राज्य चयन आयोग यूपीएससी से क्यों नहीं सीखते?

चयन आयोग की हालत पर हम लगातार रिपोर्ट कर रहे हैं. कोई भी सरकार अपना आंकड़ा नहीं बताती है कि उसने कितने विभागों में और कितने लोगों को और किस तरह की नौकरियां दी हैं. न ही सांसद पूछते हैं, न विधायक पूछते हैं और खुशी की बात है कि न ही आप पूछते हैं.

राज्य चयन आयोग यूपीएससी से क्यों नहीं सीखते?

क्या कोई है जो बिहार के छपरा के जयप्रकाश नारायण यूनिवर्सिटी में फंसे हज़ारों छात्रों को बाहर निकाल सकता है. ये छात्र वैसे ही फंसे हैं जैसे पिछले साल मुंबई के कमला मिल्स में लगी आग में लोग फंस गए थे और एक सुदर्शन शिंदे नाम के जांबाज़ सिपाही ने 8 लोगों को अपने कंधे पर लादकर बाहर निकाला था. छपरा की जेपी यूनिवर्सिटी के छात्रों को सिपाही सुदर्शन शिंदे की ज़रूरत है जो वहां कई साल से फंसे छात्रों को बाहर निकाल सके. ये छात्र कई साल से वहां बीए में एडमिशन लेकर फंसे हैं. नौकरी पर चल रही सीरीज़ का आज छठा एपिसोड है. हमने यूनिवर्सिटी पर 27 दिनों तक लगातार एपिसोड किया था, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा. तब छात्रों को भी फर्क नहीं पड़ा. अब बेरोज़गारी का सवाल उठा रहा हूं तो छात्रों को यूनिवर्सिटी की हालत याद आ रही है. इसकी वजह से उनकी संभावनाएं चयन आयोग के दरवाज़े पर पहुंचने से पहले ही समाप्त की जा चुकी थीं. भारत में नौजवानों को बर्बाद करने का नेशनल प्रोजेक्ट इतने स्तर पर चल रहा है कि, जिसे समझने की क्षमता उन नौजवानों में भी नहीं है. 

अगर कोई छात्र आपको यह मेसेज करे कि उसका एडमिशन 2014-17 के बीए के बैच में हुआ था. मगर तीन साल में एक ही वर्ष की परीक्षा हुई है. इस हिसाब से तीन साल का बीए छह साल में होगा. 2013-16 बैच के छात्रों का भी बीए पूरा नहीं हुआ है. बहुत से छात्रों को तीसरे साल की परीक्षा पर रोक लगी है. जितनी सीटें मंज़ूर थी, उससे ज़्यादा सीटों पर एडमिशन हो गया है. यह कहकर इन छात्रों को थर्ड ईयर की परीक्षा में बैठने नहीं दिया जा रहा है. यानी 2013 से 18 आ गया, छात्रों का स्नातक पूरा नहीं हुआ है. जय प्रकाश नारायण के नाम पर हमारे नेता मूर्ति बना देते हैं, उनके गांव में जुटकर कुछ कुछ बोल देते हैं मगर उनके नाम पर बनी यूनिवर्सिटी आज छात्रों के लिए जेल बन गई है. जिस जेपी ने छात्रों को जेल से निकाल कर लड़ना सिखाया था, उसके नाम पर छात्र बीए करने के लिए चार-चार साल से कॉलेजों में बंद हैं. वीसी के पास कारण बहुत हैं. उन कारणों को वही सुनें, लेकिन अगर आपके बच्चे के साथ ऐसा हो तो क्या आप बर्दाश्त करेंगे. 

चयन आयोग की हालत पर हम लगातार रिपोर्ट कर रहे हैं. कोई भी सरकार अपना आंकड़ा नहीं बताती है कि उसने कितने विभागों में और कितने लोगों को और किस तरह की नौकरियां दी हैं. न ही सांसद पूछते हैं, न विधायक पूछते हैं और खुशी की बात है कि न ही आप पूछते हैं. वरना सरकार को बताने में कितना वक्त लगेगा कि उसने कितनी नौकरियां दी हैं. क्या यह अजीब नहीं है कि सरकार अपना आंकड़ा नहीं बताती है और प्राइवेट सेक्टर में रोज़गार पर हुए अध्ययन पर झूमने लग जाती है. अगस्त 2015 से लेकर अभी तक यानी साढ़े तीन साल में हरियाणा में 55,505 पदों के लिए भर्ती निकली हैं और अभी तक कई हज़ार पदों पर भर्ती की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है. अगर आप इस 55,505 पदों की भर्ती को देखें तो हरियाणा ने एक साल में 18,500 पदों की भर्ती निकाली है. एक करोड़ से ज्यादा आवेदन जमा किए गए हैं. इनमें से मात्र 27 लाख आवेदकों की लिखित परीक्षा हुई है. आयोग का दावा है कि 16,486 पदों पर नियुक्ति हो चुकी है. हरियाणा ने एक साल में 5,482 नौकरियां ही छात्रों को मिली हैं

