ख़बरों के घमासान में ग़रीब, मज़दूर की जगह कहां?

आज आप इन लोगों में नहीं हैं लेकिन जब भी आप अपनी समस्या लेकर लोग बनेंगे यानी सड़क पर आएंगे, मीडिया को खोजेंगे तो आपके लिए कोई नहीं आएगा. जो बदल चुका है, उसे नोटिस करना भी आपका काम है.

ख़बरों के घमासान में ग़रीब, मज़दूर की जगह कहां?

न्यूज़ चैनलों के बनाए हुए दर्शकों की दुनिया में जब लोगों को समस्या होती है तो उन लोगों का नाम दर्शकों के बहीखाते से काट दिया जाता है. आप देखेंगे कि सारी बहस दो दलों के नेताओं के आस-पास घूम रही है और लोगों की आवाज़ किसी के आस-पास नहीं पहुंच रही है. आज आप इन लोगों में नहीं हैं लेकिन जब भी आप अपनी समस्या लेकर लोग बनेंगे यानी सड़क पर आएंगे, मीडिया को खोजेंगे तो आपके लिए कोई नहीं आएगा. जो बदल चुका है, उसे नोटिस करना भी आपका काम है. रविवार को दिल्ली में कई प्रदर्शन हुए. उन प्रदर्शनों में लोग मीडिया को खोजते रहे. घर जाकर चैनलों पर ख़ुद को खोजते रहे. उम्मीद है जनता ने जनता का हाल देखा होगा. जंतर मंतर या रामलीला मैदान पर लोगों का आना अब किसी के लिए ख़बर नहीं है मगर ख़बर ये है कि लोग फिर भी आ रहे हैं. चैनलों के लिए नहीं बल्कि जनता बने रहने के लिए सड़कों पर आ रहे हैं.

3 मार्च को जंतर मंतर पर नौजवान भारत सभा, बिगुल मज़दूर दस्ता ने भी इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया. भगत सिंह रोज़गार गारंटी कानून पास करने की मांग की गई. खाली पड़े सरकारी पदों को जल्दी भरने की मांग की गई. ठेके पर दी जा रही नौकरी प्रथा को समाप्त करने की आवाज़ उठी. आंगनवाड़ी वर्कर और हेल्पर के बच्चे और परिवार के सदस्य भी यहां मौजूद थे. पिछले साल सितंबर महीने में प्रधानमंत्री ने एलान किया था कि आंगनवाड़ी वर्कर को दिया जाने वाला मानदेय 3000 से बढ़ा कर 4500 और हेल्पर का 1500 से बढ़ाकर 2250 रुपये किया जाएगा. कहा गया था कि अक्तूबर से बढ़ा हुआ पैसा मिलेगा. उस समय प्रधानमंत्री ने वीडियो कांफ्रेंसिग के ज़रिए आंगनवाड़ी और आशा वर्कर से बात की थी, कहा था कि 4 लाख का बीमा मिलेगा. अक्तूबर में नहीं मिला, नवंबर में नहीं मिला, दिसंबर में नहीं मिला, जनवरी में नहीं मिला, फरवरी में नहीं मिला. फरवरी में बजट में घोषणा होती है. दिल्ली स्टेट आंगनवाड़ी वर्कर्स एंड हेल्पर्स एसोसिएशन की शिवानी कौल ने कहा कि सितंबर 2018 की घोषणा और बजट में की गई घोषणा एक ही है जो आज तक नहीं मिली. एक ही बात की दो-दो बार घोषणा हो गई. अभी तक एक नया पैसा इनके खाते में नहीं आया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 18 सितंबर 2018 को एलान करते हैं कि आंगनवाड़ी वर्कर और आशा वर्कर को बढ़ा हुआ पैसा 1 अक्तूबर से मिलेगा. दिवाली से पहले पैसा आ जाएगा. फिर 1 फरवरी के बजट में वित्त मंत्री ने जो एलान किया वो क्या था. दिल्ली स्टेट आंगनवाड़ी वर्कर्स एंड हेल्पर्स एसोसिएशन की शिवानी कौल ने जब यह बात बताई तो हमें भी यकीन नहीं हुआ कि जिसकी घोषणा सितंबर में प्रधानमंत्री कर चुके हैं उसकी दोबारा घोषणा बजट में होती है.

