यह ख़बर 12 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

घटती आबादी से पारसी चिंतित, पोस्टर निकाल कर कहा, 'तादाद बढ़ाएं'

मुंबई:

मुंबई के अखबारों में जल्द ही पारसी समाज को संबोधित करते दिलचस्प पोस्टर झलकेंगे। पोस्टरों का लक्ष्य ऐसे पारसी हैं, जो शादी की उम्र पार करने के बावजूद अविवाहित हैं, या ऐसे पारसी जोड़े, जो किन्हीं कारणों से अभी तक संतान पैदा नहीं कर सके हैं।

पोस्टरों की तस्वीरें और संदेश काफी दिलचस्प हैं। मसलन, एक काली फिएट गाड़ी पर टिके एक अधेड़ पारसी से पूछा जा रहा है, 'दादा की फिएट, पापा की रोलेक्स घड़ी किसके नाम छोड़ जाएंगे?' दूसरे पोस्टर में जहां एक पारसी मां अपने बेटे को नाश्ता परोस रही है, वहां सवाल लिखा है, 'कब तक मां के पल्लू से बंधे रहोगे?'

इन तस्वीरों ने जहां कई पारसियों को गुदगुदाया है, वहीं कुछ इसे हैरानी से देख रहे हैं। भारत में पारसी समाज की गिरती तादाद से चिंतित पारसी संस्थाओं ने ही यह पोस्टर बनवाकर पारसी समाज से अपनी लोकसंख्या बढ़ाने की सीधी अपील की है।

इन पोस्टरों के पीछे की कल्पना भी पारसी कलाकारों की है। मशहूर विज्ञापन निर्माता सैम बलसारा की कंपनी मैडिसन इंडिया के बनाए इन बेबाक़ पोस्टरों पर बलसारा ने एनडीटीवी से कहा, "विज्ञापन तभी कारगर होता है, जब वह किसी दुखती रग को छेड़ता है। हमारे पोस्टरों पर चर्चा और विवाद भले ही छिड़े, लेकिन शायद यही सही तरीक़ा हो।" पोस्टरों के किरदारों में परीज़ाद ज़ोराबियन और बोमन ईरानी जैसे पारसी कलाकार भी झलकेंगे।

यह पोस्टर कुछ चिंताजनक आंकड़ों को मसखरे संदेश में तब्दील करते हैं। देश के इतिहास, अर्थव्यवस्था समेत कई क्षेत्रों में छाप छोड़ते पारसियों की तादाद आजादी के वक्त करीब 1.15 लाख थी, आज 69,000 के आसपास है। यह आंकड़े भी 2001 की जनगणना के हैं, ताजा आंकड़े और भी गिरने का अंदेशा है।

पारसी समाज की कुल संख्या के नौ फीसदी लोग साठ की उम्र के पार हैं, ऐसे में इन पोस्टरों के बचाव में ज्यादा सुर सामने आए। अंधेरी की पारसी कॉलोनी में हम 30 साल के देलजाद और 27 साल की उनकी मंगेतर बेनाज से मिले। अचरज और सहमति के सुर में देलजाद ने इसे 'एक अच्छी मुहिम और वाजिब संदेश' बताया।

बेनाज और मुखर थीं, वह बोलीं, "मुझमें पारसी संस्कार कूट-कूट कर भरे हैं, और किसी गैर-पारसी से शादी करने का सवाल ही नहीं था। हालांकि बच्चे कब और कितने हों, ऐसा कोई दबाव हमारे परिवारों से नहीं है।"

लेकिन 29 साल के संगीतकार कैजाद घरदा इस मुहिम से पूरी तरह आश्वस्त नहीं लगते। उनका कहना है कि समाज को इस बात से ज्यादा आपत्ति है कि कई युवा गैर-पारसियों से भी शादियां रचा रहे हैं। पारसी होने के मायने महज आस्था से जुड़े नहीं हैं, यहां वंश और खून को लेकर कड़े विचार भी हैं।

इसी समाज की संख्या बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार ने भी 10 करोड़ रुपये की 'जियो पारसी' जैसी योजना भी बनाई है, जिसमें जरूरतमंद पारसी जोड़ों को संतान-प्राप्ति के लिए चिकित्सा सहायता दिलवाई जाती है, और यह हालिया मुहिम इसी योजना की ओर इशारा भी करती है।

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अफसानों में है कि भारत आए पहले पारसी नुमाइंदों ने तब के शासकों से वादा किया था, कि पारसी समाज भारतीय संस्कृति में ऐसे घुल-मिल जाएगा, जैसे दूध में चीनी, और अब महज हजारों में सिमटा यह समाज इस डर से जूझ रहा है, कि कहीं भारतीय संस्कृति से पारसी मिठास गायब न हो जाए।