क्या न्यायाधीश नारीवादी हो सकते हैं? इस सवाल पर जानिए क्या बोले जस्टिस चंद्रचूड़

क्या न्यायाधीश भी नारीवादी ( Feminist) या स्त्रीवादी होते हैं, जानिए क्या बोले सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़.

क्या न्यायाधीश नारीवादी हो सकते हैं? इस सवाल पर जानिए क्या बोले जस्टिस चंद्रचूड़

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चंद्रचूड़.

खास बातें

  • क्या न्यायाधीश नारीवादी हो सकते हैं
  • सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चंद्रचूड़ ने दिया जवाब
  • बोले- समानता पर आधारित नारीवाद का सिद्धांत संवैधानिक मूल्यों के अनुसार
नई दिल्ली:

नारीवाद( Feminism) हमेशा विमर्श का विषय रहा है. अब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने भी इस अहम विषय पर अपने विचार जाहिर किए हैं. उनका मानना है कि समानता के सिद्धांत पर आधारित नारीवाद भारतीय संविधान के मूल्यों से मेल खाता है. दरअसल, हरियाणा स्थित ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी (जेजीई) की ओर से आयोजित एक गोलमेज चर्चा में पूछे गए एक सवाल पर का जस्टिस चंद्रचूड़ जवाब दे रहे थे. बकौल जस्टिस चंद्रचूड़ , "जब आप नारीवाद के सिद्धांतों की बात करते हैं तो इस मतलब यह कि आप संविधान में समानता के तत्व को रेखांकित कर रहे हैं."

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दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और आंबेडकर विश्वविद्यालय द्वारा मिलकर छह-सात अक्टूबर को यहां आयोजित यह गोलमेज सत्र इंडियन फेमिनिस्ट जजमेंट परियोजनाओं की दो दिवसीय कार्यशाला का हिस्सा था.क्या न्यायाधीश नारीवादी हो सकता है? न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, "मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि कोई न्यायाधीश खुद को नारीवादी न्यायाधीश बताते हुए अपने आप को दुनिया भर के कुछ प्रमुख न्यायाधीशों में गिन सकता है. इसके पीछे एक कारण यह है कि न्यायाधीश को अपने काम की प्रकृति के अनुसार तथ्यों के आधार पर निर्णय लेना होता है." 

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सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने कहा कि लेकिन नारीवाद सामाजिक दायरे में व्यवधान के बारे में ज्यादा है.उन्होंने कहा, "यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि एक न्यायाधीश के रूप में आपको संविधान के आवश्यक मूल्यों -समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे पर प्रभाव देना होता है."जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल की सहायक प्रोफेसर और सहायक निदेशक झुमा सेन ने इंडियन फेमिनिस्ट जजमेंट प्रोजेक्ट सत्र की शुरुआत की, जिसके बाद गोलमेज चर्चा हुई.इंडियन फेमिनिस्ट जजमेंट प्रोजेक्ट का गठन विद्वानों के एक समूह ने किया है, जिनका मकसद फेमिनिस्ट सिद्धांतों और अभ्यासों के बीच अंतर को पाटना था.

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