किताब की बात: क्या बिहार में मरते रहेंगे बच्चे, बिकती रहेंगी बेटियां?

पुस्तक समीक्षा: पुष्यमित्र ने यह पूरी कहानी एक रिपोर्टर के अंदाज़ में ही लिखी है. वे इसे कोई सैद्धांतिक या वैचारिक जामा पहनाने की कोशिश नहीं करते

किताब की बात: क्या बिहार में मरते रहेंगे बच्चे, बिकती रहेंगी बेटियां?

बीते साल बिहार में नीतीश कुमार ने खादी के एक मॉल का उद्घाटन किया. इसमें शक नहीं कि खादी बिकनी चाहिए. लेकिन क्या गांधी ने खादी की कल्पना एक ऐसे कपड़े के रूप में की थी जो मॉल में बिके? गांधी की खादी बिक्री के लिए नहीं, बुनकरी के लिए थी, गरीबों के लिए थी. बताने की ज़रूरत नहीं कि गांधी की खादी का यह बाज़ारीकरण दरअसल उस नई सत्ता संस्कृति का द्योतक है जिसके तहत सारा विकास एक ख़ास वर्ग को संबोधित होता है और उसे बाज़ार की कसौटी पर खरा उतरना होता है.

इस साल चुनावों से पहले जेडीयू ने अपना जो रिपोर्ट कार्ड जारी किया, उसकी एक विडंबना यह भी थी कि उसमें आंकड़ों की मार्फ़त जिस चमकते बिहार की  तस्वीर बनाई गई, वह अगर सच भी है तो बहुत छोटे से तबके के लिए है जिसके लिए पटना और दूसरे शहरों में बड़े अपार्टमेंट बन रहे हैं, नई गाड़ियां आ रही हैं. 24 घंटे बिजली आ रही है और चौड़ी सड़कें बन रही हैं. गरीब इस विकास से हमेशा की तरह दूर है. बेशक, यह सिर्फ़ बिहार की नहीं, उस पूरे विकास की विडंबना है जो इस देश पर हावी है.

बहरहाल, इन सबके बीच तरह-तरह के गीतों की मार्फ़त बिहार चुनाव से पहले यह बहस तेज़ हो गई है कि बिहार में 'का बा'- यानी क्या है. संकट यह है कि यह मूलतः राजनीतिक बहस है जिसमें लोगों को यह जानने या बताने में दिलचस्पी नहीं है कि वाकई बिहार में क्या है और क्या नहीं है, बल्कि उन्हें अपने चुने हुए पक्ष के हिसाब से कहना है कि बिहार में कुछ नहीं है या सबकुछ है.

लेकिन सच्चाई क्या है? इस सवाल का जवाब लेखक और पत्रकार पुष्यमित्र की इन्हीं दिनों आई किताब 'रुकतापुर' देती है. पुष्यमित्र घुमंतू पत्रकार के तौर पिछले कई वर्षों से लगातार बिहार के अलग-अलग हिस्सों में जाते रहे हैं. उनका देखा हुआ बिहार वह नहीं है जो राजनीति बताती है. इस किताब में दर्ज टिप्पणियां किसी दल विशेष को लक्ष्य कर नहीं लिखी गई हैं, लेकिन जाहिर है, इनसे निकलने वाले नतीजों के ज़िम्मेदार पिछले तीन दशकों से बिहार में शासन चला रहे लोग ही हैं. दरअसल यह वैधानिक चेतावनी भी इसीलिए देनी पड़ रही है कि ये चुनाव के दिन हैं और नेता तरह-तरह के वादे और दावे कर रहे हैं. इसलिए भी यह देखना ज़रूरी है कि इन तमाम दावों के बीच  बिहार के विकास को लेकर पुष्यमित्र की किताब क्या कहती है.

पुष्यमित्र पहले रेलों की ख़बर लेते हैं. किताब का नाम 'रुकतापुर' भी रेलवे की दुनिया से ही लिया गया है. 2015 में वे सहरसा से सुपौल जा रहे हैं. वे जिस ट्रेन में बैठे हैं, वह राघोपुर तक जाती है. बुलेट ट्रेन की कल्पना और चर्चा के इस ज़माने में इस ट्रेन को सहरसा से राघोपुर की 63 किलोमीटर की दूरी तय करने में चार घंटे लगते हैं- यानी 16 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार. मैदानी इलाक़ों में इतनी धीमी ट्रेन शायद ही दुनिया के किसी हिस्से में हो. पता चलता है, यह ट्रेन कहीं भी रोक ली जाती है. ऐसा ही एक स्टेशन है- मुक्तापुर, जिसकी तर्ज पर लोगों ने रुकतापुर बना लिया- यानी जहां भी ट्रेन रोक दी जाए- वह रुकतापुर स्टेशन है.

