क्रांति संभव : क्या आनंद विहार का प्रदूषण डाउन मार्केट है, इसलिए चर्चा में नहीं है

क्रांति संभव : क्या आनंद विहार का प्रदूषण डाउन मार्केट है, इसलिए चर्चा में नहीं है

अगर आप दिल्ली से परिचित नहीं हैं तो सोच रहे होंगे कि आख़िर ये आनंद विहार है कौन सी जगह? जहां पर प्रदूषण का स्तर सुरक्षित स्तर से बीस गुना ज़्यादा हो गया। विद्वानों में अब भी राय ही बन रही है कि मामला ऑड है कि ईवन। आपको बता दूं कि आनंद विहार दिल्ली के पूर्वी इलाक़े में आता है जो पारंपरिक रूप से दिल्ली के डाउनमार्केट पिनकोड में आता रहा है। पूरबई इलाक़े के लोग यहां मिल जाएंगे और गाज़ियाबाद से सटा हुआ है।

वहीं पंजाबी बाग़ के प्रदूषण के बारे में सुनकर, इसके नाम से आपको लग रहा होगा कि ये तो वैसे ही जुझारू होंगे, जब चौरासी झेल लिया तो प्रदूषण भी झेल लेंगे तो सच्चाई से ज़्यादा दूर नहीं हैं आप। सच्चाई से दरअसल हम लोग दूर नहीं हैं, वो अलग वर्ग की समस्या है। इसीलिए अभी तक प्रदूषण इलीट डिस्कोर्स नहीं बना है (एक्सेप्ट पेरिस) क्योंकि वो डाउनमार्केट इलाक़ों मे ज़्यादा है। वो डाउनमार्केट लोगों के फेफड़ों में जाता है। और पोल्यूशन को भी पता है कि अपमार्केट लोगों की तरफ़ नहीं जाना।

पिछली छब्बीस जनवरी को ट्राई किया था, लेकिन ओबामा के इर्द गिर्द लगे एयरफ़िलटरों ने थूर के भगाया था। चूंकि ये आमलोगों का डाउनमार्केट विषय है, इसीलिए ऑड और ईवन पर भले ही आम आदमी नाम की पार्टी के मंत्रियों में सहमति न हुई हो, लेकिन चार सौ परसेंट सैलरी पर सहमति हो गई। फिर कोर्ट की फटकार के बाद कुछ ऐलान हुए भी तो उन पर चुटकुले ही बन रहे हैं।

डिस्कशन में सवाल ही उठाए जा रहे हैं इन सब पर। कोई अर्जेंसी नहीं दिखेगी …क्यों क्योंकि बड़े-बड़े संपादक शीशे बंद कारों में अप डाउन करते हैं। जब सड़क के किनारे खड़े होकर झालमुड़ही खाएंगे तब पता चलेगा न कि मुंह में एक-एक दाना कैसे कच-कच करता है। जिनके बच्चे शीशेबंद स्कूल बसों में शीशेबंद स्कूलों में पढ़ते हैं, उनको दूसरों का हांफता बच्चा कहां दिखेगा।

और एक समस्या है प्रदूषण के साथ कि वो सेक्यूलर है, हर धर्म के लोगों को कूहे हुए है। चूंकि किसी एक धर्म पर इसका ख़तरा नहीं है इसीलिए कांग्रेस फ़िलहाल नेशनल हेराल्ड पर संसद रोक रही है और वामपंथी चावड़ी बाज़ार से सोशल फ़ैब्रिक को रफ़ू करवाने गए हैं। बाक़ी जो 'सबका साथ, सबका विकास' करवाने पर तुली हुई सरकार है उसका भी नमूना पिछले हफ़्ते देख लिया मैंने। गडकरी नेशनल हाईवे के सुंदरीकरण पर बिल लेकर सबको बिलबिलाए हुए थे।

सोचिए। साल में एक लाख चालीस हज़ार लोग रोड पर मरते हैं, उसमें से आधे से ज़्यादा हाईवे पर। लेकिन उनकी जान बचाने वाला बिल अब भी बिल में घुसा हुआ है, बाक़ी ये है कि अब सरकार के क़दम के बाद मौत दर्दनाक नहीं रहेगी, ख़ूबसूरत हो जाएगी। हरी भरी मौत। और अगर सही प्लांटेशन हुआ तो लाश पर फूल कांप्लिमेंट्री। सोचिए ग़रीबों के लिए कितना बड़ा प्लस है प्रोफ़ाइल में। सोचिए फ़ेसबुक पर कितना वायरल होगा, देश की इज़्ज़त बढ़ेगी, भारत में ग़रीबों को मिल रही है एिलगेंट मौत। क्योंकि छुच्छे ग़रीबी बड़ी अनग्लैमरस होती है।

आज ही देख रहा था श्रीनिवासन जैन की रिपोर्ट बुंदेलखंड से। लोग खेतों में सड़ते बीजों का आटा बनाकर रोटी खा रहे हैं और नदी के किनारे जंगली घास को साग जैसे उबाल कर बच्चों को खिला रहे हैं। देखकर ही मन घिनघिना गया, इतना कि अपने सैंडविच में आज मस्टर्ड सॉस भी नहीं डाल सका। बड़ी डिस्गस्टिंग सी दिखती है ग़रीबी भी। आई थिंक ऐसे रिपोर्ट को मौज़ैक कर के दिखाना चाहिए, देश के इमेज को धक्का पहुंचता है। और यही सोच कर लग रहा है कि अब एक ब्लैंकेट बैन लगना चाहिए देश में प्रदूषित इलाक़ों की रिपोर्टिंग पर। उनका बहिष्कार किया जाना चाहिए, ऑड-ईवन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट, मास्क सबकी बातें अब तभी उठनी चाहिए जब दिल्ली के विजयचौक, राजपथ, रेसकोर्स रोड, पृथ्वीराजरोड, अकबर रोड और कुछ मध्यकालीन रोड पर प्रदूषण का स्तर बढ़े। वहां पर डिज़ाइनर जानें रहती हैं, देश की धरोहर, वो गुडलुकिंग इलाक़े हैं।

आज सलमान ख़ान का इंटरव्यू याद आ रहा है, जिस पर ख़ूब पेटभर के बवाल किया सब कनखजूरों ने। पता नहीं ह्यूमन या बींग ह्यूमन कौन सी अवस्था में बोला था पर शायद याद हो...कि छब्बीस ग्यारह को लेकर इतना हंगामा नहीं होता अगर ख़ाली सीएसटी पर गोली चलती, फ़ाइव स्टार होटेलों में सेवेन स्टार बंधक नहीं होते, ख़ाली लोकल ट्रेन से चलने वाले लोग मारे जाते।

बट देन…यू कांट बी डाउनमार्केट एंड इंपोर्टेंट ऐट दी सेम टाइम डूड।

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