करण जौहर के वीडियो पर इतने आहत क्यों?

करण जौहर के वीडियो पर इतने आहत क्यों?

गिटार बजाने की कई शैलियों में से एक होती है फ़्लामेंको. वही फ़्लामेंको जिस नाम के स्पैनिश नृत्य शैली को हम जानते हैं. उसी शैली में एक तारों को छेड़ने का, स्ट्रम करने का तरीक़ा होता है रास्गियादो. ये ऐसी शैली होती है जहां पर गिटार की सभी तारों को अपनी चारों उंगलियों से, बहुत तेज़ी से, नाख़ून वाले सिरे से स्ट्रम करते हैं, बजाते हैं. उंगलियां आक्रमण करती हैं और इसके बाद जो आवाज़ गिटार से निकलती है वो दिव्य होती है. ऐसी कलात्मक आक्रामकता शायद ही कहीं और दिखे. कभी आपको भी मौक़ा मिले तो सुनिएगा यूट्यूब पर. इस शैली को आज इसलिए याद कर रहा हूं क्योंकि इसी ने मुझे समझाया कि कला में निडरता और आक्रामकता का स्थान है, इसका अर्थ क्या होता है.

शब्दों में, साहित्य में निडर होना या आक्रामक होने को समझना कोई मुश्किल नहीं है. पर फ़ाइन आर्ट्स या पर्फ़ोर्मिंग आर्ट्स से इसके रिश्ते को समझना मेरे लिए थोड़ा दुरूह था. कई बार जानकारों से सुना करता था कि फलां पेंटर की पेंटिंग बहुत दुस्साहसिक है, फलां गायक सुर पर चढ़ाई कर देता है. पता नहीं कितना पर कला में साहस की भूमिका की समझ अब थोड़ी-थोड़ी हो रही है. अब जब किसी गायक को तार सप्तक के साथ खेल करता सुनता हूं तो लगता है कि वो दरअसल अपनी कला की साधना को परख रहा है, नए-नए सुर पर आक्रमण कर रहा है. साहस कला का अभिन्न हिस्सा है. पर ये साहस कहां से आता है.

करण जौहर ने एक माफ़ीनामा जारी किया है. 'ऐ दिल है मुश्किल' मुश्किल में आई है और उसके बाद ये माफ़ी वाला वीडियो आया था. और सवाल उठ रहे हैं कि करण जौहर ने साहस क्यों नहीं दिखाया. क्यों घुटने टेक दिए, क्यों एमएनएस की धमकी से डर गए. बुद्धिजीवी बिफर गए. पाकिस्तानी टैलेंट के साथ काम नहीं करने की प्रतिज्ञा पर आक्रोशित हो गए. सेना की इज़्ज़त में अपनी प्रतिबद्धता दिखाई तो विकल हो गए.

बॉलीवुड कला नहीं है. वो इंडस्ट्री है. बॉलिवुडिया डायरेक्टर शायद ख़ुद को आर्टिस्ट कहते भी नहीं, ये नामकरण तो स्ट्रगलर के लिए सुना हैय बॉलिवुडिया फ़िल्मों के हीरो और हीरोइन स्टार होते हैं. आर्टिस्ट नहीं. उन्हें कभी भी कोई ख़ुशफ़हमी नहीं है कि वो कला के प्लेटफ़ॉर्म पर संघर्ष करने वाला योद्धा हैं, वो हमेशा से ख़ुद को इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का हिस्सा मानते हैं. ये हमारा मनोरथ है, आकांक्षा है जो सुपरस्टारों को कलाकार के तौर पर देखना चाहती है. ये हमारा डिल्यूज़न है. समझ की सीमा. हम इस इंडस्ट्री को उस तरीक़े से देखते हैं जैसा देखना चाहते हैं. पर बॉलीवुड कला की अधूरी व्याख्या से मुक्त है और इसीलिए करण जौहर माफ़ी मांगते हैं.