ट्रेनों की कहानी को पुष्यमित्र बिल्कुल पटना तक ले आते हैं. 2018 तक पटना के हड़ताली मोड़ से चलने वाली एक ट्रेन का ज़िक्र बिल्कुल हैरान करने वाला है. जिसने वाकई वह ट्रेन चलती नहीं देखी है, उसके लिए यक़ीन करना मुश्किल होगा कि बीच पटना से ऐसी ट्रेन भी गुज़रा करती थी जिसे लोगों को सड़क से हटाने के लिए हॉर्न बजाना पड़ता था और कभी-कभी पटरी से लगी किसी गाड़ी के हटाए जाने का इंतज़ार करना पड़ता था. वे इस बात को पहचानते हैं कि बिहार में ट्रेनें बस मज़दूरों को ढोने और बाहर से पूजा के अवसरों पर घर लाने का काम कर रही हैं.

पुष्यमित्र उदास ढंग से कहते हैं कि पूरा बिहार जैसे रुकतापुर बना हुआ है.वे बारिश और बाढ़ की विभीषिका पर आते हैं और बताते हैं कि किस तरह बिहार में हर साल बाढ़ प्रबंधन के नाम पर करोड़ों की राशि बरबाद होती जा रही है. उनकी किताब पढ़ते हुए अनुपम मिश्र की याद आती है जो कहा करते थे कि भारत में जितने बांध बने, बाढ़ उतनी ही बढ़ती चली गई. बिहार जैसे इस सच्चाई का आईना है. वहां जितनी लंबी नदियां हैं, उनसे लंबे तटबंध हैं. नतीजा यह है कि पहले एक चौथाई बिहार बाढ़ की चपेट में आता था तो अब तीन-चौथाई बिहार उसकी चपेट में है. पुष्यमित्र पिछले तमाम वर्षों की बाढ़ के ब्योरों के साथ आते हैं और बताते हैं कि कैसे सारा महकमा सबकुछ जानते-समझते हुए भी अनजान बना रहता है. 2017 में नीतीश कुमार ने अपनी ओर से एक व्याख्या दी और उसके बाद वह शाश्वत व्याख्या हो गई. पुष्यमित्र लिखते हैं- 'फिर मीडिया में एक नया शब्द गूंजा- फ़्लैश फ्लड. यह नीतीश कुमार के हेलीकॉप्टर सर्वे के बाद निकला और धड़ाधड़ अख़बारों और न्यूज़ चैनलों में छा गया. सीएम ने कहा, फ्लैश फ्लड आ गया था. हम चेत नहीं पाए. अचानक पानी आ जाए तो कोई क्या कर सकता है. फिर आपदा विभाग ने भी यही कहा, डीएम ने, एसडीओ और बीडीओ ने भी. मीडिया भी तोतारटंत की तरह यही दुहराने लगा. किसी ने नहीं पूछा कि जिस महानंदा नदी का पानी चार रोज़ पहले सिलीगुड़ी और उत्तर बंगाल में तबाही मचा रहा था, उसे आना तो बिहार के किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया ज़िले में ही था. आपको तो चार दिन पहले सतर्क हो जाना चाहिए था. जिस गंडक का पानी एक हफ़्ते से नेपाल को तबाह किए हुए था, वही पानी तो बगहा और बेतिया और आसपास के इलाक़े में पहुंचा है.'

