कौन कहता है राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीति नहीं हो सकती

कौन कहता है राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीति नहीं हो सकती

प्रतीकात्मक फोटो

राजकुमार के थके हुए संवादों से लैस पोस्टर सर्जिकल स्ट्राइक का जश्न मना रहे हैं. ऐसे पोस्टर दिल्ली से लेकर तमाम शहरों में लगाए गए हैं. जल्दी ही चुनावी रैलियों में इन पोस्टरों की भाषा बोली जाने लगेगी. यह राजनीति नहीं तो क्या है? उरी हमले के बाद प्रधानमंत्री की चूड़ियों और सलवार वाली तस्वीरों से व्हाट्स ऐप की दुनिया भर दी गई, अच्छे भले लोग ऐसी तस्वीरों और चुटकुलों का साझा कर रहे थे, वो राजनीति नहीं थी तो क्या थी? जब भारत सरकार ने कहा कि जवाब दे दिया गया है, आतंकवादी मारे गए हैं तब व्हाट्स अप पर 56 ईंच का सीना वाली तस्वीरें घूमने लगीं. फिर से मोदी मोदी होने लगा. क्या ये राजनीति नहीं है?

क्या सर्वदलीय बैठक में  भी यह तय हुआ था कि इस पर राजनीति नहीं होगी? क्या विपक्ष ने ऐसा कोई लिखित या मौखिक आश्वासन लिया था? ऐसा लचर और आउटडेटेड विपक्ष हिन्दुस्तान के इतिहास में कभी नहीं रहा होगा. जब राष्ट्रीय सुरक्षा पर एकजुट होने का दावा किया जा रहा था, क्या तब यह भी तय हुआ था कि इस मसले पर पोस्टर सिर्फ बीजेपी या उसके समर्थक लगाएंगे और विपक्ष के सदस्य चुप रहेंगे? समस्या यह है कि कोई स्वीकार नहीं करना चाहता कि वह राजनीति कर रहा है. माफ कीजिए, कोई उरी के हमले और बाद के जवाब को लेकर भजन कीर्तन नहीं कर रहा है. सब राजनीति ही कर रहे हैं.

अगर सरकार के मंत्री किसी को यह हिदायत देते हैं कि वह इस मुद्दे पर राजनीति न करें तो पहले खुद बताएं कि वे ऐसा क्या कर रहे हैं जिससे लगे कि सरकार या बीजेपी के नेता इस मुद्दे पर राजनीति नहीं कर रहे हैं. क्या उसका पालन पार्टी से लेकर प्रवक्ता के स्तर पर किया जा रहा है? विपक्ष भी बताए कि वह कैसे इस मुद्दे पर राजनीति नहीं कर रहा है. दोनों ही पक्ष इस मसले पर राजनीति नहीं होनी चाहिए, बोल बोलकर राजनीति के सिवा कुछ और नहीं कर रहे हैं.

उरी के सेना कैंप पर जब हमला हुआ तब मोदी समर्थक और विरोधी दोनों एक ही भाषा बोलने लगे. दोनों ही सरकार और मुखिया का मजाक उड़ाने लगे. तब भी प्राइम टाइम और अपने लेख में कहा था कि यह अजीब तरीके से माहौल बनाया जा रहा है. क्या विरोधी यह चाहते हैं कि युद्ध हो जिसके लिए वे प्रधानमंत्री को ललकार रहे हैं. जैसे ही सरकार ने जवाब दिया विरोधी और समर्थक फिर से अपने-अपने पाले में जाकर एक दूसरे को गाली देने लगे हैं. सोशल मीडिया को अभद्र भाषा से भर दिया गया है. क्या यह राजनीति का हिस्सा नहीं है?

अच्छा है इस मसले पर प्रधानमंत्री चुप ही रहे लेकिन समर्थकों और विरोधियों ने मोर्चा खोल लिया है. समर्थकों की तरफ से इतने दावे किए गए कि विपक्ष को भी कुछ दावा करना ही पड़ा. सन 2008 के मुंबई हमले के दूसरे ही दिन मुख्यमंत्री के तौर प्रधानमंत्री मोदी मुंबई पहुंच गए थे. गुजरात सरकार की तरफ से शहीदों के परिजनों को एक करोड़ की राशि देने का ऐलान कर दिया, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के राष्ट्र के नाम संदेश की आलोचना की थी. उसी तरह कांग्रेस के तमाम नेता बीजेपी को हर चुनाव में घेरते रहे हैं कि आतंकवादियों को घर तक छोड़ने वाली पार्टी है यह.

