नई दिल्ली: जब तक कोई मारा नहीं जाता, जब तक किसी औरत से बलात्कार नहीं होता, जब तक कुछ बच्चे अनाथ नहीं हो जाते. तब तक जैसे हम किसी हादसे को हादसा मानते ही नहीं, किसी हमले को हमला मानते ही नहीं।
बीती आधी सदी में हिंदुस्तान ने इतने सारे दंगे देखे हैं, इतनी लाशें उठाई हैं, इतनी चीखें सुनी हैं, औरतों और बच्चों का इस क़दर रोना सुना है, इतनी उठती हुई लपटें देखी हैं कि सन्नाटे में डूबी गलियां, उजाड़ दिए गए घर, जली हुई किताबें हमें जैसे छूती ही नहीं। दंगे हमारी चेतना पर पड़ने वाली चोट नहीं, सियासत का सामान हैं और ये सामान इतनी मात्रा में है कि हर सरकार दूसरी सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा सके, हर पार्टी दूसरी पार्टी से इस्तीफ़े की मांग कर ले।
शायद यही वजह है कि अटाली हमारी आत्मा पर बोझ की तरह नहीं आती। वहां के बेघर किए गए लोगों की आंख में झांक कर हम नहीं देखते, उनसे नहीं पूछते कि अपने छोटे-छोटे काम-धंधों से उन्होंने किस तरह जोड़-जोड़ कर अपने घर बनाए, उनकी महिलाओं से यह नहीं पूछते कि कितने जतन से उन्होंने इन घरों को सजाया, उनके बच्चों से नहीं पूछते कि अपना छितराया हुआ स्कूल बैग और छूटा हुआ होम वर्क देखकर वे खुश हैं या दुखी हैं।
हम बस दंगों के कारण खोजना जानते हैं और मुआवज़ा देना जानते हैं। हम बस इतना जानते हैं कि अटाली के मुसलमानों ने मस्जिद बनाने की ज़िद न की होती तो उन पर अपने ही गांव वालों का क़हर न टूटता। हम यह भी भूल जाते हैं कि यह मुल्क सबको तरह-तरह की आज़ादियां देने वाला मुल्क है जिनमें अपनी बंदगी के तरीक़े तय करने की आज़ादी भी है।
जब आप किसी की ये आज़ादी कुचलते हैं तो दरअसल उसे वह दूसरे दर्जे की नागरिकता प्रदान करते हैं जो उसकी अल्पसंख्यक हैसियत ने उसे बख़्शी है। हम जानना नहीं चाहते कि खंडहर हो गए घर हमारे भीतर कितना ख़ालीपन पैदा करते हैं, सूनी हो गई दीवारें हमें कितना अकेला बनाती हैं और जब स्कूल जल जाते हैं और किताबें-कापियां फट जाती हैं तो वो कौन सी चीज़ होती है जो हाथ में चली आती है और किसी बच्चे को नागरिक नहीं देश का दुश्मन बना डालती है।
इस सवाल के आईने में देखेंगे तो हम दूसरों को ही नहीं, ख़ुद को भी पहचानेंगे और ये समझेंगे कि दूसरों को उजाड़ना दरअसल ख़ुद को उजाड़ने की भी शुरुआत होता है।