प्राइम टाइम इंट्रो : अदालतों में क्यों टलती रहती है सुनवाई?

सुप्रीम कोर्ट से एक अच्छी शुरुआत हो रही है. इस बार गर्मी की छुट्टियों में 28 में से 15 जज तीन महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करेंगे. इसके लिए तीन तीन जजों की बेंच बनाई गई है. तीन तलाक, बहुविवाह के साथ-साथ व्हाट्सऐप, फेसबुक करने वालों की निजता के अधिकार पर भी सुनवाई होगी. एक और मामला है. अवैध रूप से जो शर्णार्थी आए हैं उनके बच्चों को नागरिकता दिये जाने के मामले में भी सुनवाई होगी. यह भी अच्छा है. वर्षों तक सुनवाई होने से अच्छा है कि इस तरह से कुछ महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई छुट्टियों के दौरान पूरी कर ली जाए. फैसला हो जाए तो और भी अच्छा. 24 अप्रैल 2016 को प्रधानमंत्री मोदी ने जजों की सभा में छुट्टी को लेकर आग्रह किया था कि इस बारे में सोचा जाना चाहिए वर्ना कोर्ट का समय कभी बढ़ाया ही नहीं जा सकेगा. हम सब इस बात के आदी होते जा रहे हैं कि अदालतों में जजों की संख्या कम है, वर्षों तक सुनवाई ही चलती रहती है. इसे लेकर एक संस्‍था ने अध्ययन किया है कि क्यों देरी होती है. विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी नाम की संस्था ने अध्ययन किया है.

इसके लिए दिल्ली हाई कोर्ट के 1,129 मामलों से जुड़े 8,086 आदेशों का अध्ययन किया गया है. सैंपल के तौर पर इन आदेशों का चुनाव 2011-15 के बीच दायर 2,02,595 मामलों में से किया गया है. इनमें से 1,22,245 केस को आठ श्रेणियों में बांट कर उनका सैंपल लिया गया है. सुनवाई से लेकर फैसले तक पहुंचने में देरी के कारणों का पता लगाने की कोशिश की गई है.

न्यायिक देरी के सवाल को अक्सर हम धारणा के स्तर पर ही समझते हैं. क्यों देरी होती है इसके कारणों पर कम चर्चा होती है. क्या जज साहब की ग़ैर हाज़िरी के कारण देरी हुई, या वकील साहब ने बार-बार अकारण स्थगन आदेश ले लिया, या वकील ही हाज़िर नहीं हुए, या अदालत के पास वाकई इतने मामले होते हैं कि हर केस पर जिनता समय देना चाहिए उतना होता ही नहीं है. विधि लीगल सेंटर ने पता लगाने की कोशिश की है कि सबसे अधिक देरी किस कारण से होती है. अडजर्नमेंट यानी स्थगन आदेश के कारण होती है. अडजर्नमेंट सबसे बड़ा कारण निकला है. 91 फीसदी जिन मामलों में देरी हुई है उनमें अडर्जमेंट एक कारण तो है ही. 70 फीसदी केस में तो तीन तीन बार अडजर्नमेंट के कारण देरी हुई है. अडर्जनमेंट के भी अलग-अलग कारण होते हैं.

जुलाई 2016 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस नरीमन ने ट्रायल कोर्ट को चेतावनी दी थी कि अडर्जनमेंट एक वायरस के समान है. इस पर अंकुश लगाने की ज़रूरत है. गायत्री बनाम एम गिरिश मामले में सुप्रीम कोर्ट के इन दो जजों ने कहा कि जो गवाह है उसे सात बार कोर्ट में बुलाया गया, गवाह आया भी लेकिन वकील ने बार-बार अडजर्नमेंट मांगा और उसे दिया भी गया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के दोनों जज अपने फैसले में अलग-अलग जगहों पर लिखते हैं कि, 'हमे यहां पर कहना पड़ेगा कि जो ट्रायल जज थे, वो किसी भ्रम थे क्योंकि बचाव पक्ष और याचिकाकर्ता के दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था. कोर्ट अडजर्नमेंट देता रहा. बचाव पक्ष ने गवाह से भी पूछताछ नहीं की और अगली तारीख लेते रहे. एक बुजुर्ग आदमी को गवाही देने के लिए इतनी बार कोर्ट में आने में क्या दिक्कत पेश आई होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है. ट्रायल कोर्ट ने इस मसले को 3 अक्टूबर 2015 तक स्थगित कर दिया. उस दिन भी गवाह कोर्ट आया लेकिन बचाव पक्ष और याचिकाकर्ता के वकील ही कोर्ट नहीं आए. कोर्ट ने फिर से मैटर को अडजर्न कर दिया. अडर्जनमेंट मांग कर इस केस में जानबूझ कर देरी की गई.

अदालत में जितने भी मामले होंते हैं वो कोर्ट के सामने पेंडिंग ही कहे जाते हैं. चाहे वो दो महीने पुराने हों या दो साल. लेकिन विधि संस्था ने यह देखने का प्रयास किया है कि जिन मामलों में फैसला आया, उनमें किन किन कारणों से देरी हुई, अगर वो देरी न होती तो क्या फैसला और जल्दी आ सकता था. मामलों को निपटाने में दिल्ली हाई कोर्ट का रिकॉर्ड बहुत अच्छा माना जाता है. 2011-15 के बीच जितने भी केस फाइल हुए हैं उनका 76 फीसदी हिस्सा 2015 तक निपटा दिया गया. इनमें से 60 फीसदी केस छह महीने के भीतर निपटा दिये गए. दिल्ली हाईकोर्ट का यह रिकॉर्ड तो शानदार लगता है लेकिन क्या दूसरी अदालतों के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है. संयोग से शुक्रवार को वकीलों ने हड़ताल भी की है. लॉ कमीशन के कुछ सुझावों को लेकर उनका विरोध है.

लॉ कमीशन ने एडवोकेट एक्ट में संशोधन का सुझाव दिया है ताकि वे हड़ताल न कर सकें. अगर हड़ताल पर गए तो अपने मुवक्किल को हर्जाना देना होगा. इसमें वकीलों के पेशेवर व्यवहार को भी परिभाषित किया गया है. अगर किसी वकील पर मिसकंडक्ट के आरोप साबित हो गए तो उनका लाइसेंस रद्द हो सकता है. जैसे किसी केस में उन्होंने ठीक से मेहनत नहीं की, लापरवाही की, किसी से सौदेबाज़ी कर ली, तो इसे अब अनुचित व्यवहार माना जाएगा. वकीलों का कहना है कि यह सुझाव उनके विरोध करने के अधिकार के खिलाफ है. वकीलों पर तीन से पांच लाख के जुर्माने का भी प्रावधान है. अगर वे अपने मुवक्किल से गलत व्यवहार करते पाए गए तो. अगर वकील काम पर नहीं आए तो अपने मुवक्किल को हर्जाना देना होगा.

तो क्यों होती है सुनवाई से लेकर फैसले में देरी. इसके ज़िम्मेदार कौन हैं और कैसे इसे ठीक किया जा सकता है?


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