इसी तरह अगर आपको बंगाल, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश से आंकड़े मिलने लग जाएं तो सरकारी रोज़गार की तस्वीर दिख सकती है. कई मंत्री लोग ज्ञान देने लगते हैं कि सरकार सबको रोज़गार नहीं दे सकती. रोज़गार के लिए सरकार पर निर्भर रहना ठीक नहीं. इतना सब कहने की ज़रूरत नहीं है. वे या तो यह कह दें कि सरकारी नौकरी नहीं देंगे, क्या कर लेंगे या फिर सीधे तौर पर बताएं कि कितनी नौकरी दी है. अब आपको झारखंड की एक त्रासदी दिखाते हैं. उम्मीद करता हूं कि कम से कम दुख तो होगा ही अगर कुछ न होगा तो. 

पुलिस की वर्दी में ट्रेनिंग पाते उन नौजवानों की यह तस्वीर है जो झारखंड में दारोगा, कंपनी कमांडर और सार्जेंट मेजर के पद के लिए नियुक्त हुए थे. एक साल तक इन नौजवानों की वर्दी में ट्रेनिंग चलती रही. ट्रेनिंग के दौरान की तस्वीरें बताती हैं कि इनकी उम्मीदें इनके सपने किस तरह छलक रहे हैं. नई ज़िंदगी शुरू होने जा रही है. समाज में इज़्ज़त मिलेगी और महीने के चार पैसे मिलेंगे और हम काम करेंगे. एक साल की ट्रेनिंग के बाद इनकी ज़िलों में पोस्टिंग होती है, ये एक साल काम भी करते हैं लेकिन उसके बाद इनमें से 42 अफसरों से कहा जाता है कि आपकी गलत बहाली हो गई थी. नौकरी रद्द होती है. उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है. इस तरह का मज़ाक भारत में ही हो सकता है क्योंकि यहां जाति और धर्म के आगे राजनीति को दूसरे सवालों का सामना नहीं करना पड़ता है. किसी को धर्म के आधार पर सनका दीजिए, किसी को जाति के आधार पर पगला दीजिए, फिर किसी को भर्ती कर वर्दी उतार लीजिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा. जनता आपके साथ रहेगी मगर ये तस्वीरें हमारे सिस्टम की वो दास्तां बयां कर रही हैं जिसे देखकर आपको यही लगेगा कि आप बच गए. 

झारखंड में 2008 में 384 पदों के लिए विज्ञापन निकला था. 2011 आ गया यानी तीन साल तक प्रक्रिया चली और परीक्षा ख़त्म हुई. रिज़ल्ट आया. 54 सार्जेंट मेजर, 52 कंपनी कमांडर और 278 दारोगा का चयन हुआ. इनका दावा है कि निकालते वक्त यह बताया गया कि आपका जिस समय चयन हुआ था उस समय सेलेक्शन का आधार कुछ और था, अब कुछ और हो गया है. इसलिए नई मेरिट लिस्ट में आपका नाम नहीं है. 

मार्च 2014 में ये 42 लोग कोर्ट चले गए. कोर्ट ने कहा कि सेलेक्शन कमेटी की गलती है. उम्मीदवार की कोई ग़लती नहीं है, इसलिए इनकी बहाली हो. चार सप्ताह बाद तक इनकी ज्वाइनिंग नहीं हुई. ये फिर कोर्ट में गए. पांच छह महीने बाद सरकार कोर्ट के फैसले को डबल बेंच में ले गई. 2014 से अब 2018 आ गया है ये 42 लोग अदालत की लंबी प्रक्रिया और नाइंसाफी का बोझ ढो रहे हैं. 