इसलिए किसी को हैरान नहीं होना चाहिए कि इस मसले पर राजनीति क्यों हो रही है. हर चुनाव में आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा चुनावी मुद्दा रहा है. जाहिर है जो सत्ता में हैं उनको जवाब तो देना होगा. वो जितना करेंगे उतना या उससे ज्यादा भी बोलेंगे. कांग्रेस ने अपने समय में सर्जिकल स्ट्राइक की तो उसे किसने रोका था कि प्रचार न करे. क्या दुनिया की किसी किताब में लिखा है कि प्रचार नहीं किया जा सकता? क्या यूपीए के नेता सीएनएन बंद कर देते थे जब अमरीकी राष्ट्रपति इराक को तबाह करने वाले हर हमले पर प्रेस कांफ्रेंस कर जश्न मनाया करते थे. पुरानी परिपाटी टूट रही है. यह नया दौर है. विपक्ष को नए दौर के हिसाब से राजनीति करनी चाहिए. अगर विपक्ष से राजनीति नहीं हो पा रही है तो उसे कहना चाहिए कि वह नहीं कर पा रही है. सरकार और बीजेपी समर्थकों को भी कहना चाहिए कि वे राजनीति कर रहे हैं और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. वर्ना जहां-जहां राजकुमार के संवाद वाले पोस्टर लगाए गए हैं, उसे बीजेपी के लोग नगरपालिका में शिकायत कर हटवा दें. पोस्टर ही लगाना है कि अपने प्रधानमंत्री और अपने पार्टी अध्यक्ष के किसी बयान का लगा दें. क्या प्रधानमंत्री के संवाद कम पड़ गए कि बीजेपी समर्थकों को सतही राष्ट्रवादी फिल्मों से संवाद चुराने पड़ रहे हैं?

चिन्ता की बात है कि इस खेल में मीडिया राष्ट्रवाद और सैनिकों के सम्मान का सहारा लेकर राजनीति कर रहा है. जब जंतर-मंतर पर हमारे सैनिक एक रैंक एक पेंशन की मांग को लेकर कई दिनों तक धरने पर बैठे थे तब यही वह मीडिया था जो सैनिकों को उनके हाल पर छोड़ आया था. पुलिस ने सैनिकों के मेडल तक फाड़ डाले थे. सबने तस्वीरें देखी थीं. अब यही मीडिया सैनिकों के सम्मान के नाम पर सवालों को कुचल रहा है. सेना की कार्रवाई पर सब सवाल करते रहे हैं. यह कोई नई बात नहीं है. क्या सैनिकों के अधिक वेतन की मांग करने का सवाल भी देशद्रोही सवाल हो जाएगा? मीडिया जिस तरह का प्रोपेगैंडा रच रहा है, लोगों को लोगों से लड़ा रहा यह चिंताजनक है. दर्शक और पाठक अपने भीतर आ रहे इस बदलाव को दशकों तक नहीं समझ पाएंगे कि चैनल उन्हें अपने हित साधने के लिए मनोरोगी बना रहे हैं. बदहवासी पैदा कर बता रहे हैं और हमको आपको राष्ट्रवादी बना रहे हैं. रोज रात को टीवी चैनलों के जरिए नागरिकों को आदमखोर बनाने की प्रयोगशाला चलने लग जाती है. तमाशा की भी हद होती है.

राजनीति होना कोई बुरी बात नहीं है. राजनीति बुरी चीज नहीं है. कोई यह कहे कि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए, इसका मतलब है कि वह यह कह रहा है कि इस मुद्दे पर सिर्फ वही राजनीति करेगा बाकी सब ताली बजाएंगे. तमाम कामयाब राष्ट्रीय लम्हों में भी असहमतियां रहनी चाहिए. मीडिया का बड़ा हिस्सा इन असहमतियों को कुचलने का प्रयास कर रहा है. वो खुद एक राजनीतिक डिजाइन का हिस्सा बन गया है और वही भाषा बोलने लगा है कि राजनीति नहीं होनी चाहिए. जब भी सरकार और मीडिया की भाषा एक हो जाए, यह राजनीति के अलावा कुछ और नहीं है. बल्कि इससे खतरनाक राजनीति कुछ और नहीं हो सकती है. आम लोगों को इससे डरना चाहिए. सरकार की कामयाबी जनता के लिए होती है. जनता में विश्वास बढ़ाने का जरिया होती है. मीडिया उस कामयाबी के नाम पर सरकार के प्रति अपना विश्वास बढ़ा रहा है. जनता को सचेत हो जाना चाहिए.

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