भारत लोकतंत्र का चेहरा था. आज भारत की संस्थाएं चरमराती नज़र आ रही हैं. भारत में और न ही भारत के बाहर लोकतंत्र के सवालों को लेकर भारत के नेता बोलते नज़र आ रहे हैं.
बिहार में अगले कुछ दिनों में पहले फेज के लिए नामांकन की प्रकिया शुरू हो जाएगी, लेकिन बिहार में राजनैतिक परिदृश्य अभी तक साफ नहीं हुआ है. एनडीए और महागठबंधन में अभी तक सहयोगी दलों को लेकर संशय बना हुआ है. एनडीए में चिराग पासवान ने पेच फंसाया हुआ है तो महागठबंधन में कांग्रेस और वाम दलों ने. दोनों गठबंधन में सभी दल ज्यादा सीटों की मांग कर रहे हैं.
देखते ही देखते हर आपदा अवसर में बदल गई. हर गाली आभूषण की तरह गले में लपेट ली गई. हर चुनौती पर सफलतापूर्वक अप्रासंगिकता की वरक़ चढ़ा दी गई. हर बड़ी समस्या का निवारण एक और बड़ी समस्या बता कर कुछ और प्रस्तुत कर देना हो गया.
बिहार चुनाव में एक प्रमुख खिलाड़ी लोक जनशक्ति पार्टी है. उसके नेता चिराग पासवान पहली बार आगे आकर कमान संभाल रहे हैं. अभी तक रामविलास पासवान ही पार्टी का चेहरा होते थे, लेकिन चिराग पासवान अपने पिता के नक्शेकदम पर ही चल रहे हैं. हर चुनाव से पहले रामविलास पासवान सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह पैंतरे दिखाते हैं वैसे ही चिराग भी दिखा रहे हैं. लेकिन इस बार हालात थोड़े अलग हैं.
अभ्यर्थियों के इस पत्र को सत्यापित करने का कोई ज़रिया नहीं है. आप पत्र में लिखी बातों की जांच करा सकते हैं. यह निश्चित रूप से दुखद है कि आपके राज में 2018 में शुरू हुई OCT 49568 की प्रक्रिया अगस्त 2020 तक पूरी नहीं हुई है. पत्र से यह भी नहीं लगता कि कोई क़ानूनी अड़चन है.अत: ये भर्ती तो समय से पूरी हो सकती थी.
2007 में टीम इंडिया की कप्तानी मिलने के बाद धोनी ने कहा था कि कप्तानी मिलना किसी परीकथा से कम नहीं है. 2004 में करियर की शुरुआत करने के 16 साल बाद जब वह क्रिकेट को अलविदा कह रहे हैं, तो सचमुच उनकी कामयाबी चमत्कार लगती है. प्रेरणादायक भी है और उनकी कहानी में कभी उम्मीद नहीं छोड़ने की सीख भी है.
उधर सचिन के जयपुर आने की ख़बर के बीच गहलोत जैसलमेर निकल गए. कहा गया कि सचिन के लौटने के उनके समर्थक विधायकों में जो नाराज़गी है उसे दूर करने की कोशिश कर रहे हैं. इधर 19 थे तो उधर सौ से ज़्यादा हैं. तो नाराज़गी का आलम भी ज़्यादा होगा. लेकिन अब गहलोत के सामने हाईकमान के फ़ैसले और निर्देश की बाध्यता होगी और उनको उसी के हिसाब से चलना होगा.
शुक्रवार को कम से कम 28 देशों के 20 लाख लोग और स्कूल छात्र अपना काम और पढ़ाई छोड़कर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सड़क पर उतरे. स्पेन, न्यूज़ीलैंड, नीदरलैंड्स के कुल जनसंख्या के 3.5 प्रतिशत लोग इस प्रदर्शन में हिस्सा लिए. प्रदर्शन से पहले न्यूज़ीलैंड के लोगों ने वहां के संसद के नाम एक चिट्ठी भी लिखी. इस चिट्ठी में उन्होंने मांग की कि दश में क्लाइमेट इमरजेंसी घोषित की जाए. साथ ही जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अलग-अलग कॉउंसिल भी बनाई जाए. उधर, कनाडा के 85 शहर में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ प्रदर्शन किया गया.
