हर हफ्ते पार्टी करने वाले विनोद खन्ना अचानक एक दिन बन गए संन्यासी

हर हफ्ते पार्टी करने वाले विनोद खन्ना अचानक एक दिन बन गए संन्यासी

विनोद खन्ना 1985 में ओशो के शिष्य बन गए थे (फाइल फोटो)

खास बातें

  • विनोद खन्ना का 70 साल की उम्र में निधन हो गया
  • 1985 में वह आध्यात्मिक गुरू ओशो के शिष्य बन गए थे
  • उन्होंने चार साल तक ओशो के आश्र्म में वक्त बिताया
मुंबई:

विनोद खन्ना - जिनका नाम सुनते ही आंखों के सामने बॉलीवुड का एक बेहद हैंडसम चेहरा आ जाता है. लंबे समय से बीमारी के बाद गुरुवार को उनका निधन हो गया. अफसोस की बात है कि जिस शख्स के अभिनय और नैन-नक्श के कसीदे पढ़े जाते थे, अंतिम समय में उनकी एक तस्वीर वायरल हो गई जिसमें वह बेहद कमजोर अवस्था में दिखाई दे रहे थे. हालांकि उनके परिवार में से किसी ने भी उस तस्वीर की पुष्टि नहीं की थी.

70 के दशक में विनोद खन्ना के सुपरस्टार ओहदे के चर्चे थे. अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना की जोड़ी ने कई फिल्में एक साथ की जैसे हेरा-फेरी, खून-पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, परवरिश. जहां एक तरफ बच्चन के 'एंग्री यंग मैन' के चर्चे थे तो दूसरी तरफ विनोद खन्ना के 'लुक्स' ने लड़कियों का दिल मोह रखा था. सब अच्छा ही चल रहा था. पेशावर से मुंबई आकर बसे विनोद खन्ना के पिता का अच्छा खासा व्यवसाय था. साउथ बॉम्बे जैसे संभ्रांत इलाके में खन्ना का बचपन बीता था और 17-18 साल की उम्र में खन्ना हर हफ्ते पार्टी किया करते थे. NDTV को 2006 में दिए एक इंटरव्यू में खन्ना ने बताया था कि वह कभी भी महत्वाकांक्षी नहीं रहे. बस वह वही करते थे जो उनका दिल कहता था.

1978 में 'मुकद्दर का सिकंदर' के सुपरहिट होने के बाद पूरे देश की नज़र खन्ना की अगली हिट फिल्म पर थी. लेकिन तब तक खन्ना का दिल कहीं और लग चुका था. 1985 के आते आते विनोद का झुकाव आध्यात्म की तरफ बढ़ता चला गया और आखिरकार इस साल उन्होंने फिल्मों को छोड़ने का फैसला कर लिया. इसी साल खन्ना ने आध्यात्मिक गुरू ओशो का दामन थामा और उनके शिष्य बनकर वह उनके साथ पुणे पहुंच गए. विनोद खन्ना ने अपने इस पहलू के बारे में बात करते हुए कहा था 'मैंने हमेशा अपने दिल की सुनी और हर वक्त अपने अंदर झांकता रहा. फिल्मों में काम करते हुए भी मुझे लगा मैं बहुत खुशी नहीं हूं, सब कुछ होते हुए भी कुछ आध्यात्मिक ढूंढ रहा था.'

NDTV से ही बातचीत में खन्ना बताते हैं 'एक दिन मुझे लगा कि बस हो गया और मैंने कह दिया कि मुझे मेरे गुरू मिल गए हैं. उस वक्त आध्यत्म ही मेरी प्राथमिकता बन गई थी. मेरे लिए तपस्या करते हुए बुद्ध ही सबसे अहम हो गए थे.' हालांकि खन्ना ने साफ किया कि उन्हें नहीं पता था कि वह लौटकर नहीं आने वाले हैं. उन्हें लगा था कि वह बस कुछ दिनों के लिए ओशो के साथ जा रहे हैं लेकिन फिर वह ओशो के साथ चार सालों तक रहे.

पुणे के प्रसिद्ध ओशो आश्रम की नींव रखने में विनोद खन्ना का अहम रोल रहा. खन्ना बताते हैं कि ओशो के इस आश्रम की शुरूआत मात्र 150 लोगों से हुई थी जो कि अब हजारों में पहुंच चुकी हैं. विनोद खन्ना ने उस आश्रम में माली से लेकर प्लंबर और मैकेनिक और बिजली ठीक करने का भी काम किया. उस वक्त उनके छोटे बेटे अक्षय 5 साल के थे और राहुल खन्ना 8 साल के थे. विनोद खन्ना ने माना था कि उस दौरान वह अपने परिवार के साथ वक्त नहीं बिता पाए, लेकिन उस वक्त उन्हें अपना फैसला सही लगा था और उन्हें बाद में भी अपने इस फैसले का अफसोस नहीं रहा.


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