कादम्बिनी शर्मा का ब्लॉग : क्या चीन और भारत के बीच तनाव कम होगा...

दोनों देशों के रिश्ते काले-सफेद की परिभाषा में नहीं देखे जा सकते हैं. उम्मीद यही है कि चीन भी ऐसा ही समझता है, खुलकर बोले न बोले.

कादम्बिनी शर्मा का ब्लॉग :  क्या चीन और भारत के बीच तनाव कम होगा...

डोकलाम इलाके में भारत और चीन की सेना को आमने-सामने खड़े एक महीना होने को आया. दोनों में से कोई भी सेना पीछे हटने की जल्दी में नहीं. जिस इलाके को चीन प्राचीन काल से अपना बताकर सड़क बनाने की बात कर रहा है और भारत को पीछे हटने को कह रहा है, भारत लगातार उसे भूटान का क्षेत्र बताते हुए चीन को पीछे हटने को कह रहा है. भूटान की जमीन पर भारत का यह रुख इसलिए है क्योंकि भूटान से उसका रणनीतिक समझौता है जिसके तहत सैन्य मदद उसे मिलती है.

लेकिन ऐसे में लगातार जो सवाल उठ रहे हैं वे यह कि आखिर यह तनाव कम कैसे होगा?  कैसे सुलझेगा यह मामला? क्या कूटनीति काम आएगी या अब सीधी लड़ाई का ही रास्ता बचा है? ऐसे में यह जरूरी है कि हम पिछले कुछ सालों में जब जब इस प्रकार का तनाव हुआ है उस पर नजर डालें, और इस बार जो अलग है उस पर भी नजर डालें.

15 अप्रैल 2013 : प्लाटून जितनी बड़ी एक टुकड़ी ने अकसाई चिन लद्दाख LaC के पास दौलत बेग ओल्डी से 30 किलोमीटर दूर राकी नाले के पास टेंट गाड़ लिए. भारतीय सेना ने तुरंत कार्रवाई करते हुए 300 मीटर की दूरी पर अपना कैंप बना लिया. तीन हफ्ते तक यही स्थिति बनी रही. बातचीत चलती रही और आखिर 5 मई को दोनों सेनाएं पीछे हटीं इस शर्त पर कि भारतीय सेना चुमार सेक्टर में अपने बनाए कुछ ढांचे हटाएगी.   

ठीक इस घटना के पहले 29 मार्च 2013 को डर्बन में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने बयान दिया था कि सीमा विवाद जल्द से जल्द सुलझा लिए जाना चाहिए. और तो और उस वक्त भी चीन ने यह मानने से साफ इंकार कर दिया था कि उसने LaC को पार किया. चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा कि बातचीत से मसले को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने के लिए वह प्रतिबद्ध है.

सितंबर 2014:  इस बार भी चीनी मजदूर LaC पार कर भारत की तरफ आए और कहा कि उन्हें टिबल तक सड़क बनाने का आदेश है. टिबल लद्दाख के चुमार इलाके में सीमा के पांच किलोमीटर अंदर है. इन्हें रोकने पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने भारतीय सीमा के अंदर तीन जगहों पर तंबू गाड़ लिए. अचरज की बात ये रही कि इसी वक्त चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग भी भारत दौरे पर थे. आखिर कूटनीतिक बातचीत और इस शर्त पर कि भारतीय सेना टिबल में अपने बनाए Obsevation Post को गिराएगी, दोनों सेनाएं 16 दिन बाद धीरे-धीरे 30 सितंबर को पीछे हटीं.

अब जून 2017: इलाका भूटान का है लेकिन असर भारत पर भी है. उत्तर-पूर्व जिस जमीन के पतले टुकड़े के जरिए पूरे देश से जुड़ा वह सिलीगुड़ी कॉरिडोर या 'चिकेन्स नेक' भारत के लिए अहम है. सीमा के बहुत पास झालोंग में जलडका नदी पर भारत की एक पनबिजली परियोजना भी है. यह परियोजना भूटान तक पहुंचने के लिए पुल भी है. मतलब अगर चीन यहां पर कब्जा करता है तो भारत का कुछ अहम बुनियादी ढांचा भी चीन की जद में आ जाएगा. भारत इस वक्त इलाके में ऊंचाई पर है. इस इलाके में चीन के आगे बढ़ने पर वह दो तरफ से उसे घेर सकता है और आगे बढ़ना रोक सकता है. इसलिए रणनीतिक तौर पर भी यह बेहद अहम है. इसलिए भारत यहां पर मजबूती से कदम जमाए हुए है.

सवाल यह उठ रहे हैं कि जब 7 जुलाई को जर्मनी के हैम्बर्ग में प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मुलाकात हुई, और कई मुद्दों पर बात हुई, और निश्चित तौर पर इस मुद्दे पर भी बात हुई होगी, तो अब तक चीन की सेना लौटी क्यों नहीं है? इस मुद्दे पर बात हुई भी या नहीं? इसका कोई सीधा सपाट जवाब नहीं है.

सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि शायद ही चीन को उम्मीद रही होगी कि इस इलाके में ऐसे सड़क बनाने पर भारत की इतनी मजबूत प्रतिक्रिया होगी क्योंकि यह जमीन भूटान की है, भारत की नहीं. दूसरा यह कि अब ऐसी स्थिति में पीछे हटे तो उनका नेतृत्व आखिर अपने आपको जनता के सामने सर्वोपरि कैसे दिखाए? इसीलिए नाथू ला होकर कैलाश मानसरोवर यात्रा उसने रद्द कर दिया, रोज चीनी विदेश मंत्रालय से तीखे बयान आते रहे हैं, कश्मीर में मध्यस्थता तक की बात कर दी!
 
परमाणु शक्ति से लैस देश से चीन भी सीधी लड़ाई चाहेगा ऐसा नहीं है चाहे भारत की तरह उसका 'नो फर्स्ट यूज़' पॉलिसी न हो. हैम्बर्ग में जिस तरह दोनों नेताओं ने एक-दूसरे की तारीफ की, शुभकामनाएं दीं, जिस तरह भारत के कुछ मंत्री हाल में चीन में थे, जिस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जुलाई के आखिरी हफ्ते में ब्रिक्स की एक बैठक में भाग लेने चीन जा रहे हैं, लड़ाई की कगार पर खड़े देशों के बीच अक्सर ऐसा होता नहीं. यह मानना भी शायद गलत होगा कि दोनों शीर्ष नेताओं की बातचीत के अलावा कहीं कुछ और बात नहीं हुई होगी, कोई कूटनीतिक कोशिश नहीं हुई होगी. और अगर ऐसा हुआ है तो पिछले उदाहरणों को देखते हुए, शायद चीन की तरफ से कोई न कोई शर्त रखी जाएगी, और फिर धीरे-धीरे एक ही साथ दोनों सेनाएं पीछे हटना शुरू करें.

आसियान देशों के एक लेक्चर में विदेश सचिव एस जयशंकर ने कहा कि दोनों देशों में ऐसी स्थिति से निबटने की परिपक्वता है. दोनों देशों के रिश्ते काले-सफेद की परिभाषा में नहीं देखे जा सकते हैं. उम्मीद यही है कि चीन भी ऐसा ही समझता है, खुलकर बोले न बोले.

कादम्बिनी शर्मा NDTV इंडिया में एंकर और फारेन अफेयर्स एडिटर हैं...

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