जब आप इंडस्ट्री होते हैं तो आपकी नज़र सेनसेक्स पर होती है. इकॉनॉमिक्स पर, पॉलिटिक्स पर नज़र होती है. उसी हिसाब से अपनी रणनीति बदलनी होती है. उसी हिसाब से अपने समीकरण बदलने होते हैं. जिसके लिए बॉलीवुड हमेशा से चपल रहा है. शाहरुख़ ख़ान जब ये कहते हैं कि फ़िल्म इंडस्ट्री में दोस्ती सिर्फ़ गुरुवार तक होती है, तो उनकी बात समझना मुश्किल नहीं है. शाहरुख़ एक प्रबुद्ध स्टार हैं जो आसान शब्दों में समझाते हैं कि दरअसल ये एक व्यवसाय मात्र है, जिसमें सबसे अहम है सर्वाइवल और फिर ग्रोथ. इस लड़ाई में सब अकेले हैं. इसीलिए करण जौहर माफ़ी मांगते हैं.

सवाल ये है कि करण जौहर किसी की प्रोजेक्टेड लड़ाई क्यों लड़ें? वो ऐक्टिविस्ट हैं? वो नेता हैं? वो मां भारती की रक्षा में जुटे योद्धा हैं? नहीं. वो फ़िल्म के बिज़नेस में हैं. उन्होंने एक फ़िल्म बनाई है. जिसमें सौ करोड़ लगे होंगे. सैकड़ो लोगों का रोज़गार उनसे जुड़ा होगा. साख जुड़ी होगी. वो क्यों नहीं माफ़ी मांगेगे? उनको पता है कि अगर वीकेंड के तीन दिन में से एक भी दिन गड़बड़ हुई तो सबकुछ ख़त्म हो जाएगा. और अगर एमएनएस के गुंडे सिनेमा हॉल तोड़ने के लिए पहुंच ही जाएं, तो करण जौहर के पुरुषार्थ को ललकारने वाले कोई जागरुक नागरिक मौजूद नहीं होंगे. इसीलिए करण जौहर माफ़ी मांगते हैं.

करण जौहर जानते हैं कि वो बिज़नेसमैन ही बन सकते हैं, कलाकार बनना चाहते हैं या नहीं पर उसके लिए माहौल भी नहीं है. हम लोगों को कलाकार नहीं चाहिए, हमें वो लोग नहीं चाहिए जो ग़लत और सही के सवालों से परे साहस दिखाएं, ख़ुद को ईमानदारी से व्यक्त करे. हमें वो नहीं चाहिए जो मुश्किल सवाल करें. धारणाओं को झकझोरें. ऐसे लोगों को बचाने का साहस इस समाज के पास नहीं है. ये समाज एक बूढ़े पेंटर को नहीं बचा पाया. पेंटर क्या कार्टूनिस्ट को नहीं बचा पाया. ये समाज अपने देश से भागी-भागी फिर रही लेखिका को नहीं बचा पाया. नुक्कड़ पर सवाल उठाने वाले नाटककार को नहीं बचा पाया. बुज़ुर्ग लेखक के लिए भी खड़ा नहीं हुआ, जवान कॉमेडियन के लिए भी नहीं. सवाल उठाती एक छोटी सी डॉक्यूमेंट्री नहीं बचा पाया. फ़िल्मों को बैन होने देता है, किताबों को जलाने देता है, साहित्यकारों पर हमले पर मुंह मोड़ लेता है. अभिनेता के बयान का बचाव नहीं कर पाता. ये समाज बचा नहीं पाता है, सिर्फ़ पचा पाता है. सिर्फ़ बयान दे पाता है, आहत होते हुए. विचारधार की आड़ छुपा हुआ, एक बार दक्षिण और एक बार वाम देखता है और फिर मेरी तरह ललित निबंध लिखता रहता है.

इसीलिए एक्टर इमरान ख़ान से 'जब ऐ दिल है मुश्किल' के मुद्दे पर सवाल पूछा जाता है तो वो मुस्कुराते हुए प्रतिप्रश्न करते हैं- 'पिटना है क्या ?' ये प्रतिप्रश्न दरअसल इमरान ख़ान के उस भरोसे को ज़ाहिर कर रहा है कि अगर उनका जवाब मनमाफ़िक नहीं हुआ तो उनका पिटना तय है, और ये भी भरोसा कि बचाने के लिए कोई नहीं आने वाला. कलाकार के साहस का एक हिस्सा समाज से भी आता है. और बॉलीवुड में साहस की कमी बताती है कि साहस की कमी दरअसल है कहां.

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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