मोदी सरकार क्यों अपना रही है अध्यादेश का रास्ता?

राज्यसभा में पीएम मोदी की फाइल तस्वीर

मोदी सरकार को सत्ता में आए अभी सात महीने ही बीते हैं, लेकिन अब तक आठ मामलों पर अध्यादेश ला चुकी है। हाल ही में भूमि अधिग्रहण विधेयक पर लाया गया अध्यादेश भी इनमें से एक है।

संसद के शीतकालीन सत्र ने कालेधन और धर्मान्तरण के मुद्दे पर काफी हंगामे देखे। विपक्षी पार्टियों ने अपने विरोध के नए नए तरीके भी दिखाए। विपक्ष विभिन्न मुद्दों पर प्रधानमंत्री के बयान की मांग करता रहा। संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू विपक्ष को नहीं मना पाए और बड़े विधेयक लटक गए।

1984 की राजीव गांधी सरकार के बाद सीधा 2014 में मोदी सरकार को इतना बड़ा बहुमत प्राप्त हुआ है। लेकिन, संसद में बहस और वोट का रास्ता न अपनाते हुए सरकार धड़ाधड़ अध्यादेश ला रही है। आखिर इसका क्या कारण है? मोदी सरकार ने संसद के अगले सत्र का इंतज़ार क्यों नहीं किया?

ऐसा लग रहा है कि सरकार अपने ही सहयोगी संगठनों और सांसदों के कृत्यों का खमियाज़ा भुगत रही है। धर्मान्तरण के मुद्दे पर सरकार विश्व हिन्दू परिषद और अपने ही सांसदों के बयानों पर सफाइयां पेश करती रही। कालेधन के मुद्दे पर प्रधानमंत्री रेडियो पर तो एकतरफा गुफ़्तगू कर गए, लेकिन संसद में बोलने से बचते रहे। संसद पूरे 22 दिन के लिए बैठी और छिटपुट विधेयक भी पास होते रहे, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था से सम्बंधित ख़ास विधेयक विवादों पर सफाइयां पूरी होने का इंतज़ार करते रहे।

अध्यादेश का रास्ता हमारे संविधान ने ही सुझाया है। किसी भी विधेयक को पारित करने का ये अस्थायी तरीका है। संविधान के अनुच्छेद 123 के अंतर्गत राष्ट्रपति सरकार के कहने पर अध्यादेश जारी कर सकते हैं, जब दोनों सदनों में से कोई भी सत्र में न हो। कोई भी अध्यादेश सदन के अगले सत्र के अंत के बाद छह हफ़्तों तक बना रहता है। जिस भी विधेयक पर अध्यादेश लाया गया हो, उसे संसद के अगले सत्र में वोटिंग के ज़रिये पारित करवाना होता है। अगर ऐसा नहीं होता है तो राष्ट्रपति इसे दोबारा भी जारी कर सकते हैं।  

संविधान के रचनाकारों ने अध्यादेश का रास्ता ये सोचकर बनाया था कि किसी आपातकालीन स्थिति में ज़रूरी विधेयक पारित किए जा सकें। इन स्थितियों के उदाहरण इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाई गई इमरजेंसी और वो समय जब 1996 से लेकर 1998 तक सरकार गिरने-बनने का दौर चल रहा था।  

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ये अध्यादेश पिछली सरकारों में भी जारी किए जाते रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार इस मामले में मनमोहन सरकार से काफी आगे है।

मनमोहन सरकार ने खाद्य सुरक्षा पर अध्यादेश लाया था।  उस वक़्त अरुण जेटली विपक्ष में रहते हुए इसका ज़ोरदार विरोध किया था। उस वक़्त उन्हें ये यूपीए सरकार की जल्दबाज़ी लग रही थी और अब अपनी सरकार में उनका कहना है कि भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेश देश के विकास के लिए ज़रूरी है।  

भूमि अधिग्रहण विधेयक यूपीए के समय ही पारित हो चुका है जिस पर बीजेपी ने भी अपनी सहमति की मुहर लगायी थी। एक साल के अंदर ऐसा क्या हो गया कि बीजेपी को इसमें संशोधन लाने के लिए शॉर्टकट की ज़रूरत पड़ रही है।  

संसद सर्वोच्च है और अगर इस गति से सिर्फ अध्यादेश ही पास होते रहे तो विधेयकों पर बहस का चलन ही खत्म हो जायेगा। ऐसे कई विधेयक होंगे जिनमें सुधार की गुंजाइश है, जिस पर संसद में चर्चा आवश्यक है लेकिन सरकार उसे अध्यादेश के ज़रिये पारित करके आगे बढ़ना चाहती है।  इस तरह गलत या सही, नया कानून अध्यादेश जारी होने के दिन से अपना काम शुरू कर देगा।  

लेकिन सिर्फ सरकार को दोष देने की बजाय विपक्ष को अपनी राजनीति को भी टटोलने की ज़रूरत है। विपक्ष ज़िद्द पर है तो सरकार भी अपनी ज़िद्द पर आ गयी है। लगने लगा है कि एक पार्टी को बहुमत देना भी संसद के सुचारू रूप से चलने के लिए काफी नहीं।