यह कहानी है. कोर्ट से भी आदेश है फिर भी ये 42 दारोगा दर दर भटक रहे हैं. कुछ पता नहीं कि इनकी ज़िंदगी कहां जाकर रूकेगी. बेरोज़गारी की मार किस रूप में है हम नहीं जान सकते. पश्चिम बंगाल से एक युवक देबाशीष घोष ने लिखा है कि वह महंगे फॉर्म नहीं भर सकता है. उसके पिताजी महीने में 4000 कमाते हैं. वो किसी तरह 2000 कमा पाता हैं. इतनी कमाई में कई बार सारे फॉर्म भरना मुश्किल हो जाता है. कुछ फॉर्म के लिए 1000-1000 रुपये मांगे जाते हैं. हमारे जो भी नेता इन युवकों को ठग रहे हैं वो इतना तो कर सकते हैं कि सरकारी नौकरी के लिए फॉर्म भराई सभी श्रेणी के छात्रों के लिए फ्री कर दें. हमें अंदाज़ा नहीं है कि फॉर्म की फीस को लेकर भारत के प्यारे नौजवान किन दुखों को सहते हैं. इसी तरह एक महिला ने एक टिप्पणी भेजी है. 

इंजीनियरिंग छात्रों की व्यथाएं कैसी-कैसी हैं पता नहीं चलता. शुक्र वही वाला टॉपिक है जिसके ज़हर से नौजवान नशे में है और दर्द का पता भी नहीं चलता. कुछ हफ्ते पहले इंडियन एक्सप्रेस की रीतिका चोपड़ा ने इंजीनियरिंग कॉलेजों की थर्ड क्लास पढ़ाई और उनकी खस्ता हालत पर बहुत विस्तार से रिपोर्ट किया था. आप पढ़िए और यू ट्यूब में जाकर हमारी यूनिवर्सिटी सीरीज़ के सभी 27 एपिसोड देखिए. आपको ऐसा भारत दिखेगा जिसे सब मिलकर ठग रहे हैं और उस ठगी में जाने अनजाने आप भी शामिल हैं. यूपीएससी भी लाखों परीक्षार्थियों की परीक्षा को हैंडल करता है, उसमें भी कोर्ट केस होते हैं, विरोध प्रदर्शन होते हैं लेकिन रिज़ल्ट हीं रुकते. राज्यों के एसएससी क्या इससे कुछ सीख नहीं सकते. इधर झारखंड में 29 जनवरी से होने वाली संयुक्त असैनिक सेवा परीक्षा का मेन्स रद्द कर दिया गया है. हमने नौकरियों पर प्राइम टाइम के चौथे एपिसोड में बताया था कि झारखंड लोक सेवा आयोग की छठी जेपीएसी परीक्षा का विज्ञापन सबसे पहले जनवरी 2015 में निकला था. जनवरी 2016 तक फॉर्म ही भराता रहा. 18 नवंबर 2016 को इसकी पीटी परीक्षा होती है और फरवरी 2017 में रिज़ल्ट आता है. तय था कि 29 जनवरी को इसकी मेन्स परीक्षा होगी, लेकिन अब 29 जनवरी को मेन्स की परीक्षा नहीं होगी. जनवरी 2015 से जनवरी 2018 आ गया अब इसकी मेन्स परीक्षा का पता नहीं है.

23 जनवरी को बीजेपी के विधायक और वहां के नेता प्रतिपक्ष ने विधानसभा में सवाल किया था. 24 जनवरी को झारखंड मंत्रिमंडल ने फैसला किया है कि 29 जनवरी को होने वाली मेन्स की परीक्षा नहीं होगी. इस आदेश में लिखा गया है कि इस परीक्षा के संदर्भ में कुछ अभ्यर्थियों ने इस प्रकार की आपत्तियां की हैं. आरक्षित श्रेणी के जिन छात्रों ने उम्र सीमा में छूट का लाभ नहीं लिया है. उन छात्रों का नाम भी आरक्षित छात्रों वाली लिस्ट में आ गया है. झारखंड सेवा आयोग ने 31/10/2012 के प्रावधानों का पालन नहीं किया है. जो कारण बताए गए हैं उससे यही लगता है कि ग़लती छात्रों की नहीं है. आयोग की तरफ से यह चूक हुई है. छात्रों की बस ज़िंदगी बर्बाद हुई है. आप सोचिए जो परीक्षा 2015 से शुरू हुई थी वो 2018 तक पूरी नहीं हुई है. पत्र में लिखा गया है कि इस मामले में अंतिम निर्णय लेने में समय लगने की संभावना है इसलिए 29 जनवरी को होने वाली मुख्य परीक्षा रद्द की जाती है. आप छात्र अंतिम निर्णय आने की प्रतीक्षा करेंगे. ये हैं हमारे नौजवानों के भविष्य के साथ हो रहा मज़ाक. कारण जो भी रहे हों क्या किसी सरकारी संस्था को कारणों की इतनी छूट मिलनी चाहिए कि तीन साल तक किसी परीक्षा का सिर्फ पीटी हो. मेन्स तक न हो. ये आपको सोचना है.