पांच दिनों तक चलने वाले इस भाषण में दुनिया भर के मुल्कों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के भाषण से किस तरह की चिन्ताएं उभर रही हैं, उन भाषणों में समाधान का संकल्प कितना है या भाषण देने की औपचारिकता कितनी है, ईमानदारी कितनी है, इस लिहाज़ से भाषणों को देखा जाना चाहिए तभी हम समझ पाएंगे कि संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में भाषण का क्या मतलब है.
शिनजियांग डायरी का ये आखिरी हिस्सा चीन से लौटने के करीब महीने भर बाद लिख रही हूं. इसलिए नहीं कि वक्त नहीं मिला या इच्छा नहीं हुई, बल्कि इसलिए कि इस बीच इस पर मेरी बनाई डॉक्युमेंट्री 'चीन का चाबुक' ऑन एयर हो गई और मैं देखना चाहती थी कि इस पर प्रतिक्रिया क्या होती है. क्योंकि सीधे तौर पर भारत से जुड़ा मुद्दा नहीं है तो यह भी लगा कि पता नहीं लोग देखें ना देखें. लेकिन यूट्यूब पर सवा लाख से भी ज्यादा लोगों ने देखा और अधिकतर ने सराहा. कुछ ने कुछ सवाल भी पूछे.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने हिंदी को लेकर अचानक जो विवाद पैदा किया, क्या उसकी कोई ज़रूरत थी? क्या बीजेपी के पास वाकई कोई भाषा नीति है जिसके तहत वह हिंदी को बढ़ावा देना चाहती है? या वह हिंदू-हिंदी हिंदुस्तान के पुराने जनसंघी नारे को अपनी वैचारिक विरासत की तरह फिर से आगे बढ़ा रही है?
लोकसभा में चर्चा के दौरान अमित शाह ने कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी से सीधा सवाल किया था- ''मैं मनीष जी से कहना चाहता हूं कि उन्होंने अभी तक यह साफ नहीं किया है कि कांग्रेस अनुच्छेद 370 को खत्म करने के पक्ष में है या नहीं. कृपया स्पष्ट करें.''
दो-देशों की थ्योरी को खारिज करने और भारतीय संघ से जुड़ने के फैसले के तहत लोगों को संवैधानिक गारंटियां दी गई थीं, वे अब नदारद हो गई हैं. भारत और पाकिस्तान के संप्रभु राष्ट्र बनने से भी पहले से संप्रभु राष्ट्र के रूप में मौजूद कश्मीर अब संप्रभु नहीं रहा है- वह अब एक केंद्रशासित प्रदेश है. रातोंरात इसने अपना झंडा, संविधान और दंड संहिता - रणबीर दंड संहिता (RPC) खो दिए हैं.
राजनीति की दुनिया की रिश्तेदारियां लुभाती भी हैं और दुखाती भी हैं. उसकी कशिश को समझना मुश्किल है. पक्ष और विपक्ष का बंटवारा इतना गहरा होता है कि अक्सर इस तरफ के लोग उस तरफ के नेता में अपना अक्स खोजते हैं. लगता है कि वहां भी कोई उनके जैसा हो. यह कमी आप तब और महसूस करते हैं जब राजनीतिक विरोध दुश्मनी का रूप लेने के दौर में पहुंच जाए. सुषमा स्वराज को आज उस तरफ के लोग भी मिस कर रहे हैं. उनके निधन पर आ रही प्रतिक्रियाओं में यह बात अक्सर उभरकर आ रही है कि वे पुराने स्कूल की नेता थीं. नए स्कूल के साथ चलती हुई सुषमा स्वराज पुराने स्कूल वाली नेता क्यों किसी को लग रही थीं. वो अपने पीछे बहुत गहरा सवाल छोड़ गईं हैं.
आर्टिकल 370 के मुद्दे पर केंद्र की भारतीय जनता पार्टी को अपने सहयोगी नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड से निराशा हाथ लगी. लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में जनता दल यूनाइटेड के नेताओं ने न केवल विरोध में भाषण दिया बल्कि सदन का बहिष्कार भी किया. जबकि इस मुद्दे की गंभीरता और जनता में इसको लेकर आम लोगों के बीच जो सरकार के प्रति भावना है उसके बाद बीएसपी, आम आदमी पार्टी जैसे विपक्षी दल सरकार के समर्थन में आगे आए. लेकिन सवाल है कि इस सबके बावजूद आख़िर इस मुद्दे पर अपनी पार्टी की पुराने लाइन और सिद्धांत पर नीतीश क्यों टिके रहे. इसके लिए आपको पांच वर्ष के एक घटनाक्रम पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का कमेंट जानना होगा.