आंगनवाड़ी वर्कर और हेल्पर का काम बहुत महत्वपूर्ण होता है. इनकी उपलब्धियों को सरकार और सरकारें अपने लिए भुना लेती हैं मगर इनके काम को कभी मान्यता नहीं देतीं. न्यूनतम मज़दूरी से भी कम पर काम करती हैं. दिल्ली में ही 11000 के करीब आंगनवाड़ी केंद्र हैं. इन केंद्रों में ग़रीब बच्चों को बुनियादी तालीम के अलावा उन्हें ऐसा आहार दिया जाता है ताकि 0 से 6 साल के बच्चों में कुपोषण में कमी आए. स्वास्थ्य बेहतर हो. पका हुआ भोजन भी मिलता है और घर ले जाने के लिए भी पंजीरी दी जाती है. इसके अलावा पोलियो से लेकर कई प्रकार के टीकाकरण अभियान भी इन्हीं आंगनवाड़ी वर्करों के ज़रिए होता है. मगर सब कुछ ठेके पर और बेगार कराया जाता है. हमने आपको दिल्ली के कुछ आंगनवड़ी सेंटरों की तस्वीरें दिखाई ताकि आपको अंदाज़ा हो सके कि इनका काम क्या है और कितना ज़रूरी है.

दिल्ली शहर में एक आंगनवाड़ी वर्कर को 10000 के करीब मिलता है. रिपोर्टर वगैरह अपलोड करने के लिए इंटरनेट का 500 देने की बात थी मगर इन्हें नहीं मिलता है. इस 10,000 में केंद्र सरकार का हिस्सा मात्र 1500 है. प्रदर्शन में मांग की गई कि 1975 से समेकित बाल विकास योजना से हज़ारों महिला वर्करों को हटाने के लिए सीधे पैसा देने की योजना लाई जा रही है. शिवानी कौल का कहना है कि यह स्थायी काम है. दिल्ली के पड़ोसी राज्य हरियाणा में 8 फरवरी से 50,000 आंगनवाड़ी वर्कर प्रदर्शन कर रही हैं. वहां मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा था कि 11,400 देंगे मगर आज तक वह पैसा नहीं मिला. इसे लेकर कई ज़िलों में प्रदर्शन चल रहे हैं. हर जगह आंगनवाड़ी वर्कर की मांग है कि उन्हें ठेके की जगह स्थायी कर्मचारी की मान्यता मिले और सम्मानजनक पैसा मिले. चुनाव के मौके पर जनता के मुद्दे गायब हैं, नेता अपनी तरफ से जनता को मुद्दे थमा रहे हैं. आप ही सोचिए कि 10,000 में दिल्ली जैसे शहर में किसी का गुज़ारा चलेगा. कुछ नहीं की जगह कुछ तो देने और मिलने के नाम पर इन महिलाओं का ज़माने तक शोषण हुआ. रविवार को हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा जंतर मंतर न गए होते तो यह सब पता ही नहीं चलता.

जंतर मंतर और रामलीला मैदान में मज़दूरों के अधिकार को लेकर रैली हुई. जब सरकार मज़दूरों के कानून में बदलाव करती है तो अंग्रेज़ी अखबारों में वाहवाही होती है. मगर मज़दूर उन बदलावों को कैसे देखता है या उन बदलावों के कारण उस पर क्या बीतती है, हम नहीं जान पाते.

रामलीला मैदान से जंतर मंतर तक मज़दूरों का मार्च निकला. इस मार्च में मज़ूदरों के अधिकार के लिए लड़ने वाले ट्रेड यूनियन सेंटर आफ कर्नाटक, ओडिशा, भेल मजदूर ट्रेड यूनियन और मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान मासा सहित कई संगठनों की तरफ से ये मार्च निकला. कानूनों में बदलाव कर परमानेंट नौकरी को समाप्त किया जा रहा है और ठेके की नौकरी को बढ़ावा दिया जा रहा है. मज़दूरों को 8 से 10,000 से ज़्यादा पैसे नहीं मिल पाते हैं. इनकी मांग है कि 25,000 रुपये न्यूनतम मज़दूरी की जाए. यूनियन बनाने के अधिकार को मान्यता मिले. ठेके पर नौकरी को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. मज़दूर भी नागरिक हैं. आंगनवाड़ी वर्कर से लेकर किसान तक नागरिक हैं मगर चुनावी चर्चा से बाहर कर दिए गए हैं.

