ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना की टिप्पणियों से इतना डर क्यों?

लेकिन इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी कि जो सरकार किसानों या इस देश के मीडिया के प्रति भी ख़ुद को जवाबदेह नहीं समझती, वह ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना के दो ट्वीटस पर इस तरह बौखला जाएगी कि विदेश मंत्रालय सफ़ाई देने खड़ा हो जाएगा.

ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना की टिप्पणियों से इतना डर क्यों?

भारत के मेरी तरह के बहुत सारे लोग स्वीडन की किशोर पर्यावरण योद्धा ग्रेटा थनबर्ग या तुनबेयर के बारे में जानते तो थे, लेकिन गायिका रिहाना (या रियेना) या पोर्न कलाकार मिया ख़लीफ़ा के बारे में शायद उन्हें कम मालूम रहा होगा. किसान आंदोलन पर उनके ट्वीट को भी वे संजीदगी से ज़्यादा कौतूहल से लेते, जिससे बस यह समझने में मदद मिलती कि भारत में चल रहे किसान आंदोलन के दमन की ख़बर किस-किस रूप में कहां-कहां पहुंच रही है.

लेकिन इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी कि जो सरकार किसानों या इस देश के मीडिया के प्रति भी ख़ुद को जवाबदेह नहीं समझती, वह ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना के दो ट्वीटस पर इस तरह बौखला जाएगी कि विदेश मंत्रालय सफ़ाई देने खड़ा हो जाएगा. फिर विदेश मंत्रालय ने सफ़ाई ही नहीं दी, क्रिकेट और फिल्मों के सितारों को भी इस काम में लगा दिया कि वे थनबर्ग और रिहाना की 'साज़िश के ख़िलाफ़ देश की रक्षा' करें.

लेकिन क्या भारत इतना कमज़ोर है? क्या ट्वीट के कुछ शब्दों में सामने आई दो मशहूर हस्तियों की राय में इतनी ताक़त है कि उनके धक्के से हमारे पांव डगमगाने लगें? क्या ये ट्वीट हमारे अंदरूनी मामलों में दख़ल हैं? 

और अगर ये दख़ल हैं तो फिर पुलिसवाले के जूते तले कुचल कर मारे गए अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड पर हमारी राय क्या अमेरिका के अंदरूनी मामलों में दख़ल नहीं थी. इस बात की ओर क्रिकेटर इरफ़ान पठान ने ध्यान खींचा है, लेकिन बहुत सहमी हुई शालीनता के साथ. वे बस यह कह पाते हैं कि हमने उचित ही उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की. शायद उन्हें यह एहसास हो कि नए भारत में बहुत सारे लोग इसे उनकी बेबाक नागरिकता का मामला नहीं मानेंगे, उनकी राय को उनकी मज़हबी पहचान से जोड़ देंगे.

लेकिन यह सवाल वाजिब है कि जब हम 'सेव ब्लैक लाइव्स' जैसे किसी नारे के साथ होते हैं तो क्या अमेरिका के ख़िलाफ़ होते हैं या उसके अंदरूनी मामलों में दख़ल दे रहे होते हैं? या फिर तिब्बत के बौद्धों या शिनजियांग के उइगर मुसलमानों या म्यांमार के रोहिंग्या लोगों का सवाल उठा रहे होते हैं तो क्या चीन और म्यांमार के अंदरूनी मामलों में दख़ल देते हैं?

दरअसल ऐसे मामलों में सरकारों का खेल समझने की ज़रूरत है. अमेरिकी सरकार और अमेरिका एक नहीं हैं. चीनी सरकार और चीन एक नहीं हैं. भारत सरकार और भारत एक नहीं हैं. अमेरिकी सरकार की आलोचना अमेरिका की आलोचना नहीं है. भारत सरकार की आलोचना भारत की आलोचना नहीं है. लेकिन सरकारें अपनी आलोचना को देश की आलोचना बना डालती हैं. अगर दुनिया ने जॉर्ज फ्लॉयड के मारे जाने पर अमेरिकी प्रशासन की आलोचना की तो वह अमेरिका की आलोचना नहीं थी. बल्कि यह सच है कि अमेरिकी सरकारों की सबसे तीखी आलोचना अमेरिकी लोगों ने ही की है. अमेरिका में काले लोगों के लिए 'सेव ब्लैक लाइव्स' आंदोलन चलाने से कई साल पहले अपने दिलचस्प उपन्यास 'सेल आउट में पॉल बीटी ने अमेरिकी सरकार और समाज का बहुत तीखा मज़ाक उड़ाया था. इसके लिए उन्होंने आलोचना नहीं झेलनी पड़ी, बल्कि बुकर अवार्ड मिला.

लेकिन यह सच है कि यह सिर्फ भारत सरकार ने नहीं किया, सारी सरकारें यही काम करती हैं. वो अपनी नाकामियों को राष्ट्र की उदात्त भावना के पीछे छुपा लेना चाहती हैं. भारत सरकार ने एक क़दम आगे जाकर यह किया कि जिन सितारों का हम एक स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं, उन्हें अपने वैचारिक मज़दूरों या उपकरणों की तरह इस्तेमाल कर उन्हें भी छोटा किया और राष्ट्रीय पहचान के प्रतीकों को भी उपहास्पद बनाया.