श्रीनिवासन जैन ने एक रिपोर्ट की है. बजट से 1 लाख 70 हज़ार करोड़ का हिसाब ग़ायब है. प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रथिन रॉय ने आर्थिक सर्वे और बजट का अध्ययन किया. उन्होंने देखा कि आर्थिक सर्वे में सरकार की कमाई कुछ है और बजट में सरकार की कमाई कुछ है. दोनों में अंतर है. बजट में राजस्व वसूली सर्वे से एक प्रतिशत ज्यादा है. यह राशि 1 लाख 70 हज़ार करोड़ की है, क्या इतनी बड़ी राशि की बजट में चूक हो सकती है.
इस बजट ने वाकई चक्कर में डाल दिया. विश्लेषक तैयार थे कि इस दस्तावेज की बारीकियां समझकर सरल भाषा में सबको बताएंगे, लेकिन बजट का रूप आमदनी खर्चे के लेखे-जोखे की बजाय दृष्टिपत्र जैसा दिखाई दिया. यह दस्तावेज इच्छापूर्ण सोच का लंबा-चौड़ा विवरण बनकर रह गया. बेशक बड़े सपनों का भी अपना महत्व है. आर्थिक मुश्किल के दौर में 'फील गुड' की भी अहमियत होती है, लेकिन बजट में सपनों या बहुत दूर की दृष्टि का तुक बैठता नहीं है. पारंपरिक अर्थों में यह दस्तावेज देश के लिए एक साल की अवधि में आमदनी और खर्चों का लेखा-जोखा भर होता है. हां, इतनी गुंजाइश हमेशा रही है कि इस दस्तावेज में कोई यह भी बताता चले कि अगले साल फलां काम पर इसलिए ज्यादा खर्च किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करना आने वाले सालों में देश के लिए हितकर होगा.
जब हम बच्चों के लिए खास बजट की बात करते हैं तो उसका मतलब क्या है? उसका मतलब दो दर्जन से अधिक विभागों से जुड़ी उन 89 योजनाओं से है जो सीधे तौर पर देश की चालीस प्रतिशत आबादी यानी बच्चों से जाकर जुड़ती है. अच्छी बात है कि इसको अलग करके देखा जाता है यानी कि एक पूरा दस्तावेज ही बच्चों के कल्याण से जुड़ी योजनाओं पर आधारित होता है. भारी बहुमत लेकर संसद पहुंची बीजेपी सरकार ने 5 जुलाई को जो बजट पेश किया उसमें चालीस प्रतिशत आबादी यानी बच्चों का हिस्सा केवल 3.29 प्रतिशत है. भारत के कुल 27,86,349 करोड़ रुपये के बजट में से 91,644.29 करोड़ रुपये बाल कल्याण के लिए आवंटित किए गए हैं.
विश्व कप के कुछ मैचों में दूसरों की उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन न कर पाने की वजह से जो लोग महेंद्र सिंह धोनी को रिटायर होने की सलाह दे रहे हैं, उन्हें कुछ बातें याद दिलाना ज़रूरी है. 2005 के बाद से लगातार सचिन तेंदुलकर को सलाह दी जाती रही कि वे रिटायर हो जाएं. 2007 के विश्व कप के बाद सचिन ने लगभग तय कर लिया था कि अब वे नहीं खेलेंगे. उन तीन मैचों में वे बस 60-70 रन बना पाए थे. लेकिन तब विवियन रिचर्ड्स ने उन्हें कहा कि वे खेलते रहें, किसी की सुनने की जरूरत नहीं है. सचिन ने यह बात मानी- वनडे और टेस्ट क्रिकेट को मिलाकर सौ शतक पूरे किए, 2011 का वर्ल्ड कप टीम के साथ उठाया और अंततः एक अविश्वसनीय क्रिकेट करिअर पूरा कर बल्ला रखा.
पिछले-करीब दो महिनों के चुनावी कोलाहल में जहां देश-दुनिया की बड़ी-बड़ी खबरें तक महज फुसफुसाहट बनकर रह गई हों, वहां प्रशासन की खबरों की उपेक्षा की शिकायत करनी थोड़ी नाइंसाफी ही होगी. फिर भी यहां उसकी यदि बात की जा रही है, तो केवल इसलिए, क्योंकि इन बातों का संबंध काफी कुछ जनता की जरूरी मांगों से है.