क्या हो गया 'रॉक ऑन टू' के संगीत को?

क्या हो गया 'रॉक ऑन टू' के संगीत को?

अपने पिछले ब्लॉग में मैंने एक बात अधूरी छोड़ दी थी. वो थी साहस की. मैंने लिखा था कि कला में साहस की ज़रूरत होती है, पर बॉलीवुड तो एक इंडस्ट्री है. वो एक अधूरी बात थी. साहस की ज़रूरत इंडस्ट्री में भी होती है, जो उत्कृष्ट करना चाहते हैं, अपनी सीमाओं का विस्तार करना चाहते हैं, वो इंडस्ट्री जो क्रिएटिव होना चाहती है. पर बॉलीवुड एक ऐसी इंडस्ट्री है जो सिर्फ़ सफल होना चाहती है, और सफलता के साथ एक समस्या है.

सफलता के सामने सबसे बड़ी चुनौती सफल होना नहीं, समस्या की असल समस्या ये है कि उसे रिपीट होना पड़ता है. सफलता तभी सफल होती है जब वो बार बार हो. पता नहीं हमारी कौन सी असुरक्षा और कुंठा है जो सफलता को आइसोलेट करके नहीं देख पाती है. एक ग्रैंड स्लैम के चैंपियन को चैंपियन नहीं मानना चाहती है. जब तक कि नवरातिलोवा का रिकॉर्ड ना टूटे, कोई स्वीकार ही नहीं करता. आख़िर वन हिट वंडर इतना बड़ा स्टिग्मा क्यों है? वन हिट वंडर में हिट इतना तुच्छ और गौण क्यों हो जाता है और ‘वन’ सबसे बड़ा सत्य हो जाता है. क्यों कुमार गौरव को लोग इसलिए नहीं याद करते कि उनकी एक फ़िल्म हिट हुई थी. उन्हें सिर्फ़ इसलिए याद किया जाता है कि उनकी सिर्फ़ एक ही फ़िल्म हिट हुई थी. सफलता के साथ ये पूर्वाग्रह और अकेली सफलता के साथ ऐसा दुराग्रह क्यों है इसे समझते हुए फिर कभी लिखूंगा, पर सफलता की इस सीमा का ज़िक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि हाल फ़िलहाल में गानों का ऐप डाउनलोड किया था और टॉप पंद्रह गानों की हिट लिस्ट फ़ोन पर सुन रहा था.

तो एक नए ऐप में मैंने पहले तो खोज कर, टहलते-टहलते रॉक ऑन टू के गाने सुने. निराश हुआ. वैसे एक सच्चाई तो ये थी ही कि 'रॉक ऑन' के सीक्वल से मुझे उम्मीदें ज़्यादा थीं. पर मुझे इस बात पर भी यकीन है कि जितना संगीत मैं सुनता हूं उससे मैं अपनी उम्मीदों को संगीत के स्वाद पर हावी नहीं होने देता. तो फिर वही बात, 'रॉक ऑन टू' के गाने निराशाजनक लगे. जिसमें सबसे बड़ी निराशा थी साहस की कमी. फ़रहान अख़्तर कभी भी उत्कृष्ट गायक नहीं थे, आवाज़ और सुर दोनों स्तर पर, लेकिन वो साहसी हैं. संगीत केवल सुर और आवाज़ का खेल नहीं होता है, साहस और जुनून हर पैरामीटर को तोड़ देता है. 'रॉक ऑन' वन में फ़रहान अख़्तर और शंकर एहसान लॉय ने वही किया. वो शुद्ध, साहसी संगीत था, जिसकी सबने तारीफ़ की. बावजूद इसके कि बॉलीवुड में रॉक म्यूज़िक का कभी भी चलन नहीं था. शुद्ध रॉक संगीत के सेटप के साथ, बेझिझक और बेधड़क गाने लिखे गए थे. पर 'रॉक ऑन टू' के सभी गानों के पीछे लगा कि टीम ने एक ही सोच रखी है - सेफ़ खेलना है. सेफ़ संगीत और सेफ़ गीत. पर रॉक म्यूज़िक के साथ सेफ़ खेलना, मेल नहीं खाता. तो ऐसा लगा कि इस फ़िल्म के गानों को भी वही बीमारी लग गई है जिससे बॉलीवुडिया फ़िल्में ग्रसित हैं, फ़ॉर्मूला. हां, एक गाना है जिसका ज़िक्र करूंगा, 'जागो'. जिसमें गिटार का एक छोटा धुन, जिसे आमतौर पर गिटार रिफ़ कहते हैं और वो बार बार रिपीट होता है, बहुत अच्छा है और सिर्फ़ वही गिटार रिफ़ जागो गाने को दमदार-यादगार बनाती है.

पर जैसा मैंने कहा था, 'रॉक ऑन टू' के बारे में, मैं शायद कुछ नहीं लिखता अगर मैंने 'ऐ दिल है मुश्किल' का गाना 'बुल्लेया' नहीं सुना होता. उस गाने को पहली बार सुन कर ही उसकी ऊर्जा से मैं जुड़ गया. इसे अमित मिश्रा नाम के गायक ने गाया है, साथ में शिल्पा राव भी हैं. प्रीतम का संगीत है और अमिताभ भट्टाचार्य का लिखा हुआ है. यहां पर प्रीतम का संगीत बहुत दमदार है. और जो डर लगा रहता है प्रीतम के गानों के साथ वो फिर से सामने आया जब एक वेबसाइट ने लिखा कि बुल्लेया का शुरुआती गिटार कहीं से टपाया हुआ है. ख़ैर. और जिस साहस की कमी का मैं ज़िक्र कर रहा था, वो बुल्लेया में बिल्कुल नहीं. सुर और शब्द, धावा बोलते हैं, हम अमित मिश्रा के गाने और अमिताभ भट्टाचार्य के शब्दों की इज़्ज़त करते हैं और फिर आनंद लेते हैं.

हाल में एनडीटीवी के कार्यक्रम में कुछेक संगीतकारों, गीतकारों और गायकों की राय सुनी थी कि आजकल गाने कैसे तैयार हो रहे हैं. गाना बनाने की प्रक्रिया में कैसे मार्केटिंग की टीम शामिल हो रही है. अब ये टीमें गानों को ज़्यादा से ज़्यादा जगहों पर कैसे पहुंचाया जाए ये बताने के लिए शामिल होती हों, तब तो ठीक है पर मुझे ये कल्पना करके थोड़ा अटपटा लगा कि क्या मार्केटिंग टीमें ये भी तो तय नहीं करतीं कि गाने कैसे हों, क्यों हों और कहां डाले जाएं?  और इस प्रक्रिया के पीछे क्या दर्शन होता होगा? संगीत भी क्या मार्केटिंग स्ट्रैटजी के सिद्धांतों पर तैयार होता है? संगीत कहीं पावर-प्वाइंट प्रेज़ेंटेशन से तो पैदा नहीं किए जा रहे? कहीं 'रॉक ऑन टू' के साथ यही तो नहीं हो गया?

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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