केरल में बाढ़ से तबाही के लिए ज़िम्मेदार कौन?

केरल की बाढ़ की बात चेन्नई महानगर की बाढ़ से कैसे शुरू हो सकती है. दो साल पहले चेन्नई के वक्त हम सबने उन्हीं कारणों का विश्लेषण किया था जिनका आज केरल के संदर्भ में कर रहे हैं.

केरल में बाढ़ से तबाही के लिए ज़िम्मेदार कौन?

कब तक सेना के बहादुर जवान हम सबको बाढ़ और तूफान से निकालते रहेंगे. कब तक हम उनकी बहादुरी के किस्सों के पीछे अपनी नाकामी को छिपाते रहेंगे. सेना, नौसेना, वायुसेना, कोस्टगार्ड और एनडीआरएफ की दर्जनों टीमें न हों तो जान माल का नुकसान कितना होगा, हम अब अंदाज़ा लगा सकते हैं. उनकी तैयारी तो हमें बचा लेती है मगर नागरिक प्रशासन की क्या तैयारी है. मुंबई, चेन्नई, दिल्ली, गुड़गांव, बंगलुरु सिर्फ शहर बदल रहे हैं, मगर हर साल या कुछ साल के बाद बारिश की तबाही हम सबके सामने उन्हीं सवालों को लेकर खड़ी हो जाती है. जहां पोखर हैं, तालाब हैं, नदियों के फैलाव की ज़मीन है, उन सब पर अतिक्रमण. अतिक्रमण गैर कानूनी भी और कानूनी तरीके से भी. विकास प्राधिकरण प्लॉट काट कर चले जाते हैं और जहां हम मिट्टी भर कर घर बना लेते हैं. सोचते हैं कि अब हम सुरक्षित हैं. नवंबर 2015 की चेन्नई की बारिश अगर आप भूल चुके हैं तो बताइये कि क्या गारंटी है कि आप केरल की बाढ़ को भी जल्दी नहीं भूलेंगे. यह काम आपकी मेमोरी पावर स्मृति शक्ति का नहीं है बल्कि उस सिस्टम का है जो ऐसी तबाही से सीखता है. नवंबर 2015 में चेन्नई की बारिश की तबाही के भी वही कारण है जो 2018 के केरल की बाढ़ के कारण. उस वक्त हमने प्राइम टाइम में जिन कारणों की सूची बनाई थी, फिर से दिखाना चाहते हैं ताकि हम खुद को याद दिला सकें कि हम भूल जाते हैं. सरकारें सो जाती हैं. अगली बारिश में कुछ सौ लोग मर जाते हैं. नवंबर 2015 में अकेले चेन्नई महानगर में 347 से ज्यादा लोग मारे गए थे. एक लाख से अधिक घरों को नुकसान पहुंचा था.

केरल की बाढ़ की बात चेन्नई महानगर की बाढ़ से कैसे शुरू हो सकती है. दो साल पहले चेन्नई के वक्त हम सबने उन्हीं कारणों का विश्लेषण किया था जिनका आज केरल के संदर्भ में कर रहे हैं. चेन्नई की बाढ़ के बाद क्या कुछ हुआ, क्या नदी और तालाब की ज़मीन को आज़ाद कराया गया, वहां से आबादी हटाई गई, नहीं. तो क्या हम जानबूझ कर नदियों के रास्ते में डूब जाने और मर जाने के लिए नहीं खड़े हैं. छह राज्यों से गुज़रने वाले पश्चिमी घाट के सबसे दक्षिण में पड़ता है केरल जहां से 44 छोटी बड़ी नदियां निकलती हैं. इनमें सबसे लंबी है पेरियार नदी. केरल की इस तबाही में यह बात आम रूप से सामने आ रही है कि जंगल काटे गए हैं. नदियों के मैदान में अतिक्रमण कर बस्तियां बसाई गई हैं. एक तरफ से देखेंगे तो साफ हो जाएगा कि नदी में बाढ़ नहीं आई, बस्तियां बाढ़ के मैदान में जा बसी थीं, तबाही होनी ही थी.

