ऋषि कपूर को क्यों नहीं हो रहा है एक हवेली के गिरने का दर्द...?

ऋषि कपूर को क्यों नहीं हो रहा है एक हवेली के गिरने का दर्द...?

''हमारा अपने दादा की हवेली से कोई जज़्बाती नाता नहीं... वह बंटवारे से पहले ही मुंबई आ गए थे... हमें तो यह भी नहीं मालूम कि यह उनकी अपनी सम्पत्ति है या किराये का मकान है... पाकिस्तान सरकार चाहे जो करे, हमें कोई ऐतराज़ नहीं...''

दीवान बसेसरनाथ के पड़पोते तथा पृथ्वीराज कपूर के पोते ऋषि कपूर को भले ही कोई ऐतराज़ न हो, लेकिन पेशावर में ही रहने वाले 80 साल के निसार खान को तो है। साथ ही हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में रहने वाले उन लाखो-करोड़ों चहेतों को भी है, जिनके दिल-ओ-दिमाग में 'मुग़ल-ए-आज़म' का अकबर तथा 'जोकर' का जोकर आज भी सांसें ले रहा है।

बसेसरनाथ न सही, पृथ्वीराज से इस खानदान द्वारा कला की खिदमत की शुरुआत हो गई थी। आज़ादी की लड़ाई के दौरान पृथ्वी थियेटर का इतना जबर्दस्त दबदबा था कि पृथ्वीराज के सामने जोधपुर के महाराज तक को नतमस्तक होना पड़ा था। नाटक की समाप्ति के बाद पृथ्वीराज झोली फैलाकर गेट के पास खड़े होकर लोगों से खैरात मांगा करते थे, अपने लिए नहीं, अपने नाटक के कलाकारों के लिए। पृथ्वी थियेटर की इस विरासत को आज उनकी पोती संजना कपूर जीवित रखे हुए है।

यहां से शुरू हुई कला की यह यात्रा लीजेन्ड कहलाने वाले राज कपूर, शशि कपूर से होती हुई रणबीर कपूर तक जारी है, और इनके बीच रणधीर कपूर, शम्मी कपूर, ऋषि कपूर, करिश्मा कपूर और करीना कपूर आदि कई अन्य नाम जुड़े हुए हैं। देश के इतिहास में अब तक शायद ही कोई अन्य परिवार हो, जिसकी इतनी पीढ़ियों के इतने लोगों ने कला में खुद को खपा दिया हो, और वह भी एक ही कला में... यानी, इनके डीएनए में ही कला है।

आश्चर्य होता है कि ऐसे खानदान से जुड़ा एक प्रौढ़, जो स्वयं भी कलाकार है, और जिसने फिल्म 'बॉबी' के जरिये आज से 40 साल पहले देशभर के नौजवानों के दिलों में तूफान पैदा कर दिया था, इस तरह का गैर-कलात्मक तथा असंवेदनशील बयान कैसे दे सकता है, जबकि इसी खानदान के शशि कपूर सपरिवार जाकर वहां के आंगन की मिट्टी लेकर आए थे। ऋषि के बाद की आज की नई पीढ़ी की करीना कपूर ने भी पेशावर की उस हवेली को देखने की इच्छा व्यक्त की थी।

यहां यह बात ध्यान देने लायक है कि पाकिस्तान के पुरातत्व विभाग ने इस हवेली को पहले ही 'विरासत' घोषित कर रखा है। वहां दिलीप कुमार का मकान भी 'विरासतों' में शामिल है, जो पेशावर में ही है। एक अच्छी खबर यह है कि फिलहाल प्रांतीय सरकार द्वारा पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराए जाने के बाद 40 कमरों वाली इस हवेली को नेस्तनाबूद करने का काम रोक दिया गया है।

यहां हिन्दुस्तान की अवाम का ऋषि कपूर से एक सवाल है - यदि वह हवेली की विरासत को इस तरह ठुकराने को तैयार हैं, तो क्या वह अपने परिवार के संस्कार और उसकी कलात्मक धरोहर को भी ठुकरा सकते हैं, जहां उनके पूर्वजों की सांसों की सुवास और दिलों की धड़कनों की धुनें बसी हुई हैं...? क्या उन्हें नहीं लगता कि सचमुच हर घर कुछ कहता है। घर ही नहीं, हर गांव, मिट्टी का एक-एक ज़र्रा भी कुछ कहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत सरकार टेक्नोलॉजी-प्रधान इस नीरस एवं अवैयक्तिक संबंधों वाले युग में 'ट्रेसिंग दि रूट्स' नामक योजना लागू नहीं करती। इसका उद्देश्य भारत से लगभग डेढ़-पौने दो सौ साल पहले विदेश जाकर बस गए लोगों को भारत में उनकी जड़ों से मिलाने में मदद करना है। लोग आए, उन्होंने अपनी ज़मीन को चूमा, माथे से लगाया और जी-भरकर रोए भी। कपूर परिवार को तो पेशावर से हिन्दुस्तान आए हुए अभी इसका आधा वक्त भी नहीं गुज़रा है।

ऋषि कपूर निश्चित रूप से इंग्लैण्ड तो गए ही होंगे, लेकिन हां, यह ज़रूर हो सकता है कि उन्होंने वहां वह यात्रा न की हो, जिसके तहत वहां के अधिकतर साहित्यकारों एवं कलाकारों के जन्मस्थान, निवास स्थान, यहां तक कि कब्रिस्तान तक की यात्रा कराई जाती है।

अंत में सबसे मुद्दे की बात यह है कि हम सबकी अपनी-अपनी उम्र है, लेकिन उम्र केवल इस शरीर की उम्र है। हमारी चेतना की उम्र न जाने कितने हज़ार साल की है। वह सदियों से बनती आ रही है। हमारे पूर्वजों ने इसे बनाया है, सो, हमारे पूर्वज हममें मौजूद हैं। क्या हम कह सकते हैं कि ''कोई भी इनके साथ कुछ भी करे, हमें इसमें कोई ऐतराज़ नहीं...?''

डॉ विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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