3 मार्च को दिल्ली के जंतर मंतर पर अर्ध सैनिक बल भी आए थे अपनी मांगों को लेकर. जिन्हें लेकर चैनलों में राष्ट्रभक्ति के आक्रामक कार्यक्रम चल रहे हैं. वहां सवालों पर हमले हो रहे हैं कि ऐसा पूछने से अर्धसैनिक बलों का मनोबल गिर जाएगा लेकिन जब अर्धसैनिक बल अपने सवालों को लेकर जंतर मंतर पर आए तो उनका मनोबल बढ़ाने कौन सा मीडिया गया आप पूछ सकते हैं.

24 फरवरी और 3 मार्च को अर्धसैनिक बलों के दो-दो प्रदर्शन हुए जिन्हें सुशील महापात्रा और राजीव रंजन ने कवर किया. सेवा निवृत्त हो चुके अर्धसैनिक बलों के पूर्व जवान और अधिकारी अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते हैं मगर सुनवाई नहीं होती है. बड़ी संख्या में आए अर्ध सैनिक बलों के लिए मीडिया के पास वक्त नहीं था. इनकी मांग है कि 2004 के बाद से जो पेंशन बंद हुई है उसे फिर से चालू किया जाए. सेना की तरह इन्हें भी वन रैंक वन पेंशन मिले. कठिन हालात में तैनात जवानों को विशेष अर्धसैनिक भत्ता मिले. इनका हौसला बढ़ाने नेताओं में सिर्फ जयंत चौधरी पहुंचे जो राष्ट्रीय लोकदल के नेता हैं. इनका कहना है कि पुलवामा मामले को राजनीतिक दल अपने लिए भुना रहे हैं मगर उनकी मांग पर कोई ध्यान नहीं देता है. अर्धसैनिक बलों की मांग है कि सभी राज्यों में एक ही तरह का मुआवज़ा होना चाहिए ताकि सीआरपीएफ और अन्य अर्ध सैनिक बलों को लेकर कोई भेदभाव नहीं है. 24 फरवरी के प्रदर्शन में भी जवान से लेकर अफसर सब शामिल थे. इस प्रदर्शन को सुशील महापात्रा ने कवर किया था. इनकी मांग है कि हर ज़िले में सैनिक बोर्ड की तरह अर्ध सैनिक बोर्ड होना चाहिए ताकि जवानों को हर काम के लिए दिल्ली नहीं आना पड़े.

अर्धसैनिक बलों के लिए चैनलों पर जो भावुकता पैदा की जा रही है, राजनीति के ज़रिए जो की जा रही है वो इन बलों के लिए कम है, उन बलों के लिए ज़्यादा है जिसे वोट कहते हैं. अब एक नए नारे की बात. न लोकसभा न विधानसभा, सबसे बड़ा ग्राम सभा.

इन तस्वीरों को देखकर यही लगा कि हम डिबेट के चक्कर में देश का कितना कुछ देखने से रह जाते हैं. 2 मार्च को दंतेवाड़ा के बैलाडीला की पहाड़ियों से यह रैली निकली और 15 किमी तक पदयात्रा चली. दिल्ली में विजय रैली के नाम पर बाइक पर सवार 500 लोगों की रैली कवर हो जाती है मगर आप खुद सोचिए कि टीवी किस तरह से जनता के बीच से जनता को ग़ायब कर देता है. इस रैली में ग्राम सभा को लोकसभा और विधानसभा से बड़ा बताया जा रहा है. क्योंकि इनके नेताओं का आरोप है कि 2014 में एक गांव में फर्जी तरीके से ग्राम सभा बुलाकर अडानी एंटरप्राइज़ को लोहे का खदान दे दिया गया. हमने अडानी एंटरप्राइज से संपर्क करने का प्रयास किया है. पक्ष मिलेगा तो ज़रूर दिखाएंगे मगर यह मामला ज़िला प्रशासन का है. अगर फर्जी ग्राम सभा हुई है तो इसे पंचायत अधिकारियों की मदद से ज़िला प्रशासन को ही साबित करना है. अगर ग्राम सभाएं भी फर्जी तरीके से हुई हैं तो इसकी गंभीर जांच होनी चाहिए. 20 गांव के आदिवासी लोग इस पदयात्रा में शामिल हुए थे.

