यूपी में पीएम मोदी ने अपने भाषणों में सपा सरकार पर जमकर निशाना साधा है (फाइल फोटो)
वैसे तो यह सवाल हमेशा मन में कुलबुलाता रहता है, लेकिन इन दिनों चुनावी माहौल में राजनीतिक जुमलेबाजी ने इसे जमकर हवा दे दी है कि हम कहां के नागरिक हैं. राज्य के हैं, या देश के नागरिक हैं. यह स्थिति तब और विचित्र हो जाती है जब देश और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकार हो, जैसा कि इन दिनों यूपी में हो रहा है, या इससे पहले लोकसभा चुनावों में मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और गैर कांग्रेसी राज्यों में.भोली जनता उस वक्त और ठगी सी रह जाती है जब विकास न करने के लिए राज्य, केंद्र और केंद्र, राज्य को बिना सोचे-समझे कठघरे में खड़ा कर देते हैं. एक बोलता है हम केंद्र से पैसा भेजते हैं वह आप तक नहीं पहुंच पाते, दूसरा बोलता है पैसा ही नहीं है तो विकास कहां से करें ! संशय में हैं कि हम नागरिक, दोषी ठहराएं तो किसे, श्रेय दें तो किसे ? आखिर यह कैसे हो सकता है कि जब अपनी ही पार्टी वाले राज्यों में आप चुनावी रैली कर रहे हों तो अपने नेताजी को अच्छा-अच्छा ठहराएं और गैर पार्टी वाला हो तो उसकी छीछालेदारी करने में बिलकुल भी रहम न खाएं, माना कि यह राजनीतिक मजबूरी है, लेकिन इसमें कॉमन मिनिमम वेल्यूज यानी न्यूनतम मानवीय मूल्यों का भी ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए ?
जनता कम से कम इतना तो समझती ही है कि बिना केंद्रीय मदद के राज्य अपने बलबूते कुछ नहीं कर सकते, और राज्यों के बिना देश भी कैसे चले ? आखिर संविधान नाम की किताब में भी संघीय शासन व्यवस्था के तहत राज्य और केंद्र की व्यवस्थाओं को वह भली-भांति समझता है, पर वह यह भी जानता है कि संविधान नाम की यही किताब उसे समानता से विकास करने का हक भी मुहैया कराती है. इसी खांचे में जब देश के सर्वोच्च नेता भी ठीक बिना इस बात को ध्यान में रखे बयान दिए जाते हैं तो हैरत तो होनी ही है. सोचिए सर्वोच्च ओहदेदारी से यह बात निकलकर आमजन के कान में गूंजती है तो वह मन ही मन क्या सोचता होगा ? यूपी में जब आम नागरिक प्रधानमंत्रीजी का भाषण सुन रहे होते हैं और इन्हीं बयानों को जब वह ट्वीट करके लाखों लाख लोगों तक पहुंचाते हैं तो उनके मन पर क्या गुजरती होगी, जरा देखिए...
चाहे जनता का भरोसा हो या विकास का ग्राफ, कानून व्यवस्था हो या महिला सुरक्षा, किसानों की खुशहाली हो, या युवाओं को रोजगार, यूपी में सब डाउन है.
लखनऊ मेट्रो का उद्घाटन तो बड़े धूमधाम से किया गया, लेकिन न स्टेशन बना और न ही कोई ट्रेन चली, ये काम बोल रहा है ये कारनामे.
बड़े अस्पताल का उद्घाटन तो बड़े जोर-शोर से हुआ, पर उसमें न कोई डॉक्टर है न ही वहां इलाज की व्यवस्था है, ये काम बोल रहा है या कारनामे.
यूपी में महिलाएं घर से बाहर निकलने में डरती हैं, गुंडे जेलों से गैंग चला रहे हैं, ये काम बोल रहा है या कारनामे.
दलितों पर अत्याचार की घटना यूपी में सबसे ज्यादा है, उत्तरप्रदेश सरकार इसे लेकर बिलकुल भी गंभीर नहीं है.
प्रधानमंत्रीजी जिन्हें यूपी ने लोकसभा चुनाव में सत्तर से ज्यादा सीटों का तोहफा दिया, अपने दम पर सरकार बनवाने में योगदान दिया, कुल 43 फीसदh वोट दिए. यूपी के हालिया चुनावी इतिहास में किसी भी पार्टी को इतनी बड़ी जीत हासिल नहीं हुई थी, अब वही प्रधानमंत्री जी यदि यह बोलते मिलें कि यूपी में यदि भाजपा की सरकार आई तो सुरक्षा व्यवस्था ठीक होगी, कानून व्यवस्था ठीक होगी, रेल आएगी, तो इस क्या मानेंगे.
जरा गौर कीजिए ऐसे बयान के क्या मायने हैं, और इनमें आखिर उनकी कोई जिम्मेदारी है या नहीं है. यह सही है कि यूपी को विकास के मानकों पर अभी बहुत आगे जाना है, लेकिन क्या मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी ऐसे ही बुरे हालात नहीं हैं, जहां भाजपा की सरकार पिछले तेरह-चौदह सालों से लगातार है. वहां आपका क्या नजरिया होता है, क्या वहां ये हालात दूर करने के लिए वाकई ठोस काम हो रहे हैं, या केवल यह एक राजनीति है.
ये भी हो सकता है कि इसमें से कुछ इस बात पर खारिज कर दिए जाएं कि संविधान में राज्य और केंद्र के लिए अलग-अलग जिम्मेदारियां तय कर दी गई हैं और इनमें से कुछ जिम्मेदारियों के लिए सीधे तौर पर इंकार कर दिया जाए, पर क्या जब जनता वोट डालती है तो उसके जेहन में यह बातें होती हैं कि कौन से विषय केंद्र के हैं और कौन से राज्य के हैं. वह अपना पीएम चुनती है और उससे अपने विकास की पूरी आस भी रखती है. वह राज्य और केन्द्र को इस तरह से नहीं जानती है.
यह ताजा मामले हैं, इसलिए भी क्योंकि यूपी अभी ट्रेंड कर रहा है. लेकिन गौर कीजिएगा लोकसभा चुनाव में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी, सोनिया और राहुल गांधी की भी यही लाइन होती है, राज्यों के चुनावों में सभी पार्टियों का लगभग वही राग है. तो क्या हम राजनीति से किसी तरह की शुचिता की उम्मीद करें या नहीं. संभवत: इतिहास में राजनीति यह स्तर कभी नहीं रहा है जो रेनकोट से लेकर गधे-घोड़ों, श्मशान-कब्रिस्तान तक पहंच रहा है, खासकर सर्वोच्च राजनीति में. बल्कि अटलबिहारी वाजपेयी सरीखे तो वह नेता रहे जिन्हें सुनने को विपक्ष भी आतुर रहा करता था, लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य ऐसे शब्द गढ़ रहा है, जिसे आमजन के मस्तिष्क से विलोपित करना आसान नहीं होगा...
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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