हमें छात्रों ने दो और सूचनाएं भेजी हैं, जिसे हम अपनी तरफ से भी पता कर रहे हैं फिलहाल हम चाहते हैं कि आपको बता दिया जाए. BSNL ने जून 2015 में मैनेजमेंट ट्रेनी की पोस्ट के लिए आवेदन मंगाया. आवेदन शुल्क 1500 रुपये थे. कुछ दिनों बाद वेबसाइट पर मेसेज आया कि परीक्षा नहीं होगी. आवेदन शुल्क वापस हो जाएगा. ये 2018 हो गया है अभी तक छात्रों को आवेदन शुल्क के 1500 रुपये नहीं मिले हैं. एक तरह से बीएसएनल ने बेरोज़गारों से ही पैसा कमा लिया. तीन साल का ब्याज़ भी तो होगा वो भी जोड़ लें. इसलिए सरकारों को और राजनीतिक दलों को यह कहना चाहिए कि अब सरकारी परीक्षा के फॉर्म के लिए कोई पैसा नहीं लिया जाएगा. निशुल्क इम्तहान होगा. वैसे यह छठा एपिसोड है मगर विपक्ष के नेता को भी लगता है कि वही वाला टॉपिक देखते हैं. कोई भी रोज़गार के सवाल को लेकर सड़क पर नहीं आना चाहता.

विपक्ष को पता है कि सरकार में आकर वादा करना मुश्किल होगा. फिर भी जिन्हें वोट दिया है उनसे भी और विपक्ष के नेताओं से पूछिए कि हमारा सवाल क्यों नहीं उठाते हैं और आप सत्ता में आएंगे तो कैसे हमें रोज़गार देंगे. प्लान मांगिए. नीति पूछिए. एक नवयुवक ने लिखा है कि मेरी उनके पिताजी ने 1980 में रेलवे की परीक्षा का फॉर्म भरा था. 1987 में ज्वाइन किया. सात साल बाद. उनका कहना है कि यह पुरानी समस्या है. आईआईटी से टैक्सटाइल इंजीनियरिंग में पास किए एक नौजवान ने ईमेल किया है. उसका कहना है कि खादी ग्रामोद्योग आयोग ने ग्रुप-बी और सी के लिए 342 भर्ती निकाली. 27.11.2017 तक ऑनलाइन फॉर्म भरने की अंतिम तिथि थी. एक दिन नोटिस आता है कि अगले आदेश तक के लिए भर्ती की प्रक्रिया स्थगित की जाती है. नौकरी का विज्ञापन निकालना, बीच प्रक्रिया में स्थगित करना यह सब आम बात है. इस पूरी प्रक्रिया में छात्रों के साथ नाइंसाफी हो रही है. फॉर्म बेचकर करोड़ों कमाया जा रहा है. खादी ग्रामोद्योग की इस परीक्षा के लिए फॉर्म भरने के 600 और 1200 रुपये रखे गए थे. किसी का पैसा वापस नहीं आया है और न ही वह अगला आदेश आया है. इसके आने के नाम पर प्रक्रिया स्थगित कर दी गई. 
हमारी सीरीज़ से स्टाफ सलेक्शन कमिशन काफी परेशान है. एक बात की दाद देनी होगी कि चेयरमैन असीम खुराना कम से कम अब जवाब दे रहे हैं. लंबा-लंबा पत्र वेबसाइट पर डाल रहे हैं. पर उन्हें मैं यकीन दिलाना चाहता हूं कि मैं किसी बुरी नीयत से यह काम नहीं कर रहा हूं. 20,000 नौजवानों को अप्वाइंटमेंट लेटर मिल जाए इसमें मेरी बुरी नीयत क्या हो सकती है. इस काम में तो किसी भी नेता और मंत्री को जान लगा देना चाहिए, क्योंकि छात्र नौकरी मिलने के बाद उन्हीं की जयकार करेंगे, मेरी नहीं. इसलिए उन्हें सरकार के विभागों से यह बात कहनी चाहिए कि रिज़ल्ट आए साढ़े चार महीने हो गए हैं, नौजवानों को ज्वाइनिंग करा दीजिए. फिर भी खुराना जी ने जो जवाब दिया है उसका एक पार्ट है. मुझे गलत साबित करना, दूसरा पार्ट है अपने आयोग की छवि बचाना.

