उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में जन्मे सिंह ने कोलकाता में कांग्रेस के छात्र परिषद के युवा सदस्य के रूप में अपने सफर की शुरूआत की, जहां उनके परिवार का कारोबार था. फिर वह लुटियंस दिल्ली की राजनीति में राजनीतिक प्रबंधन का चर्चित चेहरा बन गये. समझा जाता है कि उन्होंने यूपीए-1 सरकार को 2008 में लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान समाजवादी पार्टी (सपा) का समर्थन दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
दरअसल, भारत-अमेरिका परमाणु समझौता को लेकर वाम दलों ने मनमोहन सिंह नीत सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. उस वक्त सपा के समर्थन से ही यूपीए सरकार सत्ता में बनी रह पाई थी. उस वक्त सपा के तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव कांग्रेस से अपने दशक भर पुराने राग-द्वेष को भुलाने के लिये मान गये, जिसका श्रेय अमर सिंह को ही जाता है.
उद्योग जगत में उनके संपर्क की बदौलत सपा को अच्छी खासी कॉरपोरेट आर्थिक मदद मिलती थी और एक समय में पार्टी में मुलायम सिंह के बाद वह दूसरे नंबर पर नजर आने लगे थे. मुलायम के जन्म स्थान पर मनाये जाने वाला वार्षिक सैफई महोत्सव राष्ट्रीय सुर्खियों में रहने लगा क्योंकि समाजवादी पार्टी के अच्छे दिनों में वहां बॉलीवुड के कई सितारे कार्यक्रम पेश करने आया करते थे.
अमर सिंह ने 2011 में किडनी का प्रतिरोपण कराया और वह लंबे समय से अस्वस्थ थे. उनका सिंगापुर में उपचार के दौरान शनिवार को निधन हो गया जहां वह किडनी संबंधी बीमारियों का उपचार करा रहे थे. वह 64 वर्ष के थे. कोलकाता के बड़ा बाजार में कारोबार में अपने परिवार की मदद करने के दौरान ही वह कांग्रेस के संपर्क में आये थे और छात्र परिषद के युवा सदस्य बने थे.
छात्र परिषद बंगाल में कांग्रेस की छात्र शाखा है. वीर बहादुर सिंह सहित कांग्रेस के कई नेताओं के करीब रहने के बाद अमर सिंह मंडल राजनीति के दौरान समाजवादी नेताओं के संपर्क में आये. उस वक्त मुलायम सिंह राष्ट्रीय राजनीति में अपना पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे. तभी उन्होंने सिंह को पाया, जिन्होंने उन्हें सत्ता के गलियारों में मदद की. यह सिंह के लिये एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जो मुलायम की मदद करने में अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर रहे थे और उनका विश्वास हासिल करते जा रहे थे.
बेनी प्रसाद वर्मा, मोहन सिंह और राम गोपाल यादव सहित सपा के कई नेताओं के विरोध के बावजूद अमर सिंह, मुलायम के करीबी बने रहे. एक समय तो अमर, मुलायम के बेटे अखिलेश यादव के करीबी माने जाने लगे थे। हालांकि बाद में उनकी दूरी बढ़ गयी. सपा जब 2003 में उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई तब सिंह ने उत्तर प्रदेश सरकार की उद्योगपतियों और बॉलीवुड की हस्तियों के साथ कई बैठकें आयोजित कराई. उनमें से कुछ उद्योपतियों ने राज्य में निवेश भी किया. कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव को भी अमर सिंह की उतनी ही जरूरत थी जितनी सिंह को उनकी थी. बाद में सिंह को 2016 में राज्यसभा भेजा गया.
सिंह ने 1996 से लेकर 2010 तक सपा में अपने पहले कालखंड में पार्टी के लिए कड़ी मेहनत की और उन्हें अक्सर अमिताभ बच्चन के परिवार से लेकर अनिल अंबानी और सुब्रत रॉय जैसी हस्तियों के साथ देखा जाता था. उन्हें उद्योगपति अनिल अंबानी को 2004 में निर्दलीय सदस्य के तौर पर राज्यसभा भेजने के सपा के फैसले का सूत्रधार भी माना जाता है. हालांकि अंबानी ने बाद में 2006 में इस्तीफा दे दिया.
