नोटबंदी का चुनावों के चेहरे-मोहरे पर और उसकी सेहत पर क्या प्रभाव पड़ा

नोटबंदी का चुनावों के चेहरे-मोहरे पर और उसकी सेहत पर क्या प्रभाव पड़ा

पांच राज्यों में होने वाले चुनाव के लिए मतगणना का काम 11 मार्च को एक साथ होगा...

देश का ध्यान फिलहाल पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के रंगों की ओर है, और वह बड़ी व्याकुलता के साथ इनके नतीजों का इंतजार कर रहा है. इसका कारण राज्यों में होने वाले राजनीतिक बदलाव को जानना उतना नहीं है, जितना उसके आधार पर पूरे देश में हो रहे राजनीतिक बदलाव को समझना है. विशेषकर वह इस बात की शिनाख्त करने के लिए विशेष रूप से व्याकुल है कि नोटबंदी का चुनावों के चेहरे-मोहरे और उसकी सेहत पर क्या प्रभाव पड़ा है. उत्तरी, उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी दिशा के राज्यों में होने वाले ये चुनाव निःसंदेह न केवल वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा के चुनाव की रणनीति का निर्धारण करेंगे, बल्कि इस बीच के लगभग दो सालों की सरकार की नीतियों पर भी अपना असर दिखाएंगे.

इन पंचरंगी चुनावों में फिलहाल सबसे गाढ़ा और चटख रंग है उत्तर प्रदेश का, और इसके बाद बारी आती है पंजाब की. लोकसभा में बहुत कम सांसद भेजने वाले उत्तराखंड (5), गोवा (2) और मणिपुर (2) इसमें महज कदमताल भर कर रहे हैं, हालांकि 'आप' की उपस्थिति के कारण गोवा के बारे में थोड़ा-बहुत सुनाई पड़ जाता है.

फिलहाल इन चुनावों में चुनावी राजनीति के दो नए रंग उभरते नज़र आ रहे हैं. इनमें पहला और बहुत सुहावना रंग यह है कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं के पास से नोटों के बोरों, थैलों, थैलियों और गड्डियों की बरामदी की सूचनाएं मिल तो रही हैं, लेकिन बहुत ही कम. इसी तरह की सकारात्मक सूचनाएं उन सबके बारे में भी है, जिनका संबंध मतदाताओं को 'तथाकथित रिश्वत' देने से था. निश्चित रूप से यहां अरविंद केजरीवाल की वह अपील बहुत कामयाब मालूम होती दिखाई नहीं पड़ रही है कि 'यदि कोई पैसे देता है, तो मना मत करना, ले लेना, लेकिन वोट 'आप' (आम आदमी पार्टी) को ही देना...' बात साफ है कि नोटबंदी ने चुनाव के चेहरे को और अधिक काला होने से कुछ न कुछ तो बचाया ही है, और वह भी समय से पहले कि लोग इसे पहचानने से ही इंकार कर दें. यदि यह सच साबित हुआ, तो यह दो साल तक बहने वाली एक ऐसी जबर्दस्त बयार होगी, जो कमल के खिलने के काम आएगी.

दूसरा रंग है लोकलुभावन घोषणाओं का, जिसे यदि 'वैधानिक रिश्वत' कहा जाए, तो बहुत गलत नहीं होगा. पंजाब में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) यदि यह कहती है कि वह नीले राशनकार्ड धारकों को 25 रुपये प्रति किलो की दर से घी देगी, तो कांग्रेस सस्ती चायपत्ती और चीनी देने का वायदा करती है. मजेदार बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी कहती है कि वह स्कूल जाने वाले हर बच्चे को एक किलो घी मुफ्त देगी. साथ ही हर महिला को एक प्रेशर कुकर मुफ्त दिया जाएगा. दुनिया के सबसे कुपोषित राष्ट्रों में से एक देश मुफ्त घी और सस्ते में चायपत्ती बांटकर ही इस कलंक से मुक्ति पा सकेगा. इससे अच्छी कोई भविष्य-दृष्टि हो सकती है, सोचना मुश्किल है.

यहां जनता को इनसे दो सवाल पूछने ही चाहिए. पहला सवाल यह कि 'यह जो तुम मुफ्त में दोगे, क्या यह अपने घर से दोगे... कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे ही शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे खर्चों में कटौती करके बदले में हमें 'घी' पिला दोगे, जो हमें चाहिए ही नहीं...' पंजाब के किसानों को मुफ्त बिजली देने के वायदे ने वहां के सरकारी खज़ाने का क्या हाल कर दिया है, किसी से छिपा नहीं है.

दूसरा सवाल यह है कि 'क्या तुम हमें इस तरह की रिश्वत दे-देकर हमे हमेशा के लिए इस तरह की मुफ्तखोरी की आदत का शिकार बनाना चाहते हो...? तुम हमें इस लायक क्यों नहीं बना देते कि ज़रूरत पड़ने पर हम खुद ही घी ख़रीद सकें... यह तुम्हारे हाथ में है, और तुम ऐसा कर सकते हो...' इन प्रश्नों के सही उत्तर निश्चित रूप से राजनीति के रंगों को बदल देंगे.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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