एक हफ्ते में उन्होंने दोबारा पत्र लिखा है और हम इसकी तारीफ करते हैं कि वह जवाब तो दे रहे हैं. उनके पत्र का ये हिस्सा इस तरह है. संयुक्त उच्चतर माध्यमिक (10+2) स्तरीय परीक्षा, 2015 का प्रश्न है (एनडीटीवी द्वारा उल्लिखित दो परीक्षाओं में एक परीक्षा) यह दोहराया जाता है कि इस परीक्षा का परिणाम आयोग को सूचित 9,194 रिक्तियों को भरने के लिए दिनांक 28 अगस्त, 2017 को घोषित किया गया था. चयनित अभ्यर्थियों में से 8,900 अभ्यर्थियों को डोज़ियर सितंबर-अक्टूबर 2017 में संबंधित प्रयोक्ता विभागों को भेजे जा चुके हैं. शेष 294 अभ्यर्थियों के मामलों में सत्यापन/समीक्षा का काम संबंधित अभ्यर्थियों तथा केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं (सीएफ़एसएल) के सहयोग से किया जा रहा है और इसे शीघ्र पूरा कर लिया जाएगा. यह स्पष्ट किया जाता है कि उचित सत्यापन के बाद वास्तविक नामित अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र जारी करने का दायित्व संबंधित मंत्रालयों/ विभागों का है. अभ्यर्थियों की नियुक्ति पत्र जारी करने के संबंध में आयोग की कोई भूमिका नहीं है. एनडीटीवी के एंकर को इस स्थिति की स्पष्टतया जानकारी नहीं थी. 

मैं आयोग का चेयरमैन नहीं हूं इसलिए मुझे कैसे जानकारी होगी, लेकिन कोर्ट केस हो या जो भी कारण हो, क्या किसी की नियुक्ति को किसी इम्तहान को इतने लंबे समय तक लटकाना जायज़ है. इससे बीस हज़ार से अधिक छात्रों पर क्या गुज़र रही है. आखिर अलग-अलग विभागों के मंत्री क्यों नहीं बोल रहे हैं कि कब से इन्हें नियुक्ति की चिट्ठियां मिलेंगी. जब भी छात्र अलग-अलग विभागों में फोन करते हैं, जैसे डाक विभाग, एक्साइज़ विभाग, सीएजी तो कोई जवाब नहीं मिलता है. आज मीडिया के लिए एक बड़ी खबर है, 9 पत्रकारों ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी कि सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की सुनवाई के कवरेज पर रोक नहीं लगनी चाहिए. सीबीआई की विशेष अदालत ने फैसला दिया था कि मीडिया कवरेज नहीं करेगा.

हमारे सहयोगी सुनील सिंह भी याचिकार्ता में से एक हैं. सीबीआई की स्पेशल कोर्ट का आदेश 29 नवंबर 2017 को था. बांबे हाईकोर्ट का यह फैसला मीडिया के लिए बड़ी जीत है. बॉम्बे हाईकोर्ट की न्यायाधीश रेवती मोहिते डेरे का यह फैसला कई मायनों में ऐतिहासिक माना जा रहा है. एक आरोपी की मांग पर सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई सालों से चल रही थी. कभी उसकी रिपोर्टिंग पर सवाल नहीं उठा. अब गवाहों का बयान होना है. 40 गवाहों के बयान हो चुके हैं. 28 अपने बयान से मुकर चुके हैं. मामला 2005 का है. इस मामले में अमित शाह, गुलाब चंद कटारिया और डीजी वंजारा पर आरोप लगा था, मगर उन पर आरोप खारिज हो गए. अभी भी इस केस में 23 पुलिस वाले आरोपी हैं. न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे का कहना है न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए भी दिखना चाहिए. खुली अदालत का उद्देश्य ही यही है मीडिया एक सशक्त माध्यम है. 

जज रेवती मोहिते डेरे ने ने यह भी कहा कि क्या जज के पास ऐसे आदेश को पारित करने की शक्तियां हैं, क्या पाबंदी के आदेश संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हैं. लोग यह जानने के हकदार हैं कि न्याय वितरण व्यवस्था पर्याप्त है या नहीं? क्या राज्य मशीनरी का दुरुपयोग कर रहा है? बात-बात में नेता अपने खिलाफ रिपोर्ट को छपने से रोकने के लिए कोर्ट का आदेश ले आते हैं. उस संदर्भ में यह आदेश वाकई ऐतिहासिक है.


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