केंद्र की संस्था नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कारोपोरेशन और छत्तीसगढ़ मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन के सीईओ प्रभाकर राव से इस बारे में पूछा क्योंकि इसी ज्वाइंट वेंचर को ग्राम सभा की अनुमति के बाद खदान की लीज़ मिली है. उसके बाद इसे अडानी ग्रुप को ट्रांसफर किया गया. सीआईओ प्रभाकर राव ने इस प्रदर्शन के बाद दंतेवाड़ा के कलेक्टर को पत्र लिखा है कि इस आरोप की जांच करें. उन्होंने यह भी कहा कि जब 2014 में फर्जी ग्राम सभा बुलाने की बात है तब उस वक्त शिकायत क्यों नहीं आई. इस मार्च का यही एक मकसद नहीं था. इसमें केंद्र और राज्य सरकार दोनों को चेतावनी दी गई है कि वन भूमि अधिनियम 2006 के अनुसार जंगलों की ज़मीन पर उनका अधिकार सुनिश्चित किया जाए. इस रैली में कें और राज्य सरकार के खिलाफ नारे लगे. चेतावनी दी गई कि राज्य सरकार ग्राम सभा को अनदेखा न करे. हमारे सहयोगी सोमेश पटेल ने वन मंत्री मोहम्मद अकबर से पूछा तो उन्होंने कहा कि मामले की पूरी जानकारी नहीं है हम पता करेंगे.

देश में कितना कुछ हो रहा है. टीवी में सिर्फ दो चार बातें ही हो रही हैं. 4 मार्च के इंडियन एक्सप्रेस में अशोक गुलाटी और रंजना रॉय ने लिखा है कि पिछली चार सरकारों में मोदी सरकार का प्रदर्शन कृषि क्षेत्र में औसत रहा है. 2022 से 23 तक किसानों की आमदनी दुगनी करनी है तो खेतों को तीन साल तक 10 प्रतिशत की दर से विकास करना होगा. मगर विकास दर है 2.9 प्रतिशत. इस हिसाब से अगले चार साल में खेती में 15 प्रतिशत का विकास दर चाहिए तब जाकर आमदनी दुगनी होगी. जो कि असंभव है. बात प्रधानमंत्री की आ गई तो तो एक और बात है. उन्होंने डिस्लेक्सिया को लेकर जो राजनीतिक मज़ाक किया है वो अच्छा नहीं था. यह वो बीमारी है जिससे पढ़ने लिखने की क्षमता बस धीमी होती है. प्रतिभा में कोई कमी नहीं होती है. आपने तारे ज़मी पर फिल्म देखी होगी. किसी की कमज़ोरी का या किसी बीमारी का मज़ाक नहीं उड़ाया जाता है. इतनी सी बात प्रधानमंत्री को नहीं बताया जाता है. आप देखिए उन्होंने क्या किया. गेस कीजिए कि वे किसका मज़ाक उड़ा रहे हैं.

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आपको बता दें कि कई बड़े-बड़े वैज्ञानिक डिस्लेक्सिया से जूझते रहे हैं. बस तीन नाम बताता हूं- अल्बर्ट आइंस्टाइन, थॉमस अल्वा एडिसन और ग्राहम बेल. हृतिक रोशन और अभिषेक बच्चन जैसे सितारे डिस्लेक्सिया से गुज़रे हैं. जाहिर है, शब्दों को पहचानने की मुश्किल उनकी प्रतिभा के आगे छोटी सी बाधा साबित हुई. लेकिन जो लोग हर सवाल को अपनी राजनीति से जोड़ने के आदी हों, उनको किस बीमारी की पीड़ित माना जाए. सोचते रहिए.