एक वीडियो कोयम्बटूर से चलने वाले कोवई पोस्ट की एडिटर विद्याश्री धर्मराज ने हमें दी है. विद्याश्री पलक्कड ज़िले के घर में है जो पूरी तरह डूब गया था. यह घर कलपाकी नदी के किनारे बना हुआ है यानी नदी के बहाव के रास्ते में. ज़ाहिर है नदी अपने रास्ते जा रही थी, रास्ते में लोग घर बनाकर बैठे थे. सिस्टम ने उस वक्त नहीं देखा जब घर बन रहे थे. दस बीस साल बाढ़ नहीं आती है तो हम निश्चित हो जाते हैं. जब मल्लमपुरा डैम और वालयर डैम का पानी भर गया तो जैसे ही पानी छोड़ा गया कलपाकी नदी का जलस्तर काफी बढ़ गया. नतीजा तबाही. भारी मात्रा में लोगों की जमा पूंजी नष्ट हो गई है. संपत्ति बर्बाद हो गई है.

इसी तरह धान के खेतों को भर कर मकान बनाए गए हैं और बनाने दिए गए हैं. तालाबों को भरा गया है. अभी हमारे सामने इस बात के रिकार्ड नहीं है कि केरल के 80 से अधिक डैम की आखिरी बार सफाई कब हुई थी. केरल सरकार को बाकायदा पब्लिक के सामने यह रिपोर्ट रखनी चाहिए कि किस डैम के गाद की सफाई कब हुई थी. डैम का गेट खोला गया उस वक्त रास्ते में आने वाली बस्ती को किस तरह से अलर्ट किया गया. इन सबके आधिकारिक जवाब का इंतज़ार किया जाना चाहिए. अब हम आते हैं माधव गाडगिल रिपोर्ट पर. 2011 में यह रिपोर्ट आ गई थी.

क़रीब डेढ़ साल के व्यापक अध्ययन के बाद तैयार गाडगिल रिपोर्ट में पूरे पश्चिमी घाट को ecologically sensitive घोषित करने की सिफ़ारिश की गई थी. इसके लिए पश्चिमी घाट को तीन ख़ास Ecologically Sensitive Zones में बांटा गया था. कहा गया था कि Ecologically Sensitive Zone 1 में बड़ी स्टोरेज वाला कोई भी नया बांध नहीं बनाया जाना चाहिए. इस इलाके में बने अथिराप्पिल्ली और गुंडिया हाइडल प्रोजेक्ट्स को पर्यावरण मंज़ूरी नहीं दी जानी चाहिए. गोवा में पड़ने वाले ESZ 1 और ESZ 2 में खनन से जुड़े प्रोजेक्ट्स को अनिश्चित काल के लिए मंज़ूरी न दी जाए. ESZ 1 में 2016 तक खनन को धीरे-धीरे बंद कर दिये जाने का सुझाव दिया गया था. जबकि ESZ 2 के तहत आने वाले इलाकों में सख़्त नियमों और कड़ी निगरानी के तहत ही खनन की बात कही गई थी.

अगर इस रिपोर्ट के सुझावों पर अमल होता तो पूरे इलाके में अंधाधुंध खनन और निर्माण का काम काम रुक जाता है. नदियों के किनारे निर्माण नहीं होता और बेतरतीब तरीके से रिहाइशी इलाकों का विस्तार नहीं होता. मगर सरकार ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया. एक और कमेटी बना दी गई जो हमारे सामने कस्तूरीरंगन रिपोर्ट की शक्ल में आई. इसने काफी कुछ ढील दे दी लेकिन इस रिपोर्ट में भी जो सुझाव दिए उस पर भी किसी ने अमल नहीं किया. कस्तूरीरंगन कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर पर्यावरण मंत्रालय ने पश्चिमी घाट के क़रीब 57 हज़ार वर्ग किलोमीटर इलाके को ही पर्यावरण के लिहाज़ से संवेदनशील माना. इस पूरे इलाके में खनन, बड़े निर्माण, थर्मल पावर प्लांट, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर पूरी तरह पाबंदी लग गई. केरल में इसके तहत 13,108 वर्ग किलोमीटर में पाबंदी लगनी थी लेकिन राज्य सरकार की ओर से ऐतराज़ किए जाने के बाद केरल का पश्चिमी घाट में पड़ने वाला सिर्फ़ 9994 वर्ग किलोमीटर इलाका ही नोटिफाई किया गया.