दरअसल सचिन या अक्षय या अजय देवगन होने का क्या मतलब है? किसान आंदोलन या किसी भी आंदोलन में इनकी राय क्या अहमियत रखती है? इस सवाल के दो जवाब हैं. दोनों जवाबों में छुपी कुछ वैध चिंताएं हैं. पहली बात तो यह कि नया भारत अब विशेषज्ञता की नहीं, विज्ञापन की संस्कृति पर चलता है. उसे अर्थव्यवस्था पर आर्थिक जानकारों की या विज्ञान पर वैज्ञानिकों की या समाजशास्त्रियों की राय नहीं चाहिए, उसे हर विषय पर सितारों की राय चाहिए- चाहे वे किसी क्रिकेट के हों या फिल्म के हों या फिर उद्योगों के कामयाब लोग.

दूसरी बात कुछ ठहर कर विचार करने की है. राष्ट्र एक राजनीतिक संरचना है, लेकिन इकहरी नहीं. एक राष्ट्र के भीतर कई देश होते हैं. इसको इस तरह समझें कि राजनीति द्वारा राष्ट्र की जो बनी हुई छवि होती है, उससे अलग खेलों या फिल्मों द्वारा बनाई गई छवि भी होती है. फुटबॉल को सामने रख कर देखते हैं तो हम पाते हैं कि ब्राजील और अर्जेंटीना दुनिया के बड़े देश मालूम होते हैं और क्रिकेट में ऑस्ट्रेलिया, भारत ज़्यादा बड़े नज़र आते हैं. भारत के भीतर भी कई भारत हैं- एक शहरी भारत है, एक ग्रामीण भारत है, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले कई भारत एक-दूसरे से संवादरत हैं. एक भारत ऐसा है जिसके भगवान नेता नहीं, क्रिकेटर हैं. लेकिन एक दूसरा भारत ऐसा भी है जिसके ईश्वर फिल्मी अभिनेता हैं- बेशक, ये दोनों भारत भी आपस में मिलते-जुलते होंगे. लेकिन कम से कम दो भारत हम पहचान सकते हैं जो एक दूसरे को बेशक, मज़बूती भी देते हैं- एक अगर राजनीतिक भारत है तो दूसरा सांस्कृतिक भारत. राजनीतिक भारत अपने फायदे के लिए कई बार सांस्कृतिक भारत का इस्तेमाल करता है तो सांस्कृतिक भारत कई बार राजनीतिक भारत को निर्देशित करता है.

लेकिन राजनीतिक भारत जब सांस्कृतिक भारत को आदेश देकर एक अनचाहे विवाद में उसे शामिल करता है तो दरअसल वह उसके साथ अन्याय कर रहा होता है. बेशक, यह सांस्कृतिक भारत के नुमाइंदों का भी दायित्व है- मसलन सचिन तेंदुलकर जैसे नायक का- कि वे ऐसे किसी दबाव के आगे झुकने से इनकार करते. निश्चय ही एक नागरिक के तौर पर उनका अधिकार है कि वे अपनी राय रखें, लेकिन जब हर मामले में खामोशी के बीच अचानक एक मामले में धडाधड़ सितारों के एक जैसे ट्वीट आने लगते हैं तो शक होता है कि सितारों को अपनी गरिमा से ज़्यादा सरकारी दबाव की फ़िक्र है.

इस पूरे मामले का विचारणीय पक्ष यही है. सरकार ने अपनी आलोचना को देश की आलोचना बना डाला. ऐसे सांस्कृतिक सिपाही भी तैनात कर दिए जो इस आलोचना पर हमला करें. फिर दुहराने की ज़रूरत है कि सभी सरकारें ऐसा करती हैं. लेकिन सजग नागरिकों को यह समझना पड़ता है. दशकों पहले फ्रांस में अल्जीरिया की आज़ादी की मांग को जब वहां के बुद्धिजीवी लेखक ज्यां पाल सार्त्र ने समर्थन दे डाला तो वहां उनकी गिरफ्तारी की मांग शुरू हो गई. कहते हैं कि तब फ्रांसीसी राष्ट्रपति द गॉल ने कहा था कि फ्रांस अपनी अंतरात्मा को गिरफ़्तार नहीं कर सकता.

तीन बरस पहले स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म 'द पोस्ट' आई थी. यह फिल्म वियतनाम युद्ध के समय की सच्ची घटनाओं पर आधारित है. निक्सन की सरकार नहीं चाहती कि अमेरिकी अख़बार वियतनाम युद्ध की सच्चाई बताएं. न्यूयॉक टाइम्स पर वह मुक़दमा कर देती है. वह आर्थिक संकट से गुज़र रहे वाशिंगटन पोस्ट पर भी दबाव बनाती है कि वह ये ख़बरें न दें. फिल्म के अंत में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आता है- वाइट हाउस के हित अमेरिका के हित नहीं हैं.

हमें भी यह समझना होगा. सरकार देश की राजनीतिक प्रतिनिधि होती है, देश नहीं होती. उसकी आलोचना देश की आलोचना नहीं होती. किसान आंदोलन के दमन में अगर वह मध्ययुगीन तरीक़े इस्तेमाल करेगी तो उस पर सवाल उठेंगे और दुनिया भर से उठेंगे. और इन सवालों के केंद्र में भारतीय नागरिकों के मानवाधिकार ही होंगे. बेशक, ऐसे अवसरों का लाभ उठाने के लिए तरह-तरह की एजेंसियां भी सक्रिय रहती हैं लेकिन इनकी आड़ में हम ज़्यादा बड़े मूल्य को अपनी नज़र से ओझल होने नहीं दे सकते. क्योंकि सरकारें देश की आड़ लेकर अपने ही नागरिकों का दमन करती हैं और उसको जायज़ भी ठहराती हैं.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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