क्यों ऐसे ही हैं सरकारी अस्पताल?

क्यों ऐसे ही हैं सरकारी अस्पताल?

देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बिलकुल ठीक नहीं है यह अब कोई खबर नहीं रह गई है. डॉक्टरों और कर्मचरियों के अलावा बेड, दवाओं व अन्य सामानों की कमी के साथ-साथ सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा उदाहरण भी सरकारी अस्पतालों में ही दीखता है. इसका सबसे ताजा उदाहारण कुछ दिन पहले कानपुर से मिला जहां एक बड़े अस्पताल में एक व्यक्ति अपने बीमार बच्चे का इलाज कराने ले गया और वहां एक जगह से दूसरी जगह भेजे जाने में हुई देर के कारण उसके बेटे की मौत हो गई. हालांकि ऐसी घटनाएं देश के हर राज्य और हर शहर में होती होंगी, लेकिन चूंकि उत्तर प्रदेश के निवासी आजकल रोज ही किसी न किसी अखबार या टीवी चैनल पर प्रदेश सरकार द्वारा राज्य के विकास के लिए किए गए (या किए जा रहे) काम का बखान देख रहे हैं, इसलिए यह संशय होना स्वाभाविक है कि आखिर सच क्या है.

सरकारी अस्पतालों मे भीड़ होना, बेड और स्ट्रेचर की कमी होना और डॉक्टर व अन्य कर्मचारियों, नर्स, तकनीशियन आदि की कमी होना आम बात है, लेकिन आज भी प्रदेश के अधिकतर लोगों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा कोई चारा है नहीं. निजी अस्पताल और तथाकथित नर्सिंग होम और मेडिकल रिसर्च सेंटर हर छोटे-बड़े शहरों और कस्बों में हर गली में खुले हैं लेकिन वहां न डॉक्टर हैं न स्टाफ, और किसी भी मरीज की हालत जरा भी बिगड़ने पर वे उन्हें नजदीक के सरकारी अस्पताल में ही भेजने की सलाह देते हैं.

सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों पर बड़ी संख्या में मरीज देखना और संसाधनों की कमी का होना एक बड़ा दबाव है, लेकिन इसके विपरीत यह भी सच है कि वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप हर कुछ साल में वेतन बढ़ोतरी, मनचाही पोस्टिंग पर सालों साल बने रहने की सुविधा, यदि प्रशासनिक पद पर हों तो सामान और दवाओं की खरीदारी, अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति, तबादला और प्रोन्नति का अधिकार, राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकार के अधिकारियों से नजदीकी बढ़ाने के मौके भी उन्हीं को मिलते हैं. वर्तमान सरकार ने पिछले चार सालों में केंद्रीय और प्रादेशिक योजनाओं को मिलाकर एक वृहद एम्बुलेंस स्कीम शुरू की, सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज, ऑपरेशन और जांच के अलावा मुफ्त दवा देने का ऐलान किया. इसके साथ ही प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की सीटें भी बढ़ाईं. लेकिन इसके साथ ही पिछले साल घोषित किए गए स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा खर्च न किए जाने के कारण सभी अस्पतालों में बेड, सामान और दवाओं की भारी कमी है.

सरकार के सूत्रों का मानना है कि कई अस्पताल और चिकित्सा केंद्र (प्राथमिक और सामुदायिक) बंद पड़े हैं क्योंकि वहां काम करने वाले लोग और सामान नहीं है. सरकारी अस्पतालों में काम कर रहे डॉक्टरों का कहना है कि कर्मचारी काम नहीं करते, और कर्मचारियों का आरोप है कि डॉक्टर मरीज देखने के बजाय निजी काम करते हैं. दोनों ही वर्गों को अपने-अपने काम और उसके बदले मे मिलने वाले वेतन और भत्तों से असंतोष है और वे जितना मिल रहा है उससे कहीं ज्यादा चाहते हैं.

तो आखिर समस्या है कहां और इसका समाधान कहां है? क्या डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे प्रदेश (और देश) के सामने इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है? क्या सरकारी अस्पताल ऐसे ही भीड़, धक्कामुक्की, बदइंतजामी, डॉक्टरों और कर्मचारियों के खराब रवैये, बेड की कमी, दवाओं की कमी, दवाओं की कालाबाजारी, समय से इस्तेमाल में न लाए जाने के कारण दवाओं और उपकरणों के बर्बाद हो जाने की खबरों के कारण चर्चा में रहेंगे? क्या उत्तर प्रदेश में पूरे हुए वादे और नए इरादों के पीछे का सच पुराना ही रहेगा?

यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं है कि बड़े शहरों और जिला मुख्यालयों पर स्थित जिला अस्पतालों में चिकित्सा अधीक्षक की नियुक्ति राजनीतिक सिफारिश से होती है और उन्हें हटाना आम तौर पर आसान नहीं होता. उनमें से अधिकतर को अपने अस्पताल ठीक से चलाने के बजाय अपने पद को बनाए रखने की चिंता सर्वोपरि होती है. बाकी समय उनके कमरों में उनके परिचित, अधिकारी, निजी रिश्तेदार या दोस्तों की भीड़ रहती है जिनके इलाज के लिए फोन और पर्ची का इस्तेमाल होता है. इसी तरह पैरा-मेडिकल स्टाफ, वार्ड ब्वाय और लैब तकनीशियन भी अपने लोगों के लिए जुगाड़ में ही लगे ज्यादा दीखते हैं.

ऐसे में यदि कोई मरीज आए तो उसके लिए या तो इमरजेंसी में जगह होनी चाहिए या उसे ओपीडी में देखा जाना चाहिए. चूंकि इमरजेंसी में आकस्मिक चिकित्सा के लिए आए मरीजों के लिए बाद में सम्बंधित वार्ड में जगह नहीं होती, इसलिए वे इमरजेंसी में ही रहते हैं. तो अब नए आए मरीज को इंतजार करने या वापस भेजे जाने के अलावा कोई चारा है?

बजट और सरकारी घोषणाओं में अस्पतालों के विस्तार के पीछे वास्तव में सच्चाई यही है कि अस्पतालों के सुधार के लिए वहां शीर्ष पर बैठे व्यक्ति - चाहे वह अधीक्षक हों या किसी और नाम से जाना जाता हो - की ही जिम्मेदारी सबसे ज्यादा होती है. यदि किसी भी सरकारी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज में  कुछ सराहनीय काम हुआ है उसके लिए कोई न कोई भूतपूर्व या वर्तमान अधीक्षक ही याद किया जाता है, और कर्मचारी याद करते हैं कि उक्त साहब के रहते ही कुछ अच्छा काम हुआ था. यही हाल छोटे अस्पतालों या चिकित्सा केंद्रों का भी है. सच तो यही है कि चूंकि ऐसे सभी पद राजनीतिक कारणों से भरे जाते हैं और शायद भ्रष्टाचार भी एक कारण हो सकता है, इसलिए इन पदों पर बैठे लोग अपने काम करने मे रुचि न दिखाकर दोष किसी और पर या किसी और स्थिति पर डालने की फिराक में रहते हैं. और सरकार के पास काम न करने वालों पर कार्रवाई करने का विकल्प नहीं है क्योंकि डॉक्टरों और अन्य स्टाफ की कमी के कारण यदि सख्ती की जाती है तो जो अभी काम कर रहें हैं उनके भी छोड़कर चले जाने का डर है.

ऐसा नहीं है कि कानपुर के लाला लाजपत राय अस्पताल, जिसे आम तौर पर उसके पुराने नाम हैलेट अस्पताल से जाना जाता है, में कभी अच्छे डॉक्टर न रहे हों, या वहां मरीजों का संतोषजनक अनुभव न रहा हो, लेकिन एक परेशान मरीज को उसके बीमार बेटे को कंधे पर लाद कर लाए जाने के बावजूद उसे समय रहते इलाज नहीं मिला और लड़के ने दम तोड़ दिया. यह घटना यदि अपने संस्थान में किसी कमी के कारण हुई तो उसे मान लेने में कोई गलती नहीं थी, लेकिन अस्पताल के अधीक्षक ने जो तर्क दिया (जिसके बाद उन्हें पद से निलंबित भी किया गया) उससे कानपुर व उत्तर प्रदेश के अस्पतालों व डॉक्टरों की छवि और गरिमा को गहरा धक्का लगा है. साथ ही सरकार के स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के दावों पर भी सवाल उठ रहे हैं.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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