कहा जाता है कि सिंह ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की 2005 में क्लिंटन फाउंडेशन के जरिये लखनऊ की यात्रा आयोजित कराई थी. उस वक्त मुलायम सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे. क्लिंटन फाउंडेशन को अमर सिंह के कथित तौर पर भारी मात्रा में धन दान करने को लेकर भी विवाद है. लेकिन सिंह ने इससे इनकार किया था.
2015 में एक अमेरिकी लेखक की किताब में दावा किया गया था कि अमर सिंह ने 2008 में क्लिंटन फाउंडेशन को दस लाख डॉलर से 50 लाख डॉलर के बीच का चंदा दिया था. लेखक ने किताब में परमाणु करार के संदर्भ में अन्य आरोप भी लगाये थे जिन्हें अमर सिंह ने खारिज कर दिया था. अमर सिंह को 2010 में सपा से निकाल दिया गया और बाद में उनका नाम ‘नोट के बदले वोट' के कथित घोटाले में आया और 2011 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. हालांकि, समाजवादी पार्टी में प्रमुख चेहरे के तौर पर अखिलेश यादव के उभरने और उनके वयोवृद्ध पिता मुलायम सिंह का नियंत्रण कम होने के बाद पार्टी में अमर सिंह का दबदबा भी कम होने लगा.
सपा के वरिष्ठ नेताओं के दबाव और मुलायम के साथ मतभेद बढ़ने पर अमर सिंह ने पार्टी के विभिन्न पदों से इस्तीफा दे दिया था. उनहें 2010 में पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. इसके साथ सपा नेता के साथ करीब दो दशक पुराना उनका संबंध खत्म हो गया.
इसके बाद वह दौर आया, जब अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता के लिए मशक्कत कर रहे अमर सिंह कुछ साल बाद फिर मुलायम सिंह के करीब आ गये. लेकिन दूसरी बार सपा में लौटे सिंह को पार्टी में अखिलेश यादव का वर्चस्व होने के बाद 2017 में पुन: बर्खास्त कर दिया गया.
इसके बाद उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीब आते देखा गया. उन्होंने आजमगढ़ में अपनी पैतृक संपत्ति को संघ को दान करने की भी घोषणा की. दिल्ली में लोधी एस्टेट स्थित अपने आधिकारिक आवास के बाहर वह अक्सर ही मीडिया से मुखातिब होते थे. प्रतिद्वंद्वियों पर अपने खास अंदाज में वह हमला बोला करते थे. कुछेक बार उन्होंने मुलामय और बच्चन परिवार को भी नहीं बख्शा.
अमिताभ बच्चन के परिवार के साथ भी उनका बहुत घनिष्ठ संबंध था. हालांकि बाद में उनके रिश्तों में दरार आती देखी गयी. हालांकि, सिंह ने फरवरी में अमिताभ बच्चन के खिलाफ अपनी टिप्पणियों पर खेद प्रकट किया था. उन्होंने ट्विटर पर लिखा था, ‘‘आज मेरे पिता की पुण्यतिथि है और मुझे सीनियर बच्चन जी से इस बारे में संदेश मिला है. जीवन के इस पड़ाव पर जब मैं जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा हूं, मैं अमित जी और उनके परिवार के लिए मेरी अत्यधिक प्रतिक्रियाओं पर खेद प्रकट करता हूं. ईश्वर उन सभी का भला करे.''
अमर सिंह ने 2011 में राष्ट्रीय लोक मंच का गठन किया और 2012 के उप्र विधानसभा चुनाव में पार्टी के उम्मीदवारों के लिये प्रचार किया. अभिनेत्री जया प्रदा भी उम्मीदवार बनाईं गई. लेकिन उनके सारे उम्मीदवार हार गये.
इससे पहले, सिंह ही तेलुगू देशम पार्टी की सांसद रहीं जया प्रदा को सपा में लाये थे और वह रामपुर से पार्टी के टिकट पर दो बार लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुईं. जया प्रदा ने सिंह के प्रति अपनी निष्ठा कायम रखी और उनके साथ ही पार्टी छोड़ दी. कहा जाता है कि भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में जया प्रदा को अमर सिंह के कहने पर ही रामपुर से टिकट दिया था। हालांकि वह चिर प्रतिद्वंद्वी आजम खान से हार गयीं. अमर सिंह ने 2014 का लोकसभा चुनाव अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर लड़ा लेकिन हार गये. बाद में सिलसिलेवार मीडिया इंटरव्यू में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्तारूढ़ भाजपा की प्रशंसा की.