्यकता है, जिन्हें न्यायालय ने उसके जीवन का निर्णय करने का अधिकार दिया है...

एक और समाचार... 22 वर्षीय छात्रा राधिका तंवर की देश की राजधानी के बीचोंबीच स्थित धौला कुआं पर किसी अज्ञात लड़के ने सरेराह दिन-दहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी... अब तक जो कहानी पुलिस के मुताबिक सामने आई है, उसमें राधिका का कसूर सिर्फ इतना दिखाई देता है कि उसे लड़की का जन्म मिला... एक संभावना यह भी जताई गई कि यह प्रेमसंबंधों के बिगड़ जाने का परिणाम भी हो सकता है... चलिए, यदि मान भी लें कि ऐसा हुआ होगा, तो क्या उसकी इस बर्बर नियति को उचित ठहराया जा सकता है...

इन ताजातरीन घटनाओं के अलावा इसी देश में दहेज प्रताड़ना, महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा, बलात्कार, और सबसे ज़्यादा चिन्ताजनक कन्या भ्रूणहत्या के मामले रोज़ सामने आ रहे हैं... हमारे देश में महिलाओं को काली और दुर्गा का प्रतिरूप भले ही कहा जाता हो, परंतु दुर्भाग्य से वही 'ईज़ी टारगेट' भी मानी जाती रही हैं... समाज से जातिभेद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा, और अधिकतर उसकी गाज भी जातिविशेष की महिलाओं पर ही गिरती है...

एक और बात की ओर ज़रूर ध्यान दिलाना चाहूंगा कि यह स्थिति इसलिए भी शोचनीय है, क्योंकि दहेज तथा घरेलू हिेंसा के अधिकतर मामलों में महिला ही महिला की सबसे बड़ी शत्रु बनकर सामने आती हैं... घर में वर्चस्व बनाए रखने के उद्देश्य से सास और ननद का नई बहू पर अत्याचार आज भी हमारे देश में सच्चाई है, जिसे पढ़े-लिखे लोगों के बीच बैठकर और महिलाओं की स्वतंत्रता के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कर झुठलाया नहीं जा सकता... हर चीज़ एक-दूसरे से जुड़ी होती है, इसलिए कहीं न कहीं महिलाओं का यह अत्याचार न्यूक्लियर परिवारों (जहां माता-पिता के साथ रहने के स्थान पर बच्चे अलग घर बसा लेते हैं) की बढ़ती संख्या में भी योगदान दे रहा है...

कन्या भ्रूणहत्या तथा उसके दुष्परिणामों के बारे में बहुत-से लोग, बहुत बार, बहुत कुछ कह चुके हैं, परंतु क्या यह नासूर हमारे समाज से दूर हुआ... आज भी हरियाणा और पंजाब जैसे उद्योग-प्रधान राज्यों में इसकी ख़बरें आम हैं... यदि संसार की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक भारतवर्ष में सामाजिक सोच नहीं बदली तो सरकार महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण कानूनन भले ही दे दे, उस आरक्षण का लाभ उठाने के लिए हम महिलाएं लाएंगे कहां से...

बलात्कार के लिए हमेशा कहा जाता रहा है कि यह कोई कुंठित मानसिक स्थिति वाला व्यक्ति ही कर सकता है... सही है... लेकिन आज बलात्कार से जुड़े समाचार जब सामने आते हैं, और जब उनमें अपराधी के रूप में बाप, भाई, चाचा आदि रिश्तों के नाम दिखते हैं, कलेजा रोने को आ जाता है, और सोचता हूं, सिर्फ कुंठित था अपराधी, या उसे विकृत कहें... ऐसे भी किस्से हैं, जहां किसी महिला से बदला लेने के लिए बलात्कार हुआ तो दूसरी ओर किसी पुरुष से बदला लेने के लिए भी उसकी किसी निकट संबंधी महिला से बलात्कार किया जाता है... अर्थात देश में कुछ कुंठित या विकृत मानसिकता वाले लोगों के विचार से हथियार है बलात्कार, जिसका इस्तेमाल बेखटके किया जा सकता है, क्योंकि दुर्भाग्य से वास्तविक घटनाओं का सिर्फ एक हिस्सा पुलिस थानों में दर्ज होता है, और फिर उनमें से भी सिर्फ एक छोटे हिस्से की वारदातों में अपराधी को दंड देना मुमकिन हो पाता है...

यह सब देख-पढ़कर दिमाग में कुछ घूम रहा है... शायद हमारे देश के पुरुषों की मानसिकता बदल गई है... उनमें से कुछ के लिए आज की महिला भोग का साधन है; अथवा बदला लेने का आसान उपाय है; अथवा ऐसा झंझट है, जिसे पैदा होने से पहले ही मार डालना चाहिए; अथवा दिन-रात चाकरी करने वाली दासी है, जिसकी अपनी कोई मर्यादा या मूल्य नहीं...

विश्वास कीजिए, इस परिस्थिति में कोई सरकार कैसा भी कानून बनाकर हमारी सहायता नहीं कर पाएगी... कोई महिला दिवस रातोंरात हमारी सोच को नहीं बदल पाएगा... महिलाओं का सम्मान करना हमारे संस्कारों का हिस्सा रहा है, और रहना चाहिए, क्योंकि मां, बहन, पत्नी, बेटी सभी को चाहिए, सभी को...

विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...

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