सरकारी लापरवाही और सफ़ाई का यह साझा लगभग हर मोर्चे पर दिखता है- ख़ासकर इन्सेफ़्लाइटिस यानी दिमाग़ी बुखार या चमकी बुखार के सिलसिले में. यह समझ में आता है कि बच्चों को समय रहते इलाज मिले तो इस बीमारी से आसानी से बचाया जा सकता है. इसके लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को विकसित और मज़बूत करने की ज़रूरत है. मगर नीतीश कुमार बड़े अस्पतालों मे बेड बढ़ाने की चुनावी घोषणा करते ही दिखते हैं. कई साल नियंत्रित रहने के बाद पिछले साल इस बीमारी ने बहुत सारे बच्चों को शिकार बना लिया. नीतीश कहते हैं कि इस साल चुनाव थे, इसलिए बीमारी के विरुद्ध जागरूकता फैलाने में देर हो गई. यानी मान लें कि 2020 के इस चुनावी साल में भी बच्चे मरने वाले हैं- चुनाव ज़रूरी है बच्चों की जान नहीं. दरअसल बिहार में स्वास्थ्य अब तक वह कमज़ोर रेशा बना हुआ है जो एक झटके में टूट जाता है. पानी में फ्लोराइड की बढ़ी हुई मात्रा को लेकर भी सरकार का रवैया बिल्कुल टालू और आपराधिक है, क्योंकि वह जानलेवा साबित हो रहा है.
फिर दुहराना होगा कि यह सिलसिला पूरे बिहार में लगभग हर जगह है. महिला उत्पीड़न के कई नए पहलू यहां दिखते हैं. पंजाब-हरियाणा से आकर शादी के नाम पर लड़कियों की ख़रीद और तस्करी का भयावह सिलसिला चल रहा है जिससे सबने आंखें मूंद रखी हैं. शादी के बाद बिहार से बाहर ले जायी जा रही लड़कियों का बरसों से अता-पता नहीं है, जिनका पता चल रहा है, वे बहुत सिहरा देने वाली कहानियां अपने साथ ला रही हैं. उन्हें कई-कई बार बेचा जा रहा है. उन्हें बंधुआ मज़दूरों से लेकर वेश्याओं की तरह भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

पुष्यमित्र ने रोज़गार और कारोबार की हालत का भी जायजा लिया है. किस तरह वहां के मशहूर उद्योग दम तोड़ते चले गए, इसकी कहानी काफी तकलीफ़देह है. बटन उद्योग और मखाना उद्योग से जुड़े लोगों की न्यूनतम मज़दूरी का भी ठिकाना नहीं है. पढ़े-लिखे बेरोज़गार नौजवानों की दुखती रग भी छूती है यह किताब.

बिहार की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. इस समूची आर्थिक अराजकता में अपने सामाजिक-सामंती आयाम भी हैं. पुष्यमित्र उसके ब्योरों में नहीं जाते, लेकिन उसके ज़रूरी इशारे करते हैं. इस समूचे पिछड़ेपन की सबसे ज़्यादा मार वहां दलितों-महादलितों और अल्पसंख्यकों पर पड़ रही है. पुष्यमित्र मानते हैं कि बिहार में काम हुआ है- सड़कें बनी हैं और बिजली की हालत सुधरी है. लेकिन यह नाकाफ़ी है. उनकी किताब बताती है कि बिहार किस क़दर गरीबी और उपेक्षा का अभिशाप झेल रहा है. विकास और सामाजिक न्याय के नाम पर होने वाली राजनीति सतह को छूकर निकल जाती है- नीचे की बजबजाती गरीबी अछूती रह जाती है.

पुष्यमित्र ने यह पूरी कहानी एक रिपोर्टर के अंदाज़ में ही लिखी है. वे इसे कोई सैद्धांतिक या वैचारिक जामा पहनाने की कोशिश नहीं करते. लेकिन कोई समाजशास्त्री इन तथ्यों को देखे तो वह शायद उस वैचारिक विडंबना पर भी उंगली रख सके जिसकी वजह से बिहार की सारी राजनीतिक प्राथमिकताएं जैसे तार-तार हैं.

रहा बिहार के नेताओं का सवाल- तो यह किताब बिना कुछ कहे उनकी कलई खोलती है. नीतीश के सारे दावे इस किताब के आगे बेमानी साबित होते हैं. यह भी समझ में आता है कि वे पिछले पंद्रह सालों की बात क्यों करना चाह रहे हैं. फिलहाल तो बेटियां बिकती रहेंगी, बच्चे मरते रहेंगे, क्योंकि यह चुनावी साल है.

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रुकतापुर: पुष्यमित्र; राजकमल प्रकाशन, 250 रुपये.