इसीलिए केरल की बाढ़ जितनी प्रकृति की तबाही नहीं है उससे कहीं ज्यादा सरकारों की लापरवाही है. इन जगहों पर पर्यावरण का जब भी सवाल उठता है हमेशा मज़ाक उड़ाया जाता है कि विकास का विरोध करने वाले आ गए. बस लोगों को मौका मिल गया और वे नदियों के किनारे बस्तियां बसाने लगे. 10 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हैं. 5645 राहत शिविर बनाए गए हैं. 3700 मेडिकल कैम्प बनाए गए हैं. बाहर के राज्यों से पीने का पानी लाया जा रहा है. दस लाख से ज्यादा लोग इन शिविरों में रह रहे हैं. मौसम विभाग का कहना है कि अगले पांच दिनों तक बारिश से राहत रहेगी. इक्का दुक्का छोड़ कर पहले की तरह तेज़ बरसात के आसार नहीं है. पानी पीछे हटने से कई जगहों से शव मिलने लगे हैं. इसके बाद भी बिजली और पानी की व्यवस्था बहाल नहीं हो पाई है. 20,000 करोड़ से ज्यादा की बर्बादी हुई है. किसी ने नहीं सोचा था कि पानी उनके घर की छत तक आ जाएगा क्योंकि घर बनाने से पहले उन्हें किसी ने नहीं बताया था कि नदियों के आस-पास के इलाके भर दिए गए हैं. पानी आएगा ही आएगा. आज नहीं तो दस साल बाद आएगा मगर बर्बादी आएगी. यह बात हमारे जानकारों के हज़ारों लेख और किताबों में दर्ज है. बस बाढ़ के पहले और बाढ़ के बाद हम उन्हें न तो पढ़ते हैं और न अमल करते हैं.

बर्बादी के कई रूप हैं. कोझीकोड ज़िले में 19 साल का कैलाश जब राहत शिविर से घर गया तो देखा कि उसका सर्टिफिकेट बाढ़ के पानी में ख़राब हो गया है. उसे लगा कि सब कुछ बर्बाद हो गया है. उसने फांसी लगा ली. सरकार को तुरंत इस पर लोगों को बताना चाहिए कि आधार कार्ड, राशन कार्ड या सरकारी दस्तावेज़ के खो जाने या नष्ट हो जाने पर वह क्या करने वाली है. इस बीच केरल की मदद के लिए बड़ी संख्या में आम लोग सामने आ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के तमाम जज अपनी एक महीने की सैलरी देंगे. सांसद और विधायक भी ऐसा कर रहे हैं. कई राज्यों के आईएएस अफसर भी अपनी सैलरी का हिस्सा दे रहे हैं. केरल की 11वीं की एक छात्रा ने एक एकड़ ज़मीन मुख्यमंत्री राहत कोष में दे दी है. स्वाहा ने जो ज़मीन दान में दी है, बाज़ार में उसकी कीमत 50 लाख बताई जाती है. उसके किसान पिता ने अपनी बेटी के नाम एक एकड़ ज़मीन कर दी थी. 21 साल की हनन ने मछली बेचकर अपनी पढ़ाई के लिए पैसे जमा किए थे. हनन ने डेढ़ लाख रुपये मुख्यमंत्री राहत कोष में दे दिया है. केरल मदद के ऐसे अनेक किस्सों से भरा है. इसके बाद भी भारतीय रिज़र्व बैंक के निदेशक नियुक्त किए गए हैं एस गुरुमूर्ति. उनके एक ट्वीट पर काफी विवाद हो रहा है. उन्होंने ट्वीट किया है कि सुप्रीम कोर्ट के जज ये देखना चाहेंगे कि केरल की बाढ़ और सबरीमला में जो हो रहा है उसमें क्या कोई कनेक्शन है. अगर इसका दस लाख में एक चांस भी है तो लोग नहीं चाहेंगे कि अयप्पन के ख़िलाफ़ केस का फ़ैसला हो.

रिज़र्व बैंक के निदेशक ऐसी बातें करें, यह तय भारतीय रिज़र्व बैंक को करना चाहिए कि ऐसी सोच लेकर वे अपने नए निदेशक का कैसे स्वागत कर सकते हैं. एस गुरुमूर्ति की यह राय पुरातनपंथी है. भारत की महिलाओं का अपमान है.

केरल में जो भी हुआ है, उसमें प्रकृति का रोल उतना नहीं है जितना सिस्टम की उस नाकामी है जो ठेकेदारों और उद्योगपतियों के लालच पर लगाम नहीं लगा पाता है. वर्ना चेन्नई से लेकर केरल तक में एक ही पैटर्न पर तबाही नहीं आती. अगर यह बात आप सभी स्वीकार करते हैं कि तबाही इंसानी चूक के कारण आई है, सिस्टम ने इसे न्यौता दिया है तो क्या बाढ़ से प्रभावित हर व्यक्ति को मुआवज़ा नहीं मिलना चाहिए. आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में मुआवज़े का अधिकार एक नया विचार है. जो धीरे-धीरे जगह ले रहा है. हमारे सहयोगी हिमांशु शेखर मुआवज़े के अधिकार को लेकर दुनिया में कई जगहों पर अपना शोध प्रबंध पढ़ चुके हैं.

हमारी ही सरकारों की लापरवाही और मनमानी का नतीजा है कि केरल का सबसे बड़ा कोच्चि अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा इस बाढ़ के कारण बंद पड़ा है. दरअसल ये हवाई अड्डा पेरियार नदी की एक सहायक नदी चेंगल थोडू के फ्लड प्लेन में बना है. 1999 में जब ये बना तो पेरियार नदी इससे सिर्फ़ 400 मीटर दूर थी. हवाईअड्डे को बनाने के लिए पेरियार की सहायक नदी के बड़े फ्लडप्लेन को निर्माण से दबा दिया गया. जब ये आशंका जताई गई कि भारी बारिश में हवाईअड्डा कैसे बचेगा तो कहा गया कि मुल्ला पेरियार बांध से पानी पर नियंत्रण किया जा सकता है. लेकिन इस बार की बारिश ने बता दिया कि बांध की भी एक क्षमता होती है और बांध का जलाशय भरने पर पानी छोड़ना ही पड़ता है.

कोच्चि ही क्यों चेन्नई का हवाईअड्डा भी अड्यार नदी के फ्लडप्लेन से लगा हुआ है. दिसंबर 2015 की त्रासदी में चेन्नई एयरपोर्ट पर भी पानी भर गया था. यही नहीं मुंबई हवाई अड्डा भी मिठी नदी के फ्लडप्लेन पर कब्ज़ा कर बना हुआ है. 26 जुलाई 2005 को मुंबई में भारी बारिश के बाद मिठी नदी इसीलिए ओवरफ्लो हुई कि उसके रास्ते में जगह जगह ऐसा अंधाधुंध निर्माण हो चुका था जिसके चलते नदी का पानी समुद्र में नहीं पहुंच पाया. नवी मुंबई में बन रहा हवाईअड्डा भी एक बड़े दलदली इलाके में बनने जा रहा है और इसके लिए उलवे नदी का रास्ता भी मोड़